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पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
शार्दूलविक्रीड़ित । स्वर्गायाव्रतिनोऽपि सामनसः श्रेयस्करी केवला सर्वप्राणिदया तया तु रहितः पापस्तपस्थोऽपि च। तद्दानं बहु दीयतां तपसि वा चेतः स्थिरं धीयतां ध्यानञ्च क्रियतां जना न सफलं किञ्चिद्दयावर्जितम् ॥११॥
अथे:-चाहे मनुष्य अबती व्रतरहित क्यों न होवे यदि उसका चित्त समस्त प्राणियों के प्राणोंको किसी प्रकार दुःख न पहुंचानारूप दयासे भीगा हुआ है तो समझना चाहिये कि उस पुरुषको वह दया स्वर्ग तथा मोक्षरूप कल्याणको देनेवाली है किंतु यदि किसी पुरुषके हृदयमें दयाका अंश न हो तो चाहे वह कैसा भी तपस्वी क्यों न होवे तथा वह चाहै इच्छानुसार ही दान क्यों न देता हो अथवा वह कितना भी तपमें चित्तको क्यों न स्थिर करता हो तथा वह कैसाभी ध्यानी क्यों न हो पापीही समझा जाता है क्योंकि दयारहित कोई भी कार्य सफल नहीं होता।
अब आचार्य श्रावकधर्मका वर्णन करते हैंसन्तः सर्वसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्तः परं कारणं रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति काये सति । वृत्तिस्तस्य यदन्नतः परमया भक्त्यार्पिताजायते तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रियः॥१२॥
अर्थः-जिस सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयकी समस्त सुरेन्द्र तथा असुरन्द्र भाक्ति से पूजन करते हैं तथा जो मोक्षका उत्कृष्ट कारण है, अर्थात् जिसके बिना कदापि मुक्ति नहीं हो सक्ती तथा जो तीन लोकका प्रकाश करनेवाला है ऐसे सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्ररूप रत्नत्रयको देहकी स्थिरता रहते सन्तही मुनिगण धारण करते हैं तथा श्रहातुष्टि आदिगुणोंकर संयुक्त गृहस्थियोंके हारा भक्तिसे दिये हुए दानसे उनउत्तममुनियों के शरीरकी स्थिति रहनी है इसलिये ऐसे गृहस्थों का धर्म किसको प्रिय नहीं है अर्थात् सब ही उसको प्रिय मानते हैं ॥१२॥
स्रग्धारा। आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिकैःप्रीतिरुच्चैःपात्रेभ्यो दानमापनिहतजनकृते तच्च कारुण्यबुद्ध्या
॥७॥
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