________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
11411
www.kobatirth.org
पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
इस प्रकार मंङ्गलाचरणकर आचार्य धर्मके स्वरूप के वर्णन का प्रारम्भ करते हैं प्रथमही धर्म कितने प्रकारका है इस बातको बतलाते हैं ।
शार्दूलविक्रीडित ।
Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir
धर्मो जीवदया गृहस्थशमिनोर्भेदाद्विधा च त्रयं रत्नानां परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः । मोहोद्भूतविकल्पजालरहिता वागङ्गसङ्गोज्झिता शुद्धानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥७॥
अर्थ- समस्त जीवोंपर दयाकरना इसीका नाम धर्म है अथवा एकदेश गृहस्थका धर्म तथा सर्वदेश मुनियोंका धर्म इस प्रकार उसधर्म के दो भी भेद हैं अथवा उत्कृष्ट रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यक् चारित्र ) ही धर्म है अथवा उत्तमक्षमा मार्दव आर्जव आदिक दश प्रकार भी धर्म है अथवा मोहसे उत्पन्न हुवे समस्त विकल्पोंकर रहित तथा जिसको बचनसे निरूपण नहीं करसक्ते एसी जो शुद्ध तथा आनन्दमय आत्माकी परणति उसीका नाम उत्कृष्ट धर्म है इसप्रकार सामान्यतया धर्मका लक्षण तथा भेद इसश्लोक में बतलाये गये हैं ||७|| अब आचार्य चार श्लोकोंमें दयाधर्मका वर्णन करते हैं ।
आद्या सद्व्रतसञ्चयस्य जननी सौख्यस्य सत्सम्पदां मूलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहक निःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहाङ्गिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः धिङ्नामाऽप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥८॥ अर्थः-- जो समस्त उत्तम व्रतोंके समूहमें मुख्य है तथा सच्चे सुख और श्रेष्ट संपदाओं की उत्पन्न करनेवाली है और जो धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है (अर्थात् जिसप्रकार जड़ बिना वृक्ष नहीं ठहरता उसही प्रकार दया बिना धर्मभी नहीं ठहर सक्ता) तथा जो मोक्षरूपी महलके अग्रभागमें चढ़नके लिये सीढ़ीके समान है ऐसी धर्मात्मा पुरुषों को "समस्त प्राणियों पर दया" अवश्य करनी चाहिये किन्तु जिस पुरुष के चित्तमें लेशमात्र भी दया नहीं है उस पुरुष के लिये धिक्कार है तथा समस्त दिशा उसके लिये शून्य है अर्थात् जो निर्दयी है उसका कोई भी मित्र नहीं होता ॥
For Private And Personal
॥५॥