Book Title: Padmanandi Panchvinshatika
Author(s): Padmanandi, Gajadharlal Jain
Publisher: Jain Bharati Bhavan

View full book text
Previous | Next

Page 16
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ॥३॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir पद्मनन्दिपश्चविंशतिका । ही कारण जिस अर्हतने अपनी आत्माको जान लिया है तथा आत्माका ज्ञाता होने के कारण जो अर्हत कर्मोंकर रहित है तथा कर्मोंसे रहित होनेके ही कारण जो आनन्द आदिगुणोंका आश्रय है ऐसा अत भगवान मेरी सदा रक्षा करो अर्थात् ऐसे अर्हत भगवानका मैं सदा सेवक हूं । भावार्थ — जो रागी तथा द्वेषी है और जो निरन्तर स्त्रियोंमें रमण करता है तथा जो मोही है और शत्रु से भीत होकर जो निरन्तर शस्त्रको अपने पास रखता है तथा कर्मोंका मारा नानाप्रकारकी गतियोंमें भ्रमण करता रहता है ऐसा स्वयं दुःखी अर्हेत दूसरेकी क्या रक्षा कर सक्ता है ? किंतु जो वीतराग है तथा काम मोह आदि जिसके पास भी नहीं फटकने पाते और जो जन्म मरणादिकर रहित है और कर्मों का जीतनेवाला है वहीं दूसरे की रक्षा करसक्ता है इसलिये ऐसही आप्त (अर्हन्त ) के मैं शरण हूं ॥ ३॥ इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखर शिखारत्नार्कभासानख श्रेणीतेक्षणबिम्ब शुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पालम् । श्रीसद्माङ्घ्रियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रजस्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे ॥ ४ ॥ अर्थः- जिस प्रकार कमलोंपर भ्रमर गुंजार करते हैं उसहीप्रकार भगवान के चरणकमलोंको बड़े २ इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके मुकुटके अग्रभागमें लगे हुये जो रत्न उनकी प्रभासहित भगवानके चरणोंके नखोंमें उन इन्द्रोंके नेत्रोंके प्रतिबिम्ब पड़ते हैं इसलिये भगवान के चरणोंपर भी इन्द्रों के नेत्ररूपी भरे निवास करते हैं तथा जिसप्रकार कमल कुछसफेदीलिये लाल होते हैं उसही प्रकार भगवानके चरणकमल भी कुछ सफेदी लियेहुए लालवर्ण है तथा जिसप्रकार कमलोंमें लक्ष्मी रहती है उसी प्रकार भगवान के चरणकमल भी लक्ष्मीके स्थान है अर्थात् चरण कमलोंके आराधन करने से भव्य जीवोंको उत्तम मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । इसलिये यद्यपि कमल तथा भगवानके चरणकमल इन गुणोंसे समान For Private And Personal 11311

Loading...

Page Navigation
1 ... 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 ... 527