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॥३॥
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पद्मनन्दिपश्चविंशतिका ।
ही कारण जिस अर्हतने अपनी आत्माको जान लिया है तथा आत्माका ज्ञाता होने के कारण जो अर्हत कर्मोंकर रहित है तथा कर्मोंसे रहित होनेके ही कारण जो आनन्द आदिगुणोंका आश्रय है ऐसा अत भगवान मेरी सदा रक्षा करो अर्थात् ऐसे अर्हत भगवानका मैं सदा सेवक हूं ।
भावार्थ — जो रागी तथा द्वेषी है और जो निरन्तर स्त्रियोंमें रमण करता है तथा जो मोही है और शत्रु से भीत होकर जो निरन्तर शस्त्रको अपने पास रखता है तथा कर्मोंका मारा नानाप्रकारकी गतियोंमें भ्रमण करता रहता है ऐसा स्वयं दुःखी अर्हेत दूसरेकी क्या रक्षा कर सक्ता है ? किंतु जो वीतराग है तथा काम मोह आदि जिसके पास भी नहीं फटकने पाते और जो जन्म मरणादिकर रहित है और कर्मों का जीतनेवाला है वहीं दूसरे की रक्षा करसक्ता है इसलिये ऐसही आप्त (अर्हन्त ) के मैं शरण हूं ॥ ३॥ इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखर शिखारत्नार्कभासानख श्रेणीतेक्षणबिम्ब शुम्भदलिभृद्दूरोल्लसत्पालम् । श्रीसद्माङ्घ्रियुगं जिनस्य दधदप्यम्भोजसाम्यं रजस्त्यक्तं जाड्यहरं परं भवतु नश्चेतोऽर्पितं शर्मणे ॥ ४ ॥ अर्थः- जिस प्रकार कमलोंपर भ्रमर गुंजार करते हैं उसहीप्रकार भगवान के चरणकमलोंको बड़े २ इन्द्र आकर नमस्कार करते हैं तथा उनके मुकुटके अग्रभागमें लगे हुये जो रत्न उनकी प्रभासहित भगवानके चरणोंके नखोंमें उन इन्द्रोंके नेत्रोंके प्रतिबिम्ब पड़ते हैं इसलिये भगवान के चरणोंपर भी इन्द्रों के नेत्ररूपी भरे निवास करते हैं तथा जिसप्रकार कमल कुछसफेदीलिये लाल होते हैं उसही प्रकार भगवानके चरणकमल भी कुछ सफेदी लियेहुए लालवर्ण है तथा जिसप्रकार कमलोंमें लक्ष्मी रहती है उसी प्रकार भगवान के चरणकमल भी लक्ष्मीके स्थान है अर्थात् चरण कमलोंके आराधन करने से भव्य जीवोंको उत्तम मोक्षरूपी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । इसलिये यद्यपि कमल तथा भगवानके चरणकमल इन गुणोंसे समान
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