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ॐ
नमः सिद्धेभ्यः ।
भाषानुवाद सहितपद्मनन्दिपञ्चविंशतिका ।
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-18 मंगलाचरण -
स्रग्धरा ।
कायोत्सर्गायताङ्गो जयति जिनपतिर्नाभिसूनुर्महात्मा मध्यान्हे यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजतेस्मोग्रमूर्तिः चक्रं कर्मेन्धनानामतिबहुदहतो दूरमौदास्यवातस्फूर्यत्सद्ध्यानबन्हेरिव रुचिरतरः प्रोद्गतो विस्फुलिङ्गः॥ १ ॥ अर्थः —दुपहर के समय जिस आदीश्वर भगवानके ऊपर रहाहुआ तेजस्वीसूर्य ज्ञानावरणादि कर्मरूपी ईंधनको पलभरमें भस्म करनेवाली तथा वैराग्यरूपी पवनसे जलाई हुई, ध्यानरूपी अग्निसे उत्पन्न हुवे मनोहर फुलिंगाके समान जान पड़ता है ऐसे कायोत्सर्गसहित विस्तीर्णशरीर के धारी तथा अष्टकमके जीतनेवाले उत्तमपुरुषों के स्वामी महात्मा श्रीनाभिराजाके पुत्र श्रीऋषभदेव भगवान सदा जयवन्त है ।
भावार्थ — इस श्लोक में उत्प्रेक्षालंकारहै इसलिये ग्रन्थकार उत्प्रेक्षा करते हैं कि जिसप्रकार पवनसे चेताई हुई अग्नि जिससमय काष्टके समूहको जलाती है उससमय जैसे उसके फुलिंगे आकाशमें उड़कर जाते हैं । उसही प्रकार श्री ऋषभदेव भगवानने भी अपनी वैराग्यरूपी अग्निसे ज्ञानावरणादिकमों के समूहको जलाया था
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