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समस्त दुःखों का अन्त मुक्ति में होता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यक्चारित्र एवं सम्यक्सप, मोक्ष का मार्ग है। इन चारों में से किसी एक की कमी होने से मोक्ष प्राप्त नहीं होता। मुक्तात्मा जीव समस्त लोकालोक को जानते-देखते हैं। वे पुनः संसार में नहीं आते क्योंकि कर्म सर्वथा नष्ट होने पर पुनः उत्पन्न नहीं होते, जैसे सूखा हुआ पेड़ । दार बीज से जैसे अंकुर नहीं होते उसी प्रकार कर्म बीज के जल जाने से भष-अंकुर नहीं उत्पन होता। मुक्त जीव लोकाका के अग्रभाग में प्रतिष्ठित हो जाते हैं। मुक्त ओव अमूस्तिक है, अनन्तजान दर्शनधारी है, अनुपम सुख-सम्पत्र होते है । प्रस्तुत संस्करण
निर्गन्ध प्रवचन का मूल भाग प्राकृत-अर्धमागधी भाषा में है। भगवान महावीर ने इसे ही अपने उपदेशों का माध्यम बनाया था। यद्यपि मम्मकाल में प्राकृत भाषा का पठन-पाठन कुछ कम हो गया और संस्कृत भाषा ज्ञान ही वित्ता की कसौटी मान ली गई। प्राकृत जो जनभाषा थी, उसे समझने के लिए भी संस्कृत का सहारा लिया जाने लगा। संस्कृत पंडितों की इस कठिनाई को ध्यान में रखकर यहाँ भी मूल गाथाओं की संस्कृत छाया, साथ में अन्वयार्थ और भावानुवाद दिया गया है जिसे विद्वान और साधारण पढ़ालिखा व्यक्ति भी हृदयंगम कर सकता है और प्रतिदिन के स्वाध्याय से आत्मा को जागृप्त एवं कल्याणमार्गानुगामी बना सकता है।