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नागरीप्रचारिणी पत्रिका इत्यादि जो कुछ भी विद्याएँ उन देशों में जाती थीं उनको सर्वोच्च स्थान दिया जाता था।
इस विषय पर पाल पेलियट, सर पारेल स्टाइन, तथा ग्रुन वेडेल इत्यादि विद्वानों की नई खोज ने यह सिद्ध कर दिया है कि यूनानी, ईरानी, ईसाई तथा मैनिकियन यह सब संस्कृतियाँ मध्य एशिया में प्राकर बौद्ध धर्म की प्रात्मा में सम्मिलित हो गई। इसी समय चीन में टाओ मत और कनफ्यूशियन मत भी ज़ोर पकड़ रहे थे और टाओ मतावलंबियों और बौद्धों में परस्पर बड़े झगड़े हुए। १३वीं शताब्दी में चंगेज खाँ के पुत्र कुबलई खाँ के राज्य में तो बौद्धों की विजय हुई, किंतु उसके बाद उनका पतन प्रारंभ हो गया।
कोरिया में बौद्ध मत चीन से चौथी शताब्दी में ही पहुँच गया था। इसके बाद कुछ प्रचारक भारतवर्ष से भी वहाँ
गए । छठी शताब्दी में कोरिया के राजा कोरिया और जापान
" और रानी भी भिक्षु हो गए थे। सन् में भारतीय सभ्यता
५३६ ई० में जापान में यहीं से बौद्ध धर्म पहुँचा। वहाँ पर पहले तो कुछ विरोध हुआ। किंतु छठी शताब्दी के अंत तक समस्त विरोधी दल नष्ट हो गया । जापानी राजा उमायाडो ने बौद्ध धर्म को सन् ५८७ ई० में राजधर्म बना दिया। उसने कोरिया से बौद्ध पंडितों को ज्योतिष प्रादि विद्याओं की शिक्षा के लिये बुलाया और बौद्ध धर्म के अध्ययनार्थ चीन में विद्यार्थी भेजे। फिर तो जापान में अनेक प्रचारक तथा धर्म-शिक्षक पहुँच गए। फल यह हुआ कि शीघ्र ही जापान के सामाजिक और माध्यात्मिक जीवन पर बौद्ध धर्म के प्राचार विचार, दया, अहिंसा इत्यादि के भादों का बड़ा
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