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हिंदी की गद्य-शैली का विकास १६६ रूप मिलते हैं। बहुवचनरूप भी दो प्रकार के मिलते हैं। 'काजन' 'हाथन' 'सहस्रन' और 'कोटिन्ह' 'मोतिन्ह' 'फूलन्ह' 'बहुतेरन्ह' इत्यादि। मुंशी सदासुखलाल की भाँति इनमें भी पंडिताऊपन मिलता है। 'जाननिहारा' 'प्रावता' 'करनहारा' 'रहे' (थे के लिये ) 'जैसी आशा करिये, 'श्रावने इत्यादि इसी के संबोधक हैं ! एक ही शब्द दो रूपों में लिखे गए हैं। उदाहरणार्थ 'कदही' भी मिलता है और 'कधी', 'नहीं' के स्थान में सदैव न लिखा गया है। मिश्रजी कलकत्ते में तो रहते ही थे; इसी कारण उनकी भाषा में बँगला का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है 'गाछ'-'कांदना' बँगला भाषा के शब्द हैं 'सो मैं नहीं सकता हूँ। में बँगलापन स्पष्ट है। 'जहाँ कि' को सर्वत्र 'कि जहाँ' लिखा है।
यो तो मिश्रजी की भाषा अव्यवस्थित और अनियंत्रित है और उसमें एकरूपता का अभाव है; परंतु उसमें भाव-प्रकाशन की पद्धति सुंदर और आकर्षक है। तत्सम शब्दों का अच्छा प्रयोग होते हुए भी उसमें तद्भव और प्रांतिक शब्दों की भरमार है। सभी स्थलों पर भाषा एक सी नहीं है। कहीं कहीं तो उसका सुचारु और संयत रूप दिखाई पड़ता है, पर कहीं कहीं अशक्त और भद्दा । ऐसी अवस्था में इनकी भाषा को 'गठीली' और 'परिमार्जित' कहना युक्तिसंगत नहीं है। एकस्वरता का विचार अधिक रखना चाहिए। इस विचार से इनकी भाषा को देखने पर निराश होना पड़ेगा; परंतु साधारण दृष्टि से वह मुहाविरेदार और व्यावहारिक थी इसमें कोई संदेह नहीं। कहीं कहीं तो इनकी रचना आशा से अधिक संस्कृत दिखाई पड़ती है जैसे
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