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नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाषा का अध्ययन अनिवार्य हो गया, क्योंकि इसके बिना उनका रोटी कमाना दुष्कर हो गया। इस विवशता से इस उर्दू कही जानेवाली खिचड़ी भाषा की व्यापकता बढ़ने लगी। अब एक विचारणीय प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि सरकारी मदरसे में नियुक्त पाठ्य ग्रंथों का निर्माण किस भाषा में हो, हिंदी खड़ी बोली में हो अथवा अरबी-फारसी-मय नवीन रूपधारिणी उर्दू नाम से पुकारी जानेवाली इस खिचड़ी भाषा में ?
काशी के राजा शिवप्रसाद इस समय शिक्षा विभाग में निरीक्षक के पद पर नियुक्त थे। वे हिंदी के उन हितैषियों में से
_ थे जो लाख विघ्न, बाधाओं तथा अड़चनों राजा शिवप्रसाद उपस्थित होने पर भी भाषा के उद्धार के लिये सदैव प्रयत्नशील रहे। इस हिंदी उर्दू के झगड़े में राजा साहब ने बड़ा योग दिया। उनकी स्थिति बड़ी विचारणीय थी। उन्होंने देखा कि शिक्षा-विभाग में मुसलमानों का दल अधिक शक्तिशाली है। प्रतः उन्होंने किसी एक पक्ष का स्वतंत्र समर्थन न कर मध्यवर्ती मार्ग का प्रवलंबन किया । नीति भी उनके इस कार्य का अनुमोदन करती है। पढ़ने के लिये पुस्तकों का अभाव देखकर राजा साहब ने स्वयं तो लिखना प्रारंभ ही किया, साथ ही अपने मित्रों को भी प्रोत्साहन देकर इस कार्य में संयोजित किया। "राजा साहब जी जान से इस उद्योग में थे कि लिपि देवनागरी हो और भाषा ऐसी मिलीजुली रोजमर्रा की बोल चाल की हो कि किसी दलवाले को एतराज न हो।"
इसी विचार से प्रेरित हो उन्होंने अपनी पहले की लिखी पुस्तकों में भाषा का मिला जुला रूप रक्खा। लोगों का
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