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नागरीप्रचारिणी पत्रिका जितना पुष्ट और व्यवस्थित गद्य हमें इनकी रचना में मिलता है उतना इनके पूर्व के किसी भी लेखक की रचना में नहीं उपलब्ध हुआ था। गद्य के इतिहास में इतनी स्वाभाविक विशुद्धता का प्रयोग आगे किसी ने नहीं किया था। इस दृष्टि से राजा लक्ष्मणसिंह का स्थान तत्कालोन गद्य साहित्य में सर्वोच्च है। यदि राजा साहब विशुद्धता लाने के लिये बद्धपरिकर होने में कुछ भी पागा पीछा करते तो भाषा का प्राज कुछ और ही रूप रहता। जिस समय इन्होंने यह उत्तर. दायित्व अपने सिर पर लिया वह समय गद्य साहित्य के विकास के परिवर्तन का था। उस समय की रंच मात्र की असावधानी भी एक बड़ा अनर्थ कर सकती थी। इनकी रचना में हमें जो गद्य का निखरा रूप प्राप्त होता है वह एकांत उद्योग और कठिन तपस्या का प्रतिफल है। राजा साहब की भाषा का कुछ नमूना उद्धृत किया जाता है।
"याचक तो अपना अपना वांछित पाकर प्रसन्नता से चले जाते हैं परंतु जो राजा अपने अंतःकरण से प्रजा का निर्धार करता है नित्य वह चिंता ही में रहता है। पहले तो राज बढ़ाने की कामना चित्त को खेदित करती है फिर जो देश जीतकर वश किए उनकी प्रजा के प्रति. पालन का नियम दिन रात मन को विकल रखता है जैसे बड़ा छत्र यद्यपि घाम से रक्षा करता है परंतु बोझ भी देता है।" ।।
इस समय तक हम देख चुके हैं कि गद्य में दो प्रधान शैलियाँ उपस्थित थीं। एक तो अरबी फारसी के शब्दों से
भरी-पुरी खिचड़ी थी जिसके प्रवर्तक हरिश्चंद्र
राजा शिवप्रसादजी थे और दूसरी विशुद्ध हिंदी की शैली थी जिसके समर्थक और उन्नायक राजा लक्ष्मण
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