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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २०६ सिंह थे। अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका था कि किस
शैली का अनुकरण कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए। स्थिति विचारणीय थो। इस उलझन को सुलझाने का भार भारतेंदु हरिश्चंद्र पर पड़ा। बाबू साहब हिंदू मुसलमानों की एकता के इतने एकांत भक्त न थे। वे नहीं चाहते थे कि एकता की सीमा यहाँ तक बढ़ा दी जाय कि हम अपनी मातृभाषा का अस्तित्व ही मिटा दें। वे शिवप्रसादजी की उर्दूमय शैली को देखकर बड़े दुखित होते थे। उनका विचार था कि एक ऐसी परिमार्जित और व्यवस्थित भाषा का निर्माण हो जो पठित समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर श्रादर्श का स्थान ग्रहण कर सके। इस विचार से प्रेरित होकर बाबू साहब इस कार्य के संपादन में आगे बढ़े और घोर उद्योग के पश्चात् अंततो गत्वा उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित रूप दे ही डाला। भारतेंदु के इस अथक उद्योग के पुरस्कार स्वरूप यदि उन्हें 'गद्य का जन्मदाता कहें तो अनुचित न होगा।
उन्होंने समझ लिया कि एक ऐसे मार्ग का अवलंबन करना समीचीन होगा जिसमें सब प्रकार के लेखको को सुविधा हो। उन्हें दिखाई पड़ा कि न उर्दू के तत्सम शब्दों से भरी तथा उर्दू वाक्य-रचना-प्रणाली से पूर्ण हो शैली सर्वमान्य हो सकती है और न संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरीपुरी प्रथालो हो सर्वत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। प्रतः इन दोनों प्रणालियों की मध्यस्थ शैली ही इस कार्य के लिये सर्वथा उपयुक्त होगी। इसमें किसी को असंतोष का कारण न मिलेगा और इसलिये वह सर्वमान्य हो जायगी। अतः उन्होंने इन दोनों शैलियों का सम्यक संस्कार कर एक अभूत ___ २७
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