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नागरोप्रचारिणी पत्रिका जाता है वह उसमें अधिकांश रूप में मिलता है। स्थान स्थान पर एक ही बात को वे पुनः इस प्रकार और इस विचार से दोहरा देते थे कि उसमें कुछ विशेष शक्ति उत्पन्न हो जाती थी। यह सब होते हुए भी उनमें त्रुटियाँ अधिक थीं, जो वस्तुत: भाषा की उस उन्नत अवस्था के मेल में न थीं जो उनके समय तक उपस्थित हो चुकी थी। वे अभी तक 'इनने', 'उनने', 'के' (कर ), 'सो' (अत: अथवा वह ), 'रहैं', 'चाहैं', 'बेर' इत्यादि का ही प्रयोग करते थे। 'तो' और 'भारी' की ऐसी अव्यवस्थित भरमार इन्होने की है कि भाषा में गवारूपन और शिथिलता प्रा गई है। ‘विरामादिक चिह्नों का भी व्यवहार वे उचित स्थान पर नहीं करते थे। "भगवान के शरण," "सूचना करने (देने ) वाली", "दर्शन किए" भो लिखते थे। इसके अतिरिक्त स्थान स्थान पर विभक्तियों के भद्दे अथवा अव्यवहार्य प्रयोग प्रायः मिलते हैं। जैसे-'उसी को दिवाली अन्नकूट होता है' ( उसी के लिये दिवाली में अन्नकूट होता है)। इतना ही नहीं, कहीं कहीं विभक्तियों को छोड़ भी जाते थे; जैसे- 'उसी नाम ले' ( उसी का नाम लेकर ) इत्यादि । यह सब विचारकर यही कहा जा सकता है कि इनकी भाषा बड़ी भ्रामक हुई है। भ्रामक इस विचार से कि अपने समय का यह स्पष्ट बोध नहीं करा सकती । उसको पढ़कर यह कोई नहीं कह सकता कि यह उस समय की भाषा है जिस समय गद्य में प्रौढ़ता उत्पन्न हो चली थी। उनकी भाषा का छोटा सा अवतरण उपस्थित किया जाता है।
[ क्रमशः
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