Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશોવિજયજી Ibollebic 10% દાદાસાહેબ, ભાવનગર, ફોન : ૦૨૭૮-૨૪૨૫૩૨૨ ૩૦૦૪૮૪s. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat, www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीपचारिणी पत्रिका अर्थात् .. प्राचीन शेधसंबंधी त्रैमासिक पत्रिका [ नवीन संस्करण] भाग ११-अंक २ (काशी नागरी प्रचारिणीमभा).. संपादक महामहोपाध्याय रा०ब० गौरीशंकर हीराचंद ओझा · काशी-नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित . श्रावण संवत् १९८७ ] [ मूल्य प्रति संख्या २ रुपया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय-सूचीविषय .६-विशाल भारत के इतिहास पर एक स्थूल दृष्टि [ले० श्री परमात्माशरण एम० ए०, काशी ] ... ... १३७ ७-जयमल्ल और फत्ता (पत्ता) की प्रतिमाएँ [ले०-ठाकुर चतुरसिंह, मेवाड़ ]... ... ... ... १६१ ८-औरंगजेब का “हितोपदेश" [ले०-पंडित लजाराम मेहता, बूंदी] ... ... ... ... १६६ -हिंदी की गद्य-शैली का विकास [ ले०-श्री जगन्नाथ___ प्रसाद शर्मा एम० ए०, काशी] ... ... १७७ सूचना निम्नलिखित नई पुस्तकें छपकर प्रकाशित हो गई१-मैथिल कवि विद्यापति ठकर कृत कीर्तिलता [ संपादक बाबूराम सकसेना, एम० ए०] २-अकबरी दर्बार (दूसरा भाग) [ अनुवादक-रामचंद्र वर्मा ] ३-कर्मवाद और जन्मांतर [अनुवादक-लल्लीप्रसाद पांडेय ] ४-हिंदी-साहित्य का इतिहास [लेखक-रामचंद्र शुक्ल] -हिंदी-रसांगाधर [ लेखक-पुरुषोत्तम शर्मा चतुर्वेदी ] ६-रसखान और घनानंद [संपादक-अमीरसिंह ] .. : छप रही हैं . १-मुँहणोत नैणसी की ख्यात (दूसरा भाग)। ३.बाँकीदास ग्रंथावती (दूसरा भाग)। प्रकाशन-मंत्री नागरीमत्रारिणी सभा, काशी; Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) विशाल भारत के इतिहास पर एक स्थूल दृष्टि [ लेखक-श्री परमात्माशरण एम० ए०, काशी] - कुछ समय पहले तक पाश्चात्य विद्वानों का ऐसा विश्वास था कि प्राचीन काल में भारतवर्ष का किसी अन्य देश से संबंध नहीं था। उनका मत था कि "विशाल भारत" ' भारतीय संस्कृति और सभ्यता का उत्कर्ष ऐतिहासिक खोज का एक उसी भूमि के अंदर परिमित था और नया विषय भारतीय सभ्यता तथा साम्राज्य कभी अन्य देशों में नहीं फैले। इस विश्वास का एक कारण तो यह था कि हमारे इस युग के धर्माधिकारियों ने समुद्र . पार जाने को धर्म-विरुद्ध ठहरा दिया था। ऐसी अवस्था में जब पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे साहित्य का अध्ययन पहले पहल किया तब उन्होंने हिंदुओं के जात-पांत और खान-पान इत्यादि के झगड़ों को देखकर यह परिणाम निकाला कि यह देश सदैव से ऐसे ही पार्थक्य की नीति का पालन करता है, अतएव इसका किसी दूसरे देश से संबंध नहीं हो सकता था। इसी आधार पर, इन विद्वानों ने यह परिणाम भी निकाला कि भारतवर्ष में विज्ञान आदि पदार्थ विद्याओं की कोई उन्नति नहीं हुई। उनको यही जान पड़ा कि यहाँ के लोग सब से अलग कोने में बैठकर पारलौकिक विज्ञान और तत्त्वों की मानसिक इमारतें ही बनाते रहे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका परंतु बोसवीं शताब्दी के आरंभ में ही कुछ नई खोज हुई जिसके कारण उपर्युक्त सिद्धांत की जड़ें हिल गई । सन् १८०७ ई० में एक जरमन विद्वान् पुरातत्ववेत्ता ने सीरिया देश में बोगजकुई स्थान पर एक प्राचीन लेख खोज निकाला जिसके कारण "भारतवर्ष की अद्भुत विरक्तता" ( India's splendid isolation ) वाला सिद्धांत बिलकुल बेबुनियाद साबित हो गया । इस लेख से यह पता चला कि ई० पू० चौदहवीं शताब्दी में केपेडोशिया' में दो युयुत्सु जातियाँ अर्थात् हिट्टाइट और मितन्नो संधि करते समय इंद्र, वरुण एवं मरुत् इत्यादि वैदिक देवताओं से शुभाकांक्षा करती और उनकी साक्षी देती €1 इस संधि के फल स्वरूप उन दोनों जातियों के राजघरानों में एक विवाह होता है और इसमें वर वधू को आशीर्वाद देने की देवताओं से याचना की जाती है । इस प्रकार यह साबित हो गया कि भारतीय सभ्यता प्राचीन काल में केवल इसी देश के चारों कोनों में परिमित नहीं थी वरन् उसके बाहर भी दूर दूर के देशों में फैली हुई थी । गत बीस पचीस बरसे के अन्वेषण से यह सिद्ध हुआ है कि भारतीय संस्कृति समस्त पश्चिमी और मध्य एशिया के देशों में तथा पूर्व में जावा, सुमात्रा, श्याम, कंबोडिया, बाली, इत्यादि स्थानों में फैली हुई थी । हमारी यह संस्कृति कत्र कब और कहाँ कहाँ फैली और उसका क्या प्रभाव पड़ा इसका वर्णन करने से पहले भारत के प्राचीन जीवनोद्देश पर एक स्थूल दृष्टि डालना उचित प्रतीत होता है । (१) सीरिया देश के एक भाग का प्राचीन नाम । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १३६ जिस समय आर्य' लोग भारतवर्ष में आए, उन्हें द्रविड जाति का सामना करना पड़ा। आयों ने द्रविड़ों को नष्ट भारतीय साम्राज्य. करना अपना धर्म नहीं समझा। इसके आदर्श की अन्य सम- विपरीत उन्होंने द्रविड़ों को अपने कालीन जातियों के में मिला लिया और दोनों के मेल से अादर्श से तुलना एक शक्तिशाली भारतीय जाति उत्पन्न हुई जिसने एक महती सभ्यता को जन्म दिया। इस जाति ने बड़े बड़े कार्य सिद्ध किए और संसार के इतिहास में अपना नाम अमर कर दिखाया। इसी अवसर में यहाँ पर बड़े बड़े युद्ध भी हुए और इस जाति ने अपने इन अनुभवों से आदर्श शिक्षाएँ ग्रहण की। उसने अनुभव किया कि युद्ध में सच्ची जीत उसी की है जिसने धर्म को नहीं छोड़ा, और यह कि शांति की स्थापना ही युद्ध का सच्चा फल होना चाहिए। इसी आदर्श को लेकर महाराज अशोक ने अपने धर्म-साम्राज्य अथवा विशाल भारत की स्थापना की। परंतु अशोक के समकालीन अन्य देशों के राजाओं का आदर्श उपयुक्त आदर्श से भिन्न था । उदाहरणार्थ ई० पू० ५०० के लगभग ईरान के राजा डेरिस ने सार्वभौम राज्य स्थापित करने के अभिप्राय से मिस्र और मेसोपोटामिया के राज्यों को नष्ट किया। ईरान के इस साम्राज्यवाद की यूनान को भी चाट लगी और यूनान का प्रभाव रोम पर पड़ा। इधर (१) प्रायः पाश्चात्य विद्वानों का एवं उनके एतद्देशीय अनुयायियों का मत है कि "आर्य" जाति-विशेष का नाम है। परंतु ऐसा प्रतीत होता है कि यह मत निश्चय रूप से ठीक ही है, ऐसा कहना कठिन है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० नागरीप्रचारिणी पत्रिका एथेंस, स्पार्टा, इत्यादि, उधर रोम, सभी साम्राज्य स्थापना की दौड़ में बहने लगे। अंत में सिकंदरे प्राजम ने समस्त पश्चिमी एशिया को अपने वश में किया। यूनान में सिकंदर ने और रोम में कैसरों ने सार्वभौम साम्राज्य के आदर्श को अंधे होकर पकड़ा। उन्होंने अपने से पहले के साम्राज्यों के इतिहास से शिक्षा न ली। वे इस बात को भूल गए कि जो राज्य पाशविक शक्ति की रतीली बुनियाद पर खड़े होते हैं वे चिरस्थायी नहीं होते। सिकंदर के मरते ही उसका साम्राज्य छिन्न भिन्न हो गया। किंतु उसके उत्तराधिकारियों को भी वही नशा सवार था। उन्होंने गिरे हुए भवन को फिर से उठाने का यत्न किया। उन्होंने पड़ोसियों को नष्ट करके अपनी स्वार्थ-सिद्धि के हेतु अमानुषिक बल के आधार पर साम्राज्य खड़ा करने की फिर से चेष्टा की । इसके विपरीत भारतवर्ष के सम्राट अशोक ने इसी युग में एक दूसरे ही प्रकार के साम्राज्य की स्थापना की। उसने संसार के सामने शांति के राज्य का एवं अपने सामने मनुष्य मात्र (संभवतः जीव मात्र) की उन्नति का प्रादर्श रखा। इस महान् आदर्श को लेकर उसने अपने जीवन में दो बड़े कार्य संपादित किए। कलिंग युद्ध के बाद ही उसने स्वार्थी साम्राज्यवाद का एकदम बहिष्कार कर दिया। परंतु वह इतने से ही संतुष्ट न रहा । उसने पाशविक शक्ति के स्थान पर मानुषिक तथा आत्मिक शक्ति से प्राध्यात्मिक शक्ति का साम्राज्य स्थापन करने का संकल्प किया और इस संकल्प को अपने जीवन में पूरा करके दिखा दिया। इस प्रकार सम्राट् धर्माशोक का धार्मिक साम्राज्य समस्त एशिया पर स्थापित हुआ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १४१ यह राज्य तलवार के बल से नहीं किंतु विश्व-प्रेम, सेवाभाव, प्रात्म-समर्पण, तथा आध्यात्मिक बल के द्वारा स्थापित किया गया। इस प्रकार भारतवर्ष के सम्राट अपने अनोखे आदर्श को लेकर विश्व विजय करने निकले और यहीं से "विशाल भारत' की नींव पड़ो।' । पहले तो अशोक ने सारे देश में धर्म अर्थात् सत्य और सौजन्य का प्रचार किया। फिर अन्य देशों को भी धर्म _ ग्रंथि में प्रथित करने के लिये देश-देशांअशोक ने भारतीय 'तरों में प्रचारक भेजे, जैसे-(१) सभ्यता का कितना "सीरिया, जहाँ उस समय एंटियोकस विस्तार किया थियोस राज्य करता था; (२) मिस्र, जहाँ उस समय टोलेमी फिलाडेल्फस का राज्य था; (३) साइरीन, जहाँ मेगस नाम का राजा था; (४) मेसेडोनिया, जो एंटिगोनस गोनेटस के राज्य में था, इत्यादि। इसके अतिरिक्त उसने अपने पुत्र महेंद्र तथा पुत्री संघमित्रा को लंका भेजा और स्वर्णभूमि अर्थात् बर्मा में भी प्रचारक भेजे। अशोक के इस महान कार्य से संसार ने पहले पहल इस बात का अनुभव किया कि राजनीति और राज्यविस्तार केवल स्वार्थ के लिये ही नहीं वरन् आध्यात्मिक उद्देश से भी हो सकता है। इस प्रकार महाराज अशोक के द्वारा भारतवर्ष (१) महाभारत तथा अन्य प्राचीन ग्रंथों से मालूम होता है कि उस समय भी इस देश का साम्राज्य भारतवर्ष के बाहर दूर दूर देशों पर रहा होगा। किंतु उसका विस्तृत विवरण विदित नहीं है। (२) इन देशों के नाम २५७.६ पू. ई. के अशोक के शिलालेखों में दिए हुए हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ नागरीप्रचारियो पत्रिका . ने संसार की जातियों को शांति तथा सच्ची उन्नति का उपहार प्रदान किया। अशोक की इस महान विजय के सामने सिकंदर की सांसारिक लोलुपता से परिपूर्ण सफलता और विश्व-विजय - सब तुच्छ हैं। भारतवर्ष पर तो इस सिकंदर की दिग्वि विजय का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा। जय की अशोक की विजेता के लौटते ही यहाँ की जनता दिग्विजय से तुलना " उसके इस तुच्छ तथा घृणित काम को ऐसे भूल गई मानो वह एक स्वप्न था। इसके बाद चंद्रगुप्त ने सिकंदर के यूनानी उत्तराधिकारियों को भारत से मार भगाया। तब दोनों में सुलह हो गई और भारत का मान इतना बढ़ा कि मेगस्थिनीज, डाईमेकस, डायोनिसियस इत्यादि राजदूत यूनान तथा मित्र प्रादि देशों से मगध के दरबार में आते रहे। वे सब भारत से संबंध बराबर रखना चाहते थे। वे भारतवर्ष की सभ्यता से प्रभावित होने लग गए थे। ऐसे समय में अशोक ने भारतीय आदर्श एवं सभ्यता का इन देशों में प्रचार किया। ___ इसके कुछ काल पीछे ई० पू० दूसरी शताब्दी में फिर कतिपय यूनानी राजाओं ने भारत के कई भागों पर अधिकार जमा लिया। परंतु इस समय उनमें अशोक के प्रचार र से कई एक हिंदू धर्म के अनुयायी हो र चुके थे। सन् १५० (ई० पू०) के बेसनगर के स्तंभ-लेख से पता चलता है कि एक यूनानी राजा ने वैष्णव मत ग्रहण किया था। बौद्ध धर्म के ग्रंथ "मिलिन्द पन्हो" से स्पष्ट है कि बौद्ध दर्शन और धर्म का कितना का प्रभाव (१) अर्थात् "मिांडर राजा की प्रश्नावली"। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १४३ प्रभाव यूनानी विद्वानों पर पड़ा। कला पर भी भारत का गहरा प्रभाव पड़ा जिसके फल स्वरूप “यूनानी-बौद्ध-कला" (Greeco-Buddhist Art ) की उत्पत्ति हुई।। अपने इस आत्म-समर्पण तथा विश्वप्रेम के आदर्श को भारतवर्ष ने सदैव सामने रखा और. पूरी तरह निबाहा ।' _. यही प्रादर्श इस देश के साहित्य में हर भारतवर्ष का आदर्श और उसकी सफलता " जगह हमें मिलता है । पहली और दूसरी " शताब्दी ईसवी में जब मध्य एशिया की प्रार्य-बौद्ध जातियाँ इस देश में पाई तब उनको अपनाने में भारतीय जनता ने तनिक भी रोक टोक न की। इतना ही नहीं, किंतु उसने हीनयान, अर्थात् केवल व्यक्तिगत निर्वाण के मा के अतिरिक्त महायान अर्थात् समस्त मानव समाज की शांति एवं मोक्ष प्राप्ति के मार्ग की योजना की। उस समय के सर्वोच्च पंडित अश्वघोष ने उसी सामाजिक प्रादर्श को फैलाया जिसकी पूर्ति के लिये महाराज अशोक ने जीवन भर प्रयत्न किया था। अब उसको समस्त भारतीय जनता ने अपना लिया। ईसा की पहली शताब्दी से भारतवर्ष ने अपने विश्व-प्रेम का संदेसा फैलाना प्रारंभ कर दिया। अल्पात्मा को विश्वात्मा अथवा सूत्रात्मा के लिये समर्पण करने के इस महान् आदर्श को लेकर भारतवर्ष ने प्रात्मिक साम्राज्यनिर्माण के पथ का अनुसरण किया और थोड़े ही समय में मार्य संस्कृति तिब्बत, चीन, कोरिया, जापान, बर्मा, श्याम, इंडो-चायना, जावा इत्यादि इत्यादि स्थानों में फैल गई। इस प्रकार भारत की विश्व-विजय हुई और भारतीय संस्कृति का (१) मित्रस्य चक्षुषा समीक्षामहे वेद । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका साम्राज्य स्थापित हुमा। इसी प्रकार की विजय तथा आदर्श का कालिदास ने भी "रघुवंश" में उल्लेख किया है, यथा स विश्वजितमाजह यज्ञ सर्वस्वदक्षिणम् । आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव ।। (सर्ग ४, श्लोक ८६) हम अपने प्राचीन इतिहास के इस भाग को बिलकुल भूल गए थे। थोड़े ही दिनों से इस क्षेत्र की और विद्वानों का ध्यान गया है और अब इसकी खोज बड़े वेग से हो रही है। बड़े बड़े विद्वान इसी काम में अपना जीवन लगा रहे हैं जिससे आशा होती है कि इस विषय का पूरा हाल हमको शीघ्र ही मालूम हो जायगा। इस इतिहास से आधुनिक शासकों और राजनीतिज्ञों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की शिक्षा ग्रहण करने की बड़ी आवश्यकता है। मानव जाति के इतिहास में यह युग एक विशेष महत्त्व रखता है। इसमें भिन्न भिन्न देशों की संस्कृतियों का एकीकरण एवं परस्पर पुष्टि करण ऐसा हुआ जैसा आज तक कभी नहीं हुआ। बौद्ध, माजदा, टाओ, कन्फ्यूशियन, कृश्चियन, इत्यादि अनेक मत अपने अपने तर्क और प्राचार विचारों को लेकर आपस में मिल गए। वे आज की तरह लड़े नहीं। इसके विपरीत इस संबंध से प्रत्येक ने बड़ा भारी लाभ उठाया। उदाहरण के लिये हम बौद्धमत का ईसाई मत पर क्या और कितना प्रभाव पड़ा उसे नीचे देते हैं। विसेंट स्मिथ आदि इतिहासवेत्ता इस बात को मानते हैं कि ईसाई मत के प्रारंभिक निर्माण पर बौद्धमत का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। यह बात अब सिद्ध हो गई है कि महात्मा ईसाङ्के जन्म के पहले ही "साइरीन" (Cyrene) और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १४५ मिस्र में एसिनीज (Essenes) और थेराप्यूट (Therapeuts) लोग रहते थे। ये दोनों बौद्ध मतावलंबी थे। इन देशों में बौद्धों ने २०० वर्ष पूर्व से वही धर्म फैला रखा था जिसका प्रचार बाद में ईसा ने किया। ईसा के आगमन से पूर्व "जान बेप्टिस्ट' (John, the Baptist ) एसिनीज लोगों के मत से भली भांति परिचित था। कुछ लोगों का विश्वास है कि वह स्वयं बौद्ध था। कदाचित् ईसा ने बौद्धधर्म के सिद्धांत इसी से सीखे थे। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्रारंभ में ईसाई और बौद्ध धर्म में कितनी समानता थी। ____ भारतीय संस्कृति का विस्तार अशोक के काल से मुसलमानों के आक्रमण तक बराबर अन्य देशों और जातियों में होता रहा। इस विस्तार को हम दो भारतीय संस्कृति विभागों में बाँट सकते हैं जिसमें इसके का अन्य देशों में विस्तार अध्ययन में सुभीता हो। एक तो भारत के पश्चिमोत्तरी देशों और जातियों में, दूसरा पूर्वी देशों और जातियों में। इस विभाग में चीन, तिब्बत, नैपाल, जापान, मध्य एशिया ( जिसको Serindia भी कहते हैं ) अर्थात् खुतन, कूचा, है काशगर, आदि सब देशों को शामिल पश्चिमोत्तर देशों में जागर, आदि सब दशा का - कर सकते हैं। इस विभाग में कूचियन, सोगडियन, मंगोलियन इत्यादि जातियों पर भारतीय संस्कृति का बड़ा भारी प्रभाव पड़ा जिसके कारण उन्होंने इस संस्कृति को चीन इत्यादि देशों में फैलाने में बड़ा भारी काम किया। (१) देखो ' Fountain-head of Religion,' by Pt. Ganga Prasad, M.A., 4th Ed., pp. 17. 18. ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका इन जातियों के द्वारा चीन में बौद्ध धर्म का प्रचार ईसा की पहली शताब्दी में ही हो गया था, किंतु भारतवर्ष से चीन ___ का सीधा संबंध चौथी शताब्दी के अंत चीन से संबंध ' में फाहियान के बाद से प्रारंभ होता है। इस समय से बौद्ध धर्म के कई मुख्य मुख्य ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद हुआ, जैसे धर्मपद, मिलिंदपद इत्यादि । फा-हियान भारतवर्ष में कोई १५ वर्ष रहा और देश के एक सिरे से दूसरे सिरे तक घूमा। उसने पाटलिपुत्र में रेवती नामक बौद्ध विद्वान् से शिक्षा ग्रहण की और लंका में जाकर धर्म प्रचार किया। फा-हियान के अतिरिक्त इस समय अन्य बहुत से भक्त चीन से गोबी रेगिस्तान, खुतन और पामीर के भयानक पहाड़ी रास्तों से इस देश में आते रहे। फा-हियान भी इसी मार्ग से पाया था। वह तक्षशिला, पुरुषपुर (पेशावर) इत्यादि विद्यापीठों में घूमा, तीन वर्ष पाटलिपुत्र में ठहरकर बौद्ध धर्म का अध्ययन करता रहा और अंत में लंका, जावा इत्यादि होता हुआ चीन लौट गया। ___इसी समय एक विद्वान् कुमारजीव ने बौद्ध धर्म को चीन में फैलाने में बड़ा भारी काम किया। कुमारजीव का पिता एक भारतीय था। युवा अवस्था में वह काश्मीर में जा बसा। वहाँ उसने उस देश की राजपुत्री से विवाह किया। इनका पुत्र कुमारजीव हुआ। कुमारजीव की माता अपने पुत्र को शिक्षा दिलाने के लिये भारत में प्राई। युवक कुमारजीव बौद्ध हो गया और चीन में जाकर उसने बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद करने के लिये एक मठ स्थापित किया। यह बड़ा तीक्ष्णबुद्धि तथा प्रकांड पंडित था। इसके सफलीभूत कार्य ने चीन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १४७ में बौद्ध धर्म की बुनियाद को पाताल तक पहुँचा दिया। इसी समय में (ई० ४१६ में ) एक और विद्वान, बुद्धभद्र ने चीन में जाकर ध्यान संप्रदाय की स्थापना की। पाँचवीं शताब्दी में कई विद्वान् प्रचारक लंका और जावा से चीन में गए और उन्होंने वहाँ बौद्ध धर्म का प्रचार किया। इसके अतिरिक्त काश्मीर का राजकुमार, जो राज-पाट को लात मारकर बौद्ध भिक्षु हो गया था, अपने धर्म का प्रचार करने चोन गया। वहाँ पर उसने दो बौद्ध-विहारों की स्थापना की और भिक्षुणियों की भी एक संस्था चलाई। छठी शताब्दी में समुद्र मार्ग के द्वारा लंका और मलाया के टापुओं में से होते हुए चीन से भारतवर्ष का अधिक आना जाना शुरू हुआ। एक और बड़ा बौद्ध पंडित परमार्थ नामक (४२०५००) सन् ४४० ई० में चीन में पहुँचा। वहाँ पर उसने बसुबंधु तथा अन्य विद्वानों के ग्रंथों के अनुवाद किए और योगाचार्य संप्रदाय की स्थापना की। इस काल में चीन और भारत का विशेष संबंध हो गया। बहु से लोग दोनों देशों से आने जाने लगे। इत्सिंग तथा युवानच्वांग के लेखों से मालूम होता है ६ठी शताब्दी से ११ कि चीन इत्यादि देशों में भारतीय धर्म वीं त । चीन और भारत के प्रति बड़ी भारी श्रद्धा तथा प्रेम पत्पन्न का संध हो गया था। सब देश इसे अपना प्राध्यामिक गुरु मानने लगे थे। इस समय में जिन जिन भारतीय ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में हुआ वे सब चीन के साहित्य का एक मूल्यवान भाग बन गए हैं। भारत के प्रति इतनी भक्ति हुई कि यहाँ की कला, विज्ञान, दर्शन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका इत्यादि जो कुछ भी विद्याएँ उन देशों में जाती थीं उनको सर्वोच्च स्थान दिया जाता था। इस विषय पर पाल पेलियट, सर पारेल स्टाइन, तथा ग्रुन वेडेल इत्यादि विद्वानों की नई खोज ने यह सिद्ध कर दिया है कि यूनानी, ईरानी, ईसाई तथा मैनिकियन यह सब संस्कृतियाँ मध्य एशिया में प्राकर बौद्ध धर्म की प्रात्मा में सम्मिलित हो गई। इसी समय चीन में टाओ मत और कनफ्यूशियन मत भी ज़ोर पकड़ रहे थे और टाओ मतावलंबियों और बौद्धों में परस्पर बड़े झगड़े हुए। १३वीं शताब्दी में चंगेज खाँ के पुत्र कुबलई खाँ के राज्य में तो बौद्धों की विजय हुई, किंतु उसके बाद उनका पतन प्रारंभ हो गया। कोरिया में बौद्ध मत चीन से चौथी शताब्दी में ही पहुँच गया था। इसके बाद कुछ प्रचारक भारतवर्ष से भी वहाँ गए । छठी शताब्दी में कोरिया के राजा कोरिया और जापान " और रानी भी भिक्षु हो गए थे। सन् में भारतीय सभ्यता ५३६ ई० में जापान में यहीं से बौद्ध धर्म पहुँचा। वहाँ पर पहले तो कुछ विरोध हुआ। किंतु छठी शताब्दी के अंत तक समस्त विरोधी दल नष्ट हो गया । जापानी राजा उमायाडो ने बौद्ध धर्म को सन् ५८७ ई० में राजधर्म बना दिया। उसने कोरिया से बौद्ध पंडितों को ज्योतिष प्रादि विद्याओं की शिक्षा के लिये बुलाया और बौद्ध धर्म के अध्ययनार्थ चीन में विद्यार्थी भेजे। फिर तो जापान में अनेक प्रचारक तथा धर्म-शिक्षक पहुँच गए। फल यह हुआ कि शीघ्र ही जापान के सामाजिक और माध्यात्मिक जीवन पर बौद्ध धर्म के प्राचार विचार, दया, अहिंसा इत्यादि के भादों का बड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १४६ गहरा प्रभाव पड़ा। सन् ७३६ में भारत का बौद्ध पंडित बोधीसेन जापान में गया और वहाँ का महंत बना। इन प्रचारकों ने जापान में संगीत, शिल्प तथा अन्य कलाओं की भी बड़ो भारी उन्नति की जिनके नमूने जापान के विचित्रालय में अब तक विद्यमान हैं। इनके अतिरिक्त बौद्ध हकीमों ने अपनी सेवा तथा सौजन्य से ऐसा प्रभाव डाला कि बौद्ध धर्म की बड़ी जल्दी उन्नति हुई। तिब्बत देश की राजनीतिक महत्ता सातवीं शताब्दी में 'महाराजा साँग सान गेम्पो (६३०.६६८ ई०) के समय में __ बढ़ी। सान गेम्पो ने दो विवाह किए, तिब्धत में भारतीय एक नेपाली स्त्री से, दूसरा चीनी स्त्री से। सभ्यता उसकी नेपाली रानी ने तिब्बत में बौद्ध धर्म का प्रचार किया। गेम्पो ने अपने मंत्री कुंभी संपोटा को बौद्ध धर्म का अध्ययन करने के लिये भारतवर्ष भेजा। उसने देवनागरी प्रक्षरों के आधार पर तिब्बती लिपि बनाई। गेम्पो के बाद एक और राजा ने (७४०-७८६) भारतीय विद्वानों को अपने यहाँ बुलाया और बौद्ध ग्रंथों के अनुवाद कराए। इस प्रकार तिब्बत का अपना साहित्य तथा धर्म-पुस्तकें तैयार हो गई। तिब्बत में एक नवीन प्रकार का संप्रदाय पैदा हो गया । वहाँ पर उच्च दर्शनशास्त्र तथा वास्तविक बौद्ध धर्म के स्थान पर रहस्यवाद और छायावाद का अधिक प्रादर हुमा। इसी के फल खरूप वहाँ पर वज्रयान तथा कालचक्रयान की उत्पत्ति हुई और लामामत की स्थापना हुई। तेरहवीं शताब्दी में टाओ मतावलंबियों ने बौद्ध धर्म का बड़ा विरोध किया और बौद्ध धर्म माननेवालों पर बड़े प्रत्याचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका करने शुरू किए। उनके बहुत से मंदिर तथा मठ जला डाले और बहुत से छीन लिए। इसी समय में मंगोल विजेता चंगेज खाँ ने तुर्क और मंगोल चीन, तिब्बत और भारतवर्ष की पश्चिमी जातियों में भारतीय सीमा तक समस्त मध्य एशिया को जीत सभ्यता लिया। सन् १२२७ में उसकी मृत्यु के बाद उसका बेटा जगतई सिंहासनाधीश हुमा। जगतई सन् १२४१ में मर गया और उसके बाद मंगू को खान निर्वाचित किया गया। उसके छोटे भाई कुबलई ने दक्षिण चीन को भी अधिकृत कर लिया। सन् १२५६ में कुबलई स्वयं राजा हो गया। चंगेज खाँ तो अपनी लड़ाई और चढ़ाइयों के काम में इतना व्यस्त रहता था कि बौद्ध लोग उस तक अपनी फरियाद न पहुँचा सके। किंतु मंगृ खाँ और उसके भाई कुबलई खाँ के शासन में स्थिति बदल गई। बौद्धों ने मंगू खाँ से शिका यत की कि टाओ मतवाले हम पर बड़े अत्याचार करते हैं। मंग खाँ ने दोनों मतों के पंडितों के बीच में कई बड़े-बड़े शास्त्रार्थ कराए। अंत में फग्स पा१ नामी लामा ने टानी मतवालों को पूर्णतया पराजित कर दिया, और शर्त के अनुसार अठारह टाओ पंडितों को सर मुंडाकर बौद्ध धर्म ग्रहण करना पड़ा। फग्स पा का कुबलई खाँ पर इतना प्रभाव पड़ा कि उसने बौद्ध धर्म को राजधर्म बना लिया और फग्स पा को बुलाकर राजमहंत के पद पर नियुक्त किया। तिब्बत के द्वारा भारतवर्ष और नेपाल की भिन्न भिन्न विद्याएँ तथा कलाएँ मध्य एशिया में मंगोलों के राज्य में पहुँची। सन् (१) “फरस पा" आर्य शब्द का तिब्बती रूप है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५१ १२८० में फग्स पा का स्वर्गवास हुआ। उसके बाद धर्मपाल उसके स्थान पर लामा हुआ। उन लोगों के प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि मध्य एशिया और साइबेरिया के तुर्क, तिब्बती तथा अन्य निकटस्थ जातियाँ एक आध्यात्मिक एकता के सूत्र में बंध गई। इसी समय में भारत के लोग बर्मा, श्याम, कंबोडिया इत्यादि देशों में से होते हुए सुमात्रा, जावा, बोर्नियो और बाली 1. इत्यादि द्वीपों में पहुँचे और वहां उन्होंने पूर्वी देशों तथा द्वीपों " अपने उपनिवेश स्थापित किए। इन स्थानों में पुराने खंडहर तथा शिलालेख इत्यादि बहुत मिले हैं। इनके अतिरिक्त अन्य प्रकार के प्रमाण भी ऐसे मिल चुके हैं जिनके प्राधार पर यह सिद्ध हो गया है कि भारतवर्ष के व्यापारी तथा यात्री लोग इन देशों में भी पहले से ही पहुँच गए थे। चीनी साहित्य से पता चलता है कि फुनान अर्थात् कंबोडिया में तीसरी शताब्दी में भारतीय लोग मौजूद थे। अतएव यह कहना निराधार नहीं होगा कि ईसा की पहली शताब्दी से ही भारतीय संस्कृति का काफी प्रभाव पीगू, बर्मा, चंपा, कांबोज, सुमात्रा, जावा इत्यादि पर पड़ चुका था। फिर पाँचवीं शताब्दी में अन्य देशों में नए भारतीय उपनिवेश शुरू हुए और चंपा तथा कांबोज बिलकुन्त हिंदू बन गए । यह समय भारतवर्ष में बड़ी वैज्ञानिक तथा साहित्यिक उन्नति का था। इस ज्ञानोन्नति के कारण सब मतों में परस्पर सहिष्णुता तथा उदारता के भाव बढ़ रहे थे। यही समय था जिसमें बौद्धमत भी हिंदू धर्म का एक अंग बन गया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ नागरी प्रचारिणी पत्रिका इन पूर्वी देशों में भारतीय सभ्यता अब तक विद्यमान है । वहाँ के त्योहार इत्यादि भारतीय हैं। रामायण तथा बाहरी देशों में महाभारत का उतना ही मान वहाँ पर भारतीय सभ्यता श्राज है जितना यहाँ पर । उदाहरण के तक विद्यमान है । लिये श्याम के एक त्योहार का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया जाता है । श्याम में इस त्योहार को "लोह चिंगचा" बोलते हैं । इस शब्द का सीधा अर्थ है "झूला झूलना" । यह त्योहार पौष महीने में श्याम के बैंकाक नगर में मनाया जाता है । इसमें ब्राह्मणों का बड़ा काम पड़ता है । इसके मनाने के श्याम में झूले का त्योहार लिये एक विशेष तीर्थस्थान नियत है । प्रति वर्ष नियत दिन से कुछ समय पहले राजा अपने एक उच्च पदाधिकारी को उत्सव का प्रमुख बनने का काम सौंप देता है । इसको शिव का ( फ्राईवेन, अर्थात् ईश्वर ) पार्ट खेलना पड़ता है । झूले के लिये एक बाड़ा बाँधा जाता है । यह झूला छः मजबूत रस्सों का होता है । उसमें झूलने के लिये एक तखता कोई छ फुट लंबा लटका दिया जाता है । इस तखते में एक और रस्सो बँधी होती है जिसे पकड़कर कोटे देने में आसानी होती है । झूले के पश्चिम की ओर उससे थोड़ी दूर पर एक लंबा बाँस गाड़ दिया जाता है और उस में रुपयों की एक पोटली लटका दी जाती है । उत्सव के प्रारंभ होते समय चार हृष्ट पुष्ट युवक विशेष प्रकार के वस्त्र धारण करके झूले पर चढ़ जाते हैं। इनकी टोपियाँ बड़ी ऊँची होती हैं और देखने में नागमुखी सी लगती हैं। 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५३ इन टोपियों से ऐसा प्रतीत होता है कि ये लोग न तो देवता हैं न मनुष्य, बल्कि शेषनाग की प्रजा में से हैं और संसार को शिवजी की लीला दिखाने पाए हैं। । ब्राह्मण लोग अखाड़े में दाखिल होकर प्रार्थना करना प्रारंभ करते हैं और एक आदमी झूले को हिलाना शुरू कर देता है। जब झोटे बढ़ने लगते हैं तब वे चार मनुष्य, जो तखते पर चढ़े होते हैं, देवताओं को नमस्कार करने के लिये नव जाते हैं। फिर धीरे धीरे झोटे इतने बढ़ जाते हैं कि झूला उस बाँस तक पहुँचने लगता है। तब भूलनेवालों में से एक मागे को झुककर रुपयों की पोटली अपने दाँतों से पकड़ लेता है। इस प्रकार तीन बार नए चार भूलनेवाले, नया तखता, नई पोटली इत्यादि सब बदलकर वही लीला की जाती है। खेल समाप्त होने पर यह बारह झूलनेवाले नादियों के सोंग लेकर तीन तीन बार नाचते हैं और अपने सोंगों को पानी में डुबोकर सब पर छिड़कते हैं। मुख्य पात्र अर्थात् जो इस उत्सव का राजा बनता है वह सब लीला को एक निश्चित 'प्रासन पर बैठा हुआ देखता रहता है। उसका बायाँ पैर जमीन पर रखा रहता है और दहना बाएँ घुटने पर। उत्सव के अंत तक उसे इसी प्रकार बैठना पड़ता है। इसके बाद ब्राह्मण जन स्तुतिगान करते हैं जिसको सुनने के पश्चात् भगवान् "फ्राईस्वेन" अपने देवताओं के साथ बिदा हो जाते हैं। तीसरे दिन फिर यह सब लीला इसी प्रकार दोहराई जाती है और तब यह उत्सव समाप्त हो जाता है। __यह उत्सव प्राचीन समय में सारे श्याम देश में मनाया जाता था। किंतु प्रब केवल बैंकाक में ही वसंत की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका संक्रांति के दिन मनाया जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस त्योहार का अभिप्राय सूर्य के उत्तरी गोलार्ध में माने तथा उसके चक्रों को संकेत करना है। किंतु इसका संबंध कृषि से भी मालूम होता है। शिवजी श्रावण शु० सप्तमी को इस पृथ्वी पर पधारते हैं। इस कारण सप्तमी और नवमी को यह उत्सव किया जाता है। ____यह साफ मालूम होता है कि यह त्योहार भारतीय डोलयात्रा का रूपांतर ही है। हमारे देश में यह फाल्गुन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें जो कुछ फरक हो गया है वह समय और स्थान के कारण से है। . परंतु झूले के लट्ठों को मेरु पर्वत, रस्सों को शेष, तीन तखतों को तीन देवताओं, अर्थात् प्रादित्य, चन्द्र और धरणी, का चिह्न रूप माना जाता है। इससे यह भी संभव है कि, यह उत्सव देवताओं के समुद्र-मंथनवालो कथा के स्मृतिरूप हो। भूले के झोटे पूरब पश्चिम दिशा में दिए जाते हैं।. इससे भी इस विचार की पुष्टि होती है। जिस प्रकार भारतवर्ष में गुड़ियों और कठपुतलियों के खेल तमाशे होते हैं उसी प्रकार जावा में भी होते हैं। वहाँ पर इन तमाशों को वार्याग कहते हैं। जावा में महाभारत और वायांग यद्यपि जावा-निवासी ५०० वर्ष से मुसल मान धर्मानुयायी है तो भी उनके वायांगों में अब तक हिंदुओं की प्राचीन कथाएँ प्रचलित हैं। इन वायांगों का दिखलानेवाला, जिसे "दालंग" कहते हैं, कठपुत ( 9 ) “Encyclopædia of Religion and Ethics," (vol. V., p. 889.) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५५ लियों को एक डोरी के जरिए से नचाता है। इसी प्रकार हमारे देश में होता है। भेद इतना है कि यहाँ पर देखनेवाले कठपुतलियों को ही देखते हैं, किंतु जावा में इनकी परछाई एक चादर पर डाली जाती है और दर्शकगण इन परअाइयों को देखते हैं। भारतवर्ष में भी प्राचीन समय में इसी प्रकार कठपुतलियों के छायाचित्र दिखाए जाते थे। तमाशे के साथ जावा का संगीत भी होता रहता है जिसे गेभिलन कहते हैं। ये कठपुतलियाँ भारतीय महाकाव्यों के नायकों को ही सूचित करती हैं। बहुत काल के रिवाज से इन सब कठपुतलियों के प्राकार, सूरत शकल, रंग तथा जेवर मर्यादित हो गए हैं। कोई १००० वर्ष पहले वायांग के खेल जावा में इतने प्रचलित थे कि कविगण इन छायाचित्रों का अलंकारों में प्रयोग किया करते थे और दर्शक लोग इन अभिनयों को बड़ो रुचि के साथ देखते और समझते थे । १६वीं शताब्दी के प्रारंभ में Sir Stamfford Raffles ने "वायांग" के संबंध में इस प्रकार लिखा था-इस प्रकार के दृश्यों से, जिनका जातीय गाथाओं से संबंध हो, जो उत्सुकता तथा जोश लोगों में उत्पन्न होता था उसका अनुमान करना भी कठिन है। दर्शकगण रात भर बैठे बैठे बड़े हार्दिक हर्ष तथा एकाग्र चित्त से इन गाथाओं को सुना करते थे। प्राजकख भी विशेष मौकों पर गृहस्थो में वायांग का होना अत्यंत आवश्यक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि इस लीला का जावा में कितना मारी मान अब तक है। जिस समय हिंदू लोग जावा में आए, वे अपने धर्म-ग्रंथ अपने साथ लाए। इनमें से महाभारत सबसे शीघ्र अधिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका लोकप्रिय हुआ। उसके अठारह पर्वो के आधार पर शीघ्र ही नाटकों की रचना हो गई। इनमें से कतिपय ग्रंथ, जो गद्य में महाराजा अरलंगा ( Erlangga) के काल अर्थात् ११वीं शताब्दो में लिखे गए थे, हाल ही में मिले हैं और हालैंड के डच विद्वानों ने उनको प्रकाशित भी कर दिया है। मलाया साहित्य : में इन उद्धृत प्रसंगों को "हिकायात पांडवा लीमा" कहते हैं। केदिरी ( Kediri ) के राजा जयबाय के काल में उसके राजकवि पेनुलूह ( Penoolooh ) ने भी महाभारत के कतिपय अंशों का गद्यात्मक उल्था प्राचीन जावा की भाषा अर्थात् "कवी" ( Kavi poetry ) पद्य में किया था। यह ग्रंथ 'भारत युद्ध' माधुनिक जावी भाषा में ( Brata yuda) व्रतयुद कहाता है। महाभारत की कथाओं का इतना गहरा प्रभाव जावा-निवासियों पर पड़ा कि महाभारत के पात्रों तथा स्थानों को वे लोग अपने देश के ही मानने लगे और उनका यह विश्वास हो गया कि महाभारत का युद्ध जावा में ही हुआ था और जावा के राजा लोग प्राचीन पांडव तथा यादव वंशों से ही अपनो उत्पत्ति बतलाने लगे। किंतु इस घटना के साथ साथ प्रारंभ से ही पुराने जावा, मलाया और पोलिनीशिया की पौराणिक कथाएँ भारतीय कथाओं के साथ मिलने लगी। अतएव मुसलमानों के आक्रमण तथा शासन के पहले युग में अर्थात् सन् १५०० ई० १७५८ तक, बड़ी विध्वंसकारी खड़ाइयों के कारण प्राचीन हिंदू रीति तथा मर्यादा कुछ पीछे पड़ गई। सन् १७५० के बाद जावा का "पुनरुज्जीवन" हुआ और तब से वहाँ के प्राचीन हिंदू साहित्य का पुनरुत्थान करने के लिये बड़ा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५७ : प्रयत्न शरू हुमा। परंतु "कवी" अर्थात् जावा की पुरानी भाषा इस समय पूरी तरह नहीं पढ़ी जाती थी। इसका परिणाम यह हुआ कि इस समय जो ग्रंथ लिखे गए उनमें बड़ी विचित्र विचित्र अशुद्धियाँ घुस गई, यद्यपि ये सब पुस्तकें पुराने ग्रंथों के आधार पर ही लिखी गई थों जो १८वीं शताब्दी में जावा में मिलते थे। अंत में इन तमाशा करनेवालों ने (अर्थात् दालंगों ने ) स्वयं भी कुछ परिवर्तन कर दिए; क्योंकि वे अपने खेलों को अधिक रुचिकर तथा प्रिय बनाने के लिये पुरानी कथाओं की परिस्थिति को समयानुकूल बनाते जाते थे। ___ तमाशा करते समय "दालंग," "लाकोन" ( Lakons) में देखता जाता है जिससे भूल न जाय । ये लाकोन छोटे छोटे नाटक होते हैं। दालंग कुछ नई बातें तुरंत भी गढ़ देता है जिससे श्रोताओं की मनस्तुष्टि हो। इन संक्षिप्त नाटकों के अतिरिक्त बड़ी बड़ी पुस्तकें भी होती हैं। इन नाटकों को ४ वर्गों में रखा गया हैं। देवताओं, राक्षसों तथा वीरों की उत्पत्ति की कथाएँ, जो महाभारत के प्रादिपर्व से ली गई हैं, इन कथाओं में मालय-पोलिनेशी गाथाओं का काफी मिलाव है। अंतिम किंतु सबसे अधिक महत्त्व-पूर्ण कथासमह का विषय है पांडवों तथा कौरवों की कथाएँ। महाभारत के आधार पर रचित ऐसे लाकोन कोई १५० होंगे जिनमें से पाठ में पांडवों के पूर्वजो का वर्णन है। महाभारत में तो पांडवों का देश निकाला तथा पर्यटन "जतुगृह" घटना के बाद शुरू होता है । तब इंद्रप्रस्थ में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होता है। इसके पीछे चौपड़ खेलने की घटना होती है और पांडव फिर वनवास को जाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका हैं और 'विराट' राजा के यहाँ वेष बदलकर रहते हैं। पांडवों के फिर से प्रकट होने के बाद कुरुक्षेत्र में युद्ध प्रारंभ होता है। जावा की कथाएँ इससे कुछ भिन्न हैं। इनके अनुसार चौपड़ जतुगृह में ही खेली गई, और खेल के बीच में पांडवों को विषैला जल पीने को दिया जाता है जिससे भीम ( Braha Sen in Javanese ) के सिवा सब बेहोश हो जाते हैं और भीम उनको जलते हुए मकान से बाहर लाता है। तब दूर दूर घूमने के बाद पांडव लोग विराट नाम के देश में पहुँचते हैं। अंत में जब वे अपना सच्चा स्वरूप विराट के राजा मत्स्यपति को बतलाते हैं तब वह उन्हें इंद्रप्रस्थ (Ngamarta) का राज्य भेंट करता है। द्रौपदी का स्वयंवर इसी समय होता है। ___ इसी बीच में दुर्योधन ( Sujudana ) की शक्ति हस्तिनापुर (Nagastina) में बहुत बढ़ जाती है। वह पांडवों को उनकी राजधानी से निकाल देता है। वे फिर विराट देश के राजा मत्स्यपति की शरण लेते हैं। कृष्ण को भी अपनी राजधानी द्वारका ( Dvaravati ) छोड़नी पड़ती है। तदनंतर भारत युद्ध (Brata yuda) प्रारंभ होता है। जावा-निवासियों को अर्जुन सबसे अधिक प्रिय हैं। कम से कम ५० नाटकों में वह मुख्य पात्र का स्थान प्रहण करता है, किंतु अपने जीवन के शुरू में वह अपने प्रतिद्वंद्वी पाल्गू नादी ( Palga Nadi ) को एक घृणित षड्यंत्र द्वारा मरवा देता है। यह पाल्गू नादी भी द्रोणाचार्य का एक शिष्य था। अन्य लाकोनों में अर्जुन का सुभद्रा से प्रेम बढ़ाना और अन्य प्रतिद्वंद्वियों से लड़ना इत्यादि वर्णित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशाल भारत के इतिहास पर स्थूल दृष्टि १५६ हैं। उसकी अन्य जीवन-घटनाएँ तथा नाम भी अनेक हैं। किसी किसी नोटक (लाकोन) में सिकंडी को अर्जुन की एक स्त्रो दिखलाया गया है। उसके दो बेटों का विवाह कृष्ण की दो पुत्रियों के साथ हुआ है । और अर्जुन की पुत्रो सुगातवती का विवाह कृष्ण के पुत्र संबा के साथ हुआ है। अर्जुन और कृष्ण के ये तथा अन्य वंशज ही जावा के कतिपय राजवंशों के संस्थापक माने जाते हैं। युधिष्ठिर ( Punt-Deva ), वृकोदर (Werekodara), भीम ( Brat Sena ), देवी प्ररिंबी ( Dewi Arimbi ) और उसका बेटा घटोत्कच, दुर्योधन (जो दशमुखावतार है) (Sujudana) ये सब नाम जावा के मुसलमान लोगों में खूब प्रचलित हैं। ऐसे रिवाज भी पड़ गए हैं जिनके अनुसार गृहस्थों में विशेष विशेष अवसरों पर खेले जाने के लिये विशेष विशेष प्रकार के "लाकोन' अर्थात् नाटक निश्चित हैं।' (१) "माडर्न रिन्यू" के दिसंबर सन् २६ के अंक से डा० विजनराज चटर्जी के "The Mahabharata and the Wayang in Java" नामक लेख के माधार पर । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७) जयमल्ल और फत्ता (पत्ता) की प्रतिमाएं [लेखक-ठाकुर चतुरसिंह, मेवाड़ ] श्री सद्गुरुशरण अवस्थी बी० ए० नामक विद्वान् ने भारतवर्ष की सुप्रसिद्ध मासिक पत्रिका "प्रभा' (१ जुलाई सन् १६२४ के अंक ) में नेपाल राज्य की भौगोलिक स्थिति का संक्षिप्त परंतु बड़ा ही सुंदर वृत्तांत लिखा है, और प्रसिद्ध प्रसिद्ध स्थानों के अनेक फोटो देकर उस लेख की और भी मनोहरता बढ़ा दी है। उक्त लेख अपने भ्रमण में नेत्रों से देखका लेखा है, या किसी पुस्तक आदि से, इस बात का आपने उल्लेख कहीं नहीं किया, परंतु पूर्वापर विचार से यात्रा में सब दृश्य देखकर ही लिखा गया प्रतीत होता है। लेख सब प्रकार से हृदयग्राही होने पर भी इतिहास-विद्या से अनभिज्ञ साधारण मनुष्यों के कथन पर विश्वास कर लेने से कुछ भूलें भी हो गई हैं। जैसे पृष्ठ ३१ में ललितपट्टन नगर का बसानेवाला राजा बीरदेव लिखा गया है, परंतु इतिहास में इसका निर्माता प्रसिद्ध महाराज प्रशोक प्रियदर्शी ( ईस्वो स० से २७२ से २३२ वर्ष पूर्व) माना जाता है। इसी प्रकार पृष्ठ ३६ में माप लिखते हैं कि "नेपाल में मुख्य चार संवत् हैं ( १ विक्रम, २ शालिवाहन, ३ नैपाली और ४ कालीगाँव संवत् )। यह (कालीगाँव) संवत् सब से प्राचीन है, नैपाल के इतिहासों में इसका प्रयोग कहीं कहीं किया गया है। इसका प्रारंभ ईसा से ३१०१ वर्ष पहले से है।" कालीगाँव संवत् भी भ्रम से लिखा गया होगा, क्योंकि उक्त नाम का संवत् कहीं सुनने में नहीं आया। वास्तव में इसका २१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका नाम कालीगाँव नहीं किंतु कलियुग संवत् होना चाहिए । उसका प्रारंभ भी ईसा से ठीक उतने ही वर्ष (३१०१) पूर्व समस्त भारतवर्ष में माना जाता है। इसी प्रकार तीसरी भूल जयमल्ल फत्ता के संबंध में की गई है, और यही मेरे लेख का मुख्य अभिप्राय है। प्रभा के पृष्ठ ३१-३२ में अवस्थीजी लिखते हैं कि "तीसरा नगर भाटगाँव काठमांडू से ६ मील है, इस नगर की स्थिति राजा अनंगमल (ई० स० ८६५) के समय से है......यहाँ की जन-संख्या ३०००० है, इसके मध्य में जयमाल और फट्टा की दो छोटी छोटी प्रतिमाएँ हैं। ये दोनो नेपाली पुरुष बड़े वीर थे। यहाँ पर (भाटगांव में) और भी कई एक देवप्रतिमाएँ हैं"......क्त भूल का भी इतिहास से अपरिचित किसी मनुष्य के कथन से होना संभव है। उसने अज्ञान से दोनों को नैपाली वीर कह दिया होगा, और अवस्थी महाशय ने वैसा ही नाट कर लिया होगा, क्योंकि जयमाल फट्टा का नाम तक नैपाल के इतिहास में नहीं मिलता। उक्त दोनों मूर्तियाँ नेपाल के वीरों की नहीं, किंतु राजपूताना के इतिहासप्रसिद्ध जयमल और फत्ता ( पत्ता) की होनी चाहिएँ। अब रही नामों के उच्चारण की अशुद्धि, इसमें ऐसा अनुमान होता है कि उक्त अवस्थीजी ने सब दृश्यों के साथ मूर्तियों के नोट भी अँगरेजी अक्षरों में लिखे होंगे, परंतु अँगरेजी लिपि की अपूर्णता से जयमल और जयमाल दोनों शब्द एक ही प्रकार के अक्षरों में लिखे तथा पढ़े जाते हैं, जिससे जयमल का जयमाल पढ़ा गया हो। इसी प्रकार अँगरेजी अक्षरों में 'त' का अभाव होने से उसके स्थान में 'ट' अक्षर सदा लिखा और बोला जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयम और फत्ता की प्रतिमाएँ १६३ इसी कारण नोट-बुक में फत्ता का फट्टा लिखा होगा। फिर स्मरण न रहने से वही अशुद्ध नाम लेख में लिखना पड़ा हो। परंतु वास्तव में दोनों प्रतिमाएँ चित्तौड़ के रक्षार्थ सम्राट अकबर से घोर युद्ध करके वीर गति पानेवाले इतिहास-प्रसिद्ध योद्धा राव जयमल्ल राठौड़ और रावत फत्ता ( पत्ता ) सीसो. दिया की ही होनी चाहिएँ। अवस्थीजी ने उस लेख में राजामल्ल आदि की कुछ प्राचीन प्रतिमाओं के फोटो भी दिए हैं। परंतु जयमल्ल फत्ता की मूर्तियों के चित्र नहीं दिए। यदि उनका भी चित्र देते तो मेरे कथन की पुष्टि हो जातो, क्योंकि वे मूर्तियाँ किसी अनुभवी मूर्तिकार की बनाई हुई होंगी तो नेपाल के विरुद्ध उक्त मूर्तियों के वस्त्र, शस्त्र, वेशभूषा, भावभंगी आदि सब राजपूताना के होने संभव हैं। विज्ञ पाठकों को एक बड़ी शंका और हो सकती है कि चित्तौड़ के वीरों की मर्तियाँ नेपाल जैसे दूर देश में क्यों बनाई गई। इसका भी कुछ विस्तृत समाधान मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार किया जाता है। सम्राट अकबर बड़ा ही गुणग्राही, नीति-कुशल, वीर, बुद्धिमान् तथा वीरों का प्रादर करनेवाला था। यद्यपि जयमल और फत्ता उसके विपक्षी थे और युद्ध में अपार जन तथा धन का विनाश कर चुके थे, तो भी बादशाह उक्त दोनों वीरों की स्वामिभक्ति और वीरता पर ऐसा मुग्ध हो गया कि अपनी राजधानी आगरा में पहुँचते ही उसने बड़े विशाल श्वेत पाषाण ( संगमरमर ) के दो हाथी बनवाए और उनके ऊपर जयमल तथा फत्ता की पूर्णाकार प्रतिमाएँ बैठाकर राजधानी (आगरा) के किले के द्वार पर स्थापित की गई, और उनकी प्रशंसा के लिये इसी भाव का राजस्थानी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाषा का एक दोहा पाषाण पर खुदवाकर दोनों गजारूढ़ प्रतिमाओं के मध्य में द्वार के ऊपर लगवाया गया । वह दोहा इस प्रकार है-- दोहा जयमल बड़ताँ जीमणे फत्तो बावें पाश । हिंदू चढ़िया हाथियाँ अडियो जश प्राकाश ।। इस दोहे का भावार्थ इस प्रकार है कि "बाहर से द्वार में प्रवेश करते समय दाहिनी ओर जयमल्ल की प्रतिमा और वाम पार्श्व में फत्ता की मूर्ति है; ये दोनों हिंदू वीर हाथियों पर चढ़े हुए हैं और इन वीरों का सुयश (पृथ्वी से भी आगे) आकाश को स्पर्श कर चुका है।" राजा बीरबल आदि विद्वानों की सत्संगति से बादशाह भी हिंदी कविता करता था, जिसको कई पुरातत्त्ववेत्ता स्वीकार करते हैं, फिर दोहे में हिंदू शब्द रखने से यह किसी मुसलमान की रचना पाई जाती है। इसलिये कई विद्वान उपर्युक्त दोहे को स्वयं बादशाह की रचना मानते हैं। जो कुछ हो, परंतु बादशाह ने अपने प्रतिपक्षी वीरों की प्रतिमाएँ बनवाकर अनुकरणीय गुणग्राहकता का परिचय दिया था। अकबर बड़ा दूरदर्शी और राजनीतिविशारद था, इसलिये उक्त कार्य में राजनैतिक युक्ति भी थी जिससे राजभक्त वीरों का उत्साह बढ़े क्योंकि मेवाड़ के अतिरिक्त आर्यावर्त के समस्त नरेशों का पावागमन सदा राजधानी मागरे में होता रहता था, उनके चित्त पर अपनी उदार गुणग्राहकता का प्रभाव अंकित करने के निमित्त भी उक्त वीरोतेजक कार्य किया गया होगा, क्योंकि वे लोग प्रतिदिन उन वीर-प्रतिमाओं को देखकर विचारते होंगे कि जिन पुरुषों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमल्ल और फत्ता की प्रतिमाएँ १६५ ने बादशाही अनंत द्रव्य और सेना का संहार किया है, उन विपक्षियों की केवल वीरता तथा देशभक्ति पर प्रसन्न होकर इतना बड़ा सम्मान किया गया है,तो हम लोग जब साम्राज्य की निष्कपट सेवा करेंगे, तथा उसके निमित्त प्राण देंगे तब हमारा और हमारी संतान का अत्यंत प्रादर होगा। क्षत्रिय नरेशों का उक्त प्रतिमाओं के प्रभाव से प्रभावित होने का एक ऐतिहासिक प्रमाण भी मिलता है। वह इस प्रकार है कि-चित्तौड़ के दुर्ग-रक्षक जिस प्रकार जयमल्ल और फत्ता थे उसी प्रकार प्रसिद्ध रणथंभोर दुर्ग का नायक श्रीमान् महाराणा उदयसिंहजी की ओर से बूंदी का महा सामंत राव सुर्जन हाड़ा था। चित्तौड़-विजय के उपरांत ही अकबर ने रणथंभौर पर आक्रमण किया, तब उक्त हाड़ा राव ने बादशाह के प्रलोभन देने से महाराणा से विश्वासघात करके दुर्ग सम्राट् के अर्पण कर दिया और स्वयं भी महाराणा को त्यागकर बादशाही सेवक हो गया। इस बात पर जोधपुर के महाराजा यशवंतसिंह (प्रथम) का प्रधान मंत्री सुप्रसिद्ध इतिहासवेत्ता मूणोत नैणसी महता. अपनी ख्यात ( रचनाकाल वि० सं० १७०५ से १७२५ तक ) में अकबर की वीरोचित गुणग्राहकता तथा जयमल्ल फत्ता की दृढ़ राजभक्ति और स्वामी-द्रोही बूंदी के राव सुर्जन का विश्वासघात दिखाने के उद्देश से लिखता है कि "चित्तौड़ के रक्षार्थ अपने प्रिय प्राण देनेवाले राव जयमल्ल राठौड़ और रावत फत्ता सीसोदिया की तो बादशाह ने हाथियों पर चढ़ी मूर्तियाँ बनवाकर राजद्वार पर खड़ी कराई. परंतु स्वामी-द्रोही राव सुर्जन की एक कुत्ते की मूर्ति बनवाकर उसी स्थान पर रखवा दी, जिससे वह बड़ा लज्जित तथा मर्माहत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका हुआ और पुत्र को अपना राजपाट देकर काशीवास को चला गया और आमरण लौटा नहीं।" (नैणसी की ख्यात अप्रकाशित पत्रा २७ पृष्ठ २) उपर्युक्त इसी एक उदाहरण से पाठकों को विदित हो सकता है कि जयमल्ल और फत्ता की मूर्तियों का भारत की जनता पर कैसा भिन्न भिन्न प्रकार का प्रभाव पड़ता रहा होगा। सारांश ऐसी ही विलक्षण राजनीतिक युक्तियों से क्षत्रिय नरेशों को स्ववश में करके अकबर भारत सम्राट तथा जगद्गुरु के पद को पहुंचा था। सम्राट अकबर द्वारा स्थापित वीरवर जयमल्ल और फत्ता की दोनों गजारूढ़ प्रतिमाएँ १०२ वर्ष पर्यंत राजधानी प्रागरं के राजद्वार की शोभा बढ़ाती रही, जिसका वृत्तांत कई फारसी इतिहासों में लिखा मिलता है। बादशाह शाहजहाँ के शासनकाल में इंग्लैंड से पानेवाले प्रसिद्ध यात्री 'बर्नियर' ने अपनी यात्रापुस्तक में उक्त प्रतिमाओं का वर्णन किया है। इसी प्रकार शाहजहाँ और आलमगीर का समकालीन जोधपुर का मुख्य मंत्रो मूणोत नैणसी महता भी अपनी ख्यात में उपर्युक्त मूर्तियों का उल्लेख करता है। आलमगीर के इतिहास से विदित होता है कि अंत में जयमल्ल और फत्ता के वीर स्मारकों ( मूर्तियों ) को वि० सं० १७२६ में धर्मद्वेषो बादशाह आलमगीर ने विनष्ट करवाकर अपनी दुष्ट प्रकृति का परिचय दिया और साथ ही अकबर की सुनीति को ध्वंस करके अपने साम्राज्य के विनाश का बीज बो दिया। नैपाल जैसे दूर देश में जयमच और फत्ता की मूर्तियाँ मिलने का मुख्य कारण अब पाठको की समझ में आ सकता है कि जब गोरखा क्षत्रियों का राज्य नेपाल पर हुमा और उन्होंने बादशाह अकबर द्वारा उक्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयमल और फत्ता की प्रतिमाएँ १६७ प्रतिमाओं के आगरे में स्थापित होने का वृत्तांत सुना होगा, तब नेपाल-नरेश ने उसका अनुकरण किया होगा, क्योंकि गोरखा लोगों की उत्पत्ति चित्तौड़ नगर, और सीसोदिया राजपूतों से हुई है। जब कि बादशाह अकबर ने शत्रु होकर भी उक्त वीरों का इतना बड़ा सम्मान किया था, तब नैपाल के महाराज अपने पूर्वजों की राजधानी चित्तौड़ के रक्षार्थ प्राण देनेवाले पुरुषों की मूर्तियाँ बनावें, इसमें कौन सी आश्चर्य की बात है ? इन प्रतिमानों के अस्तित्व से भारतीय इतिहासवेत्ता अपरिचित थे। परंतु अब श्री सद्गुरुशरण अवस्थी बी० ए० की शोष का अस्पष्ट संकेत मिलने से वे प्रसिद्धि में आई हैं। नवीन शोध द्वारा दूर देश नेपाल में जयमल और फत्ता की मूर्तियाँ प्रसिद्धि में प्राई, इसलिये उक्त वीरों का प्रसंगवश प्रति संक्षिप्त परिचय मात्र देना भी ठोक होगा। मंडोवर के स्थान में राजधानी जोधपुर ( वि० सं० १५१५ में ) नियत करनेवाले राव जोधा राठौड़ के चतुर्थ राजकुमार राव दूदा ने वि० सं० १५१८ में मेडता नगर में और पंचम कुमार राव बीका ने वि० सं० १५२२ में बीकानेर में स्वतंत्र राज्य स्थापन किए थे। राव दूदा के पात्र और राव बीरमदेव के पुत्र राव जयमल्ल मेड़ता राज्य के स्वाधीन अधिपति थे। जोधपुर के प्रसिद्ध राव मालदेव से अनेक घोर संग्रामों के उपरांत जब राजधानी मेड़ता पर बादशाह अकबर का अधिकार हो गया, तब राव जयमल्ल वैवाहिक संबंध के कारण चित्तौड़ चले आए, क्योंकि इनके चचा रत्नसिंह की पुत्री भारत-विख्यात मीराबाई का विवाह श्रामन्महाराण्या साँगा (संग्रामसिंह) के ज्येष्ठ युवराज भोजराज से हुआ था। तत्कालीन मेदपाटेश्वर महाराणा उदय. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका सिंह ने चित्तौड़ के स्थान में राजधानी उदयपुर (वि० सं० १६१६ में ) बसाना प्रारंभ किया था। इसलिये उक्त श्रीमानों का अधिकतर निवास उदयपुर में ही होता था। अतः राव जयमल्ल को ३०० ग्रामों सहित बदनौर का परगना प्रदान करके चित्तौड़ का दुर्गाधीश बनाया गया जहाँ पर वे चार वर्ष पर्यत अपना कर्तव्य पालन करते रहे। राव जयमल्ल के वंशज प्राज भी सहस्रों की संख्या में मारवाड़ तथा मेवाड़ में लाखों मुद्रा वार्षिक आय की भूमि पर अधिकार रखते हैं। इस लेख के लेखक को भी राव जयमल्ल का एक तुद्र वंशज होने का अभिमान प्राप्त है। द्वितीय योद्धा रावत फत्ता, मेवाड़ के महाराणा लाखा के ज्येष्ठ राजकुमार सुप्रसिद्ध रावत चूंडा ( इन्होंने पितृभक्ति से राजर्षि भीष्म का अनुकरण करके चित्तौड़ का राजसिंहासन अपने वैमातृज कनिष्ठ भाई को दे दिया था।) के वंशज रावत जग्गा के पुत्र थे। उनकी संतान भी प्रामेट आदि कई प्रतिष्ठित ठिकानों पर अधिकार रखती है। जब सम्राट अकबर ने विशाल वाहिनी सहित चित्तौड़ पर आक्रमण किया तब राव जयमल्ल फत्ता प्रादि वीर छः मास से अधिक काल तक घोर संग्राम करते रहे और अनेक प्रलोभन देने पर भी स्वधर्म तथा राजभक्ति पर अचल रहे। इस जगत्प्रसिद्ध समर का वर्णन अनेक इतिहासों में सविस्तर लिखा होने से यहीं पर लेखनी को विश्राम देता हूँ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८) औरंगजेब का “हितोपदेश' [ लेखक-पंडित लजाराम मेहता, बंदी ] मेरे भानजे पंडित रामजीवन जी नागर हिंदी के उन सुलेखकों में से हैं जो काम करके अपना नाम प्रकाशित करने का ढोल नहीं पीटना चाहते। उनके यहाँ उनके पूर्वजों की संगृहीत अनेक पुस्तकों में से एक बढ़िया पुस्तक, जिसे पुस्तक-रत्न कहा जा सकता है, प्राप्त हुई है। राजपूताना और मध्य भारत के रजवाड़ों में यदि पुस्तके खोजने का कार्य नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा किया जाता तो अब तक न मालूम ऐसे ऐसे कितने ग्रंथ-रत्न प्राप्त हो सकते थे। इस पोथी का नाम “हित-उपदेश" है । पुस्तक का प्रारंभ करने से पूर्व एक पृष्ठ पर ब्रह्माजी का और दूसरे पर विष्णु, लक्ष्मी अथवा कृष्णराधिका का चित्र है। चित्रों में अनेक रंग हैं और वे बढ़िया हैं। कलम भी बहुत बारीक है किंतु पुरानी चित्रकारी में भावों का प्रायः प्रभाव होता था उसी तरह इनमें भी पता नहीं है। इस "हित-उपदेश" की पृष्ठ-संख्या २६ है और प्रत्येक पृष्ठ में गिनी हुई सात सात पंक्तियाँ हैं, न न्यून और न अधिक। लिपि इतनी बारीक है कि जिसे पढ़ने में शायद ऐनक न लगानेवाले व्यक्ति को भी चश्मे की शरण लेनी पड़े। इतनी बारीक भी नहीं है कि जिसके लिये "आई ग्लास" की सहायता अपेक्षित हो । लिपि बहुत बढ़िया और किसी ऐसे व्यक्ति की लिखी हुई है जिसके लिये कहा जा सकता है कि अक्षर २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० नागरीप्रचारिणी पत्रिका बहुत जमे हुए थे। प्रत्येक पत्र की लंबाई ३ इंच और चौड़ाई २। होने पर भी हाशिया अधिक छोड़कर जितने भाग में दोहे लिखे गए हैं उसका नाप लंबा २॥ इंच और चौड़ो १ इंच रक्खी गई है। लिपि की बारीकी का इसी से अनुमान किया जा सकता है कि इतने से क्षेत्रफल में ३॥ दोहों का समावेश किया गया है। अक्षरों की मोड़ से अनुमान होता है कि लेखक कोई रामस्नेही साधु था। जिल्द इस पोथी की, • जिसे साइज के लिहाज से गुटका कहा जाता है, पुराने ढंग की बहुत बढ़िया किंतु टूटी हुई है। पुट्ठा साफ, कड़ा और समान है। इतनी सफाई है जितनी आजकल कल के बने हुए विलायती पुट्ठों में नहीं पा सकती। इस पुस्तक के दो पत्र खो गए हैं। एक २१ का और दूसरा "इतिओ' के बाद का। इक्कीसवाँ पत्र खो जाने से दोहे ११४ से १२० तक का अभाव है और अंतिम पत्र नष्ट हो जाने का फल यह हुआ है कि "इतिश्री" के बादवाले दूसरे दोहे के अंतिम भाग में "और संत के रीति को पावै सहज समा..."के बाद "ज" का अभाव है। कौन कह सकता है कि इसके बाद कितने दोहे थे। संभव है कि उस जगह लेखक का नाम और पुस्तक लिखने की तिथि तथा संवत् लिखा हो। पुस्तक कहीं कहीं अशुद्ध अवश्य है किंतु ऐसी प्रशुद्ध नहीं जो थोड़ा विचार करने से शुद्ध न हो सके। पुस्तक के अंत में १५५ से १६३ तक के १३ दोहों में पुस्तक-रचना का कुछ इतिहास भी दिया गया है "बादशाह जो हिंद को प्रालिम आलमगीर । बुद्धिवंत सर्वज्ञ जो दयावान मतिधीर ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरंगजेब का "हितोपदेश” तिन ये बातें समुझि के निज विचार में ल्याय । हित उपदेशहि जानि के सबको दई लिखाय ॥ २ ॥ सो ये बातें श्रवन कै श्रीमत् शंकर पंत । सेवक से आज्ञा दई याहि प्रकासे अंत ॥ ३ ॥ नरपति भाखा यामिनी माँझ कही ये बात ! ताकी ब्रजभाषा करी जामें अर्थ लखात ॥ ४ ॥ अल्पबुद्धि तें ग्रंथ को दोहा-बद्ध बनाय । ताके भाव पदार्थ को दीन्हों प्रकट दिखाय ॥ ५ ॥ जो कोड ज्ञानी संत जन याकों पढ़ें विचार | चलें महाजन पंथ कों जई होय संसार || ६ || ताकी कीरति जगत में गावें सबही वाक (?) । देहपात के होत हो पावैं सुभ परलोक ॥ ७ ॥ स्यामदास या रीति ते, समुझि चलें जो संत । पावै निज पुरुषार्थ ते रामचरन एक आठ औ चार के आगे सो संवत् यह जानिए गनिकै कर माघ मास और सिसिर ऋतु, मकर रास भे भान । तिथि वसंत की पंचमी वासर खाम (१) प्रमान ॥ १०॥ वन चरित्र जहँ राम ने वधी तारिका नार । कीन्ही जाकी पूर्नता विस्वामित्र सँवार ॥ ११ ॥ सो गंगा के तट विसे बकसर गाँव सुहाय । रामरेख तीरथ जहाँ प्रति पुनीत दरसाय ॥ १२ ॥ तहाँ ग्रंथ की पूर्तता सहज भई निरधार | गुरु हरि सेवक संत जे अंत करें विचार ॥ १३ ॥ ૧ C ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat को अंत ॥ ८ ॥ वेदहि जान । ४ परमान ॥ ६ ॥ १७१ www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका दोहों की अशुद्धि ज्यों की त्यों रखने से ही दसवें दोहे में "सोम" का "साम" लिखना पड़ा है। सातवें दोहे के अंत का "वोक" विचारणीय है। संभव है कि यहाँ "लोक, पाठ शुद्ध हो। अर्थ स्पष्ट है। पुस्तक पढ़ने से यह नहीं जाना जाता कि यह शंकर पंत कौन महाशय थे। पंत शब्द का मराठी भाषा में अर्थ गुरु है। संभव है कि यह दाक्षिणात्य ब्राह्मण हों अथवा हिमालय प्रांत में भी ब्राह्मण वर्ण में कितने ही नामों के साथ इस शब्द का प्रयोग होते देखा गया है। कुछ भी हो, अधिक संभावना इस बात की है कि शंकर पंत महाशय बादशाह औरंगजेब के दरबारियों में थे। बादशाह के मुख से ये उपदेश उन्होंने सुने और उन्होंने लेखक कोग्रंथकर्ता को-प्राज्ञा दी। बादशाह की यामिनी भाषा से अवश्य ही मतलब फारसी से होना चाहिए। शाहजहाँ के लशकर से जन्म ग्रहण कर उर्दू उस समय तक इस दर्जे तक नहीं पहुंची थी जो, औरंगजेब जैसे कट्टर बादशाह के बोलचाल की भाषा होने का गौरव प्राप्त कर सके । पुराने कागजात में बादशाह के फर्मान और स्वरीते की भाषा फारसी देखी जाती है इसलिये मान लेना चाहिए कि वह फारसी में ही बातचीत करते कराते थे। शंकर पंत भी फारसी का और इन प्रांतों की उस समय की भाषा का अच्छा विद्वान होना चाहिए, तभी वह बादशाह के उपदेशों को समझकर ग्रंथकर्ता को सुना सका और उसी के आधार पर इस पोथी की रचना हुई। इस पुस्तक के रचयिता श्यामदासजी, जिन्होंने बकसर में बैठकर ग्रंथ निर्माण किया, कौन थे ? यह एक प्रश्न है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरंगजेब का "हितोपदेश" १७३ ग्रंथकर्ता ने पुस्तक की इतिश्री के आगे एक दोहा और दिया है जिसमें लिखा है कि-"स्यामदास नित नेम ते हित उपदेशहि जोय"-इससे अनुमान होता है कि इसके रचयिता श्यामदास थे। शायद लेखक और रचयिता एक ही हो । अंत का पत्र जब अप्राप्य है तब नहीं कहा जा सकता कि उसमें श्यामदास अथवाशंकर पंत संबंधी कितना इतिहास लिखा था। इन बातों का पता लगाना इतिहास के खोजियों का काम है। संवत् १८४४ स्पष्ट है। "अंकानां वामतो गति:" के नियम का यहाँ पालन नहीं हो सकता। "रामरेख" तीर्थ भी तलाशकर प्रकाश डालने योग्य है। किसी बिहारी सज्जन के ध्यान देने से शायद "रामरेख" के संबंध से श्यामदास का भी पता लग जाय क्योंकि घटना अधिक पुरानी नहीं है। बादशाह औरंगजेब हिंदू संस्कृति का कट्टर शत्रु था। यदि उसकी चलती तो सारे हिंदुस्तान को मुसलमानिस्तान बना डालता। उसके काले कारनामे भारतवर्ष के इतिहास को सदियों तक कलंकित करते रहेंगे। परंतु जिसमें उत्कृष्ट दोष होते हैं उसमें कभी कभी गुण भी उत्कृष्ट हुआ करते हैं। "शत्रोरपि गुणा वाच्या, दोषा वाच्या गुरोरपि"-इस लोकोक्ति के अनुसार हमें उसके गुणों को अवश्य ग्रहण करना चाहिए । यदि इस पोथी की रचना के अनुसार ये दोहे उसी के उपदेशों के आधार पर रचे गए हो तो वह वास्तव में बहुत ही गुणवान् था। इसके एक एक दोहे के परिणाम पर दृष्टिपात करने से वह लाख लाख रुपए में भी सस्ता है। इसमें धर्म है, राजनीति है और लोकाचार है। और जो कुछ है वह यावनी कट्टरपन को छोड़कर सांप्रदायिक बातों से बिलकुल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका अलग है। संभव है कि रचयिता ने शाही उपदेशों का प्राश्रय लेकर इसे हिंदूपन के ढाँचे में ढाल दिया हो। कुछ भी हो, पुस्तक बढ़िया है। ____ इसमें दो बातें, तीन बातें,-इस तरह चार, पाँच, छः, सात, पाठ, नौ और दस बातें-ऐसे शीर्षक से दिखलाया है कि कौन बातें ग्राह्य और कौन कौन त्याज्य हैं। नमूने के लिये "दो बात" शीर्षक के चार दोहे यहाँ दे देना काफी होगा "दोय वस्तु तें जगत में अति उत्तम कछु नाहिं । निश्चय ईश्वर भाव पै (में) दया जीव के ठाहिं (माहिं)॥१॥ द्वै बातन तें. अधम नर नाहीं जगत् प्रसिद्धि । अहंकार भगवान ते जन अपकारी बुद्धि ॥२॥ दोय वस्तु ये जानिए बहुत बुरी जग बीच । कृत निंदकता येक (एक) और दूजे संगति नीच ॥३॥ दोय वस्तु ये मूढ़ता जानौ निश्चै चित्त । सेवा दुष्टन की करै और स्तुति अपनी (स्तुती प्रापनी) नित्त।।४।। इन दोहों में ब्रेकेट के भीतर जो शब्द हैं वे मेरे हैं। मूल पाठ ज्यों का त्यों रखकर शुद्ध करने के लिये अपने शब्द कोष्ठक में दिए गए हैं। कविता तुकबंदी है। हंडे में से एक चावल निकालकर नमूना देख लिया जाता है। इस तरह इसकी कविता चाहे साधारण ही क्यों न हो किंतु इसमें किंचित् भी संदेह नहीं कि इसका एक एक उपदेश लाभ उठानेवाले के लिये लाखो रुपए की लागत का हो सकता है। "पत्रिका' के इतिहास-प्रेमी साहित्य-रसिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ औरंगजेब का “हितोपदेश' १७५ विद्वानों की कृपा से यदि इसका घटता पाठ पूर्ण होकर पुस्तक शुद्ध हो सके तो मेरी आयु के अंतिम वर्षों में इसका संपादन कर लेखनी की सार्थकता हो। कृतकार्य होने पर मैं अपने आपको धन्य समदूंगा और जो महाशय मुझ अकिंचन को इस कार्य में सहायता प्रदान करेंगे उनके नामी नाम पुस्तक के साथ प्रादरपूर्वक प्रकाशित किए जायँगे। मुझे अपने नाम से भी मतलब नहीं, यदि किसी विद्वान के पास यह पोथी हो तो मैं इसकी प्रति उतरवाकर भेज सकता हूँ। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से कुछ (६ ) हिंदी की गद्य-शैली का विकास [ लेखक-श्री जगन्नाथप्रसाद शर्मा एम० ए०, काशी] साहित्य की भाषा का निर्माण सदैव बोलचाल की सामान्य भाषा से होता है। ब्रज की भाषा का जो रूप साहित्य की भाषा में व्यवहृत हुआ वह बोलचाल इतिवृत्त से कुछ भिन्न था। यों तो प्रांत प्रांत की बोलियाँ विशेष थों; परंतु वह बोली जिसने आज हमारी साहित्यिक भाषा का रूप धारण कर लिया है, दिल्ली के आसपास बोली जाती थी। उस स्थान से क्रमशः मुसलमानों के विस्तार के साथ वह बोली भी इधर उधर फैलने लगी! कई शताब्दियों के उपरांत यही समस्त उत्तर भारत की शिष्ट भाषा बन बैठी; और यही भाषा सुदृढ़ और विकसित होकर आज खड़ी बोली कहलाती है। ____ इस खड़ी बोली का पता कितने प्राचीन काल तक लगता है यह प्रश्न बड़ी उलझन का है। प्रारंभ से ही चारण कवियों का झुकाव शौरसेनी अथवा ब्रजभाषा की ओर था; अतः वीरगाथा काल के समाप्त होते होते इसने अपनी व्यापकता और अपने साम्राज्य का पूर्ण विस्तार किया। कुछ अधिक समय व्यतीत न हो पाया था कि इस भाषा में ग्रंथ प्रादि लिखे जाने लगे। पर इन ग्रंथों की भाषा विशुद्ध अथवा परिमार्जित नहीं हो सकी थी। अभी साहित्य की भाषा का स्वरूप अनियंत्रित एवं अव्यवस्थित था। परंतु यह तो २३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका निर्विवाद ही है कि चारण कवियों की अपेक्षा इस समय की भाषा बोलचाल के रूप को अधिक ग्रहण कर रही थी। कबीर की रचनाओं में भाषा की एकाधिक प्रकार की खिचड़ी दृष्टिगोचर होती है। इस 'खिचड़ी' में एक भाग खड़ो बोली का भी है। धीरे धीरे यह बोली केवल बोलचाल तक ही परिमित रह गई, और व्यापक रूप में साहित्य की भाषा अवधी तथा व्रजभाषा निर्धारित हुई। इधर साहित्य में इस प्रकार ब्रजभाषा का आधिपत्य दृढ़ हुआ; और उधर दिल्ली तथा उसके समीपवर्ती स्थानों में खड़ी बोली केवल बोलचाल ही के काम की बनकर रही। परंतु संयोग पाकर बोलचाल की कोई भाषा साहित्य की भाषा बन सकती है-पहले उसी में ग्राम्य गीतों की सामान्य रचना होती है। तत्पश्चात् वही विकसित होते होते व्यापक रूप धारण कर सर्वप्रिय हो जाती है। यही अवस्था इस खड़ी बोली की हुई। जब तक यह परिमित परिधि में पड़ी रही तब तक इसमें ग्राम्य गीतों और अन्य प्रकार की साधारण रचनाओं का ही प्रचलन रहा; पुस्तक आदि लिखने में उसका आदर उस समय न हुआ। सारांश यह कि एक ओर तो परिमार्जित होकर ब्रजभाषा साहित्य की भाषा बनी और दूसरी और यह खड़ी बोली अपने जन्मस्थान के आसपास न फेवल बोलचाल की साधारण भाषा के रूप में प्रयुक्त होती रही, वरन् इसमें पढ़े-लिखे मुसलमानों द्वारा कुछ पद्य-रचनाएँ भी होने लगी। खड़ी बोली का प्राचीनतम प्रामाणिक रूप हमको खुसरो ' की कविता में मिलता है। इनकी रचना से जो बात स्पष्ट प्रकट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास १७-८ होती है वही इसको प्रमाणित करने के लिये यथेष्ट है कि उनके पूर्व भी कुछ इस प्रकार की रचनाएँ थीं, जो साधारण जनता के मनोविनोद के लिये लिखी गई होंगी । अस्तु; खुसरो की कविता में खड़ी बोली का रूप बड़ा ही सुंदर दिखाई पड़ता है ।— एक कहानी मैं कहूँ, तू सुन ले मेरे पूत । बिन परों वह उड़ गया, बांध गले में सूत ॥ ( गुड्डी ) श्याम बरन और दाँत अनेक, लचकत जैसी नारी । दोनों हाथ से खुसरो खींचे, और कहे तू श्रारी ॥ ( श्रारी ) खुसरो की ये ऊपर उद्धृत दोनों पहेलियाँ आजकल की खड़ी बोली के स्पष्ट अनुरूप हैं । वस्तुतः ये जितनी प्राचीन हैं उतनी कदापि नहीं दिखाई पड़तीं । 'कहूँ', 'उड़ गया', 'बाँध', 'और', 'जैसी', 'कहे', इत्यादि रूप इसकी आधुनिकता का द्योतन करने के प्रत्यक्ष साक्षो हैं । ऐसी अवस्था में यह कहना अनुचित न होगा कि खुसरो ने खड़ी बोली की कविता का आदि रूप सामने उपस्थित किया है । इतना ही नहीं, उन्होंने याधुनिक खड़ी बोली की जड़ जमाई है । मुसलमानों के इधर उधर फैलने पर खड़ी बोली अपने जन्म-स्थान के बाहर भी शिष्टों की भाषा हो चली । खुसरो के बाद कबीर ने भी इस भाषा को अपनाया । उनका ध्येय जनसाधारण में तखापदेश करना था; अत: उस समय की सामान्य भाषा का ही ग्रहण समीचीन था । कबीर ने यही किया भी । यों तो उनकी भाषा खड़ी बोली, अवधी, पूरबी ( बिहारी ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० नागरीप्रचारिणी पत्रिका आदि कई बोलियों का मिश्रण है; परंतु खड़ी बोली का पुट उसमें साफ और अधिक झलकता है। इनकी भाषा में पूरबी - पन का पाया जाना स्वाभाविक है । इनके पूर्व कोई साहित्यिक भाषा संयत रूप में व्यवस्थित नहीं हुई थी। अभी तक भाषा का संस्कार नहीं हो पाया था । जिस मिश्रित भाषा का आश्रय कबीर ने लिया वही उस काल की प्रामाणिक भाषा थी । उसमें, प्राय: कई प्रांतीय बोलियों की छाप रहने पर भी, हमारी खड़ी बोला की आरंभिक अवस्था का रूप पाया जाता है । उठा बगूला प्रेम का, तिनका उड़ा प्रकास । तिनका तिनका से मिला, तिनका तिनके पास ॥ 9 घरबारी तो घर में राजी, फक्कड़ राजी बन में । ऐंठी ती पाग लपेटी, तेल चुना जुलफन में ॥ इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि 'उठा', 'उड़ा, 'से', 'मिला', इत्यादि का प्राजकल की भाषा से कितना अधिक संबंध है । यह सब कहने का अभिप्राय यह कदापि नहीं है कि उस समय केवल खड़ी बोलो का ही प्राधान्य था । इन अवतरणों से यही निर्विवाद प्रमाणित होता है कि साहित्य की भाषा से परे बोलचाल की एक साधारण भाषा भी बन गई थी । समय समय पर इस भाषा में लोग रचनाएँ करते रहे । इस प्रकार की रचनाओं का निर्माण केवल मनोविनोद की दृष्टि से ही होता था । यह तारतम्य कभी टूटा नहीं । ब्रजभाषा की धारावाहिक प्रगति में स्थान स्थान पर रहीम, सीतल, भूषण, सूदन यादि कवियों की रची हुई खड़ी बोली की फुटकर रचनाएँ भी मिलती हैं; परंतु ब्रज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास १८१ भाषा के बाहुल्य में इनका पता नहीं लगता । प्राज बीसवीं शताब्दी की खड़ी बोलो की रचनाओं का इतिहास इस विचार में बहुत प्राचीन है । काव्य का प्रेम सभी में होता है, चाहे अँगरेज हो, चाहे मुसलमान हो । है, सभी में सरसता होती है और सभी कल्पना के वैभव का अनुभव करते हैं। जिस समय मुसलमान भारतवर्ष में आए उस समय, यह तो स्पष्ट ही है कि, उस भाषा का व्यवहार वे नहीं कर सकते थे, जिसका इतने दिनों से वे अपने आदिम स्थानी में करते आए थे । यहाँ आने पर स्वभावतः उन्हें अपनी भाषा का स्थान हिंदी को देना पड़ा । अतः जिन्हें साहित्य का निर्माण करना अभीष्ट था उन्होंने ब्रजभाषा और अवधी की शरण ली । इसी प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ है कि सूफी कवियों के समुदाय ने हिंदी में रचना की है। इन कवियों ने अपनी रचनाओं में बड़ी सुंदर और मार्मिक अनुभूति की व्यंजना की है। इनके श्रमस्वरूप कई ग्रंथ तैयार हुए । इनमें अधिकांश उत्तम और उपादेय हैं। कुतुबन, मलिक मुहम्मद जायसी, उसमान, शेख नबी, कासिम शाह, नूर मुहम्मद, फाजिल शाह प्रभृति ने एक से एक उत्तम रचनाएँ तैयार कीं । इन सरसहृदयों से हिंदी में एक प्रकार का विशेष काव्य तैयार हुआ । इनके अतिरिक्त कितनी ही अन्य रचनाएँ की गई हैं, जो एक से एक उत्तम हैं और जिनमें एक से मनोरंजक चित्र उपस्थित हुए हैं । मलूकदास, रहीम, रसखान, नेवाज इत्यादि ने स्थान स्थान पर कितने हिंदू कवियों से कहीं अधिक मधुर और प्रोजस्विनी कविताएँ लिखी हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com चाहे वह हिंदू हो, सभी को हृदय होता Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका जायसी और रसखान प्रभृति कवियों का भाषा पर भी अद्भुत अधिकार था। इन लोगों की रचनाएँ पढ़ने पर शीघ्रता से यह निश्चय नहीं किया जा सकता कि ये मुसलमान की लेखनी से उत्पन्न हुई हैं। __ ऊपर यह कहा जा चुका है कि समस्त उत्तर-भारत की साहित्यिक भाषा ब्रजभाषा चलो भाती थी। मुसलमानों के प्रभाव से शिष्ट वर्ग के बोलचाल की भाषा खड़ो बोलो होती जाती थी। इनको, दिल्ली की प्रधानता के कारण, इसी भाषा का आश्रय लेना पड़ा। वे बोलचाल में, साधारण व्यवहार में, इसी भाषा का उपयोग करते थे। उनका एक प्रधान दल तो ब्रजभाषा में साहित्य निर्माण करता था और साधारण लोग, जो मनोविनोद के लिये कुछ तुकबंदियां करते थे, बोलचाल की खड़ी बोलो का उपयोग करते थे। इन तुकबंदियों के ढाँचे, भाषा और भाव आदि सब में भारतीयता की झलक स्पष्ट देख पड़ती थो। खड़ो बोली का प्रचार केवल उत्तर भारत तक ही परिमित न रहा; वरन् दक्षिण प्रदेशों में भी इसका सम्यक् प्रसार हुआ। उर्दू के प्रारंभिक काव्यकार अधिकतर दक्षिण के ही थे। सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में दक्षिण में कई सुंदर कवि हुए। उनकी कविता देखने से यह भी सिद्ध होता है कि खड़ी बोली का प्रचार दक्षिण में भी अच्छा हुआ था। उस समय तक उनमें यह धारणा न थी कि उनकी रचनाओं में केवल एक विशेष भाषा की प्रधानता हो। वे प्रचलित बोलचाल की खड़ी बोली को ही अपनी भाषा मानते थे। 'पिया', 'वैराग', 'भभूत', 'जोगी', 'अंग', 'जगत', 'रीति', 'सू', 'प्रखंडियाँ', इत्यादि हिंदी के शब्दों का प्रयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदो की गद्य-शैली का विकास १८३ वे अधिक करते थे। यदि उनकी रचनाओं में स्थान स्थान पर उर्दू-फारसी और अरबी के शब्द प्रा जाया करते थे तो यह बिलकुल स्वाभाविक ही था। यदि वे उसे बचाने का प्रयत्न करते तो उनकी रचनाओं में कृत्रिमता आने तथा उनके अस्वाभाविक लगने का भय था। उन कवियों की भाषा का रूप देखिए पिया बिन मेरे तई वैराग भाया है जो होनी हो सो हो जावे । भभूत अब जोगियों का अंग लाया है जो होनी हो सो हो जावे ॥ -अशरफ़ हम ना तुमको दिल दिया तुम दिल लिया और दुख दिया । तुम यह किया हम वह किया यह भी जगत की रीत है। -सादी दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन । जा कहो कोई मुहम्मद शाह सू॥ टुक वली को सनम गले से लगा। खुदनुमाई न कर खुदा से डर ॥ तुम अँखडियां के देखे आलम खराब होगा। -शाह वली-अल्लाह वली साहब दक्षिण से उत्तर भारत में चले आए। उस समय यहाँ मुहम्मदशाह शासन कर रहा था। वलो के दिल्ली में आते ही लोगों में काव्य-प्रेम की धुन प्रारंभ हुई। इसी कारण प्रायः लोग उर्दू कविता का प्रारंभ वली से मानते हैं। कुछ दिनों तक तो खड़ी बोली का विशुद्ध रूप में प्रयोग होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका रहा; परंतु जैसे जैसे इन मुसलमान कवियों की वृद्धि होती गई, उनमें अपनापन आता गया और उत्तरोत्तर उनकी कविताओं में अरबी और फारसी के शब्दों का प्रयोग बढ़ने लगा। संवत् १७६८ से १८३७ के पास तक आते आते हम देखते हैं कि अरबी और फ़ारसी का मेल अधिक हो जाता है। यो तो मिर्ज़ा मुहम्मद रफी ( सौदा) की रचनाओं में से कोई कोई तो वस्तुत: उसी प्रकार की हैं जैसे कि खुसरो की ।अजब तरह की है एक नार । उसका मैं क्या करूँ विचार । वह दिन डूबे पी के संग। लागी रहे निसी के अंग ॥ मारे से वह जी उठे बिन मारे मर जाय । बिन भावों जग जग फिरे हाथों हाथ बिकाय ॥ नार, विचार, पी, संग, निसि, अंग, बिन, जग, हाथ, बिकाय इत्यादि शब्दों का कितना विशुद्ध प्रयोग है। इसी प्रकार के शब्द, हम देख चुके हैं कि, अशरफ, सादी और बली की कविता में भी मिलते थे। साधारणतः सौदा के समय में भाषा का यह रूप न था। उस समय तक अरबी और फ़ारसी के शब्दों ने अपना आधिपत्य जमा लिया था, परंतु सौदा की इन पंक्तियों में हमने स्पष्ट देख लिया कि जो धारा खुसरो और कबीर के समय से निःसृत हुई थी वही इस समय तक बह रही थी। साहित्य के इतिहास में प्रायः देखा जाता है कि ६० प्रतिशत भाषाओं में प्रारंभ कविता की रचनाओं से होता है। . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकाम्र १८५ साहित्य का प्राथमिक रूप केवल मधुर व्यंजना पर निर्भर रहता है । उस अवस्था में साहित्य केवल मनो-विनोद की सामग्री समझा जाता है । उस समय यह आवश्यक नहीं समझा जाता कि काव्य में मानव-जीवन का विश्लेषण अथवा आलोचन हो, और उस समय उसमें जीवन की अनुभूतियों की व्यंजना भी नहीं होती । लोगों के विचारों का भी प्रस्फुटन उस समय इतना नहीं हुआ रहता कि इतने गूढ़ मनन की ओर ध्यान दिया जाय । इतना ही अलम् समझा जाता है कि भाव प्रकाशन की विधि कुछ मधुर हो और उसमें कुछ 'लय' हो जिससे साधारणतः गाने का रूप मिल सके । इसी लिये हम देखते हैं कि काव्य में सर्व प्रथम गीत-काव्यों का ही विकास होता है । यही नियम हम खड़ी बोली के विकास में भी पाते हैं । पहले पहेलिका और कहावतों के रूप में काव्य का आरंभ खुसरो से होता है i तदुपरांत क्रमश: ध्याते प्राते अकबर के समय तक हमें गद्य का रूप किसी न किसी रूप में व्यवहृत होते दिखाई पड़ता है । गंग की लेखनी से यह रूप निकलता है " इतना सुन के पातसाहि जी श्री प्रकार साहजी माध सेर सोना नरहरदास चारन को दिया ! इनके डेढ़ सेर सोना हो गया । रास बाँचना पूरन भया । ग्राम खास बरखास हुआ ।" इसी प्रकार गद्य चलता रहा और जहाँगीर के शासन काल में जो हमें जटमल की लिखी 'गोरा बादल की कथा' मिलती है उसमें 'चारन' 'भया' और 'पूरन' ऐसे बिगड़े हुए रूप न मिलकर शुद्ध नमस्कार, सुखी, प्रानंद श्रादि तत्सम २४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका शब्द मिलते हैं। - "गुरु व सरस्वती को नमस्कार करता हूँ।" "उस गांव के लोग भी होत सुखी हैं। घर घर में आनंद होता है।" यदि इसी प्रकार खड़ी बोली का विकास होता रहता तो माज हमारा हिंदी साहित्य भी संसार के अन्य साहित्यों की भांति समृद्ध और भरा-पूरा दिखाई पड़ता। परंतु ऐसा हुआ नहीं। इसके कई कारण हैं। पहली बात तो यह है कि उस काल में ब्रजभाषा की प्रधानता थी और विशेष रुचि कल्पना तथा काव्य की ओर थी। लोगों की प्रवृत्ति तथ्यातथ्य के निरूपण की ओर न थी, जिसके लिये गद्य अत्यंत अपेक्षित है। अतः विशेष आवश्यक न था कि गद्य लिखा जाय। दूसरे वह काल विज्ञान के विकास का न था। उस समय लोगों को इस बात की प्रावश्यकता न थी कि प्रत्येक विषय पर आलोचनात्मक दृष्टि रखें। वैज्ञानिक विषयों का विवेचन साधारणतः पद्य में नहीं हो सकता; उसके लिये गद्य का सहारा चाहिए। तीसरा कारण गद्य के प्रस्फुटित न होने का यह था कि उस समय कोई ऐसा धार्मिक आंदोलन उपस्थित न हुआ जिसमें वाद-विवाद की आवश्यकता पड़ती और जिसके लिये प्रौढ़ गद्य का होना आवश्यक समझा जाता। उस समय न तो महर्षि दयानंद सरीखे धर्मप्रचारक हुए और न ईसाइयों को ही अपने धर्म के प्रचार की भावना हुई। अन्यथा गद्य का विकास ठीक उसी प्रकार होता जैसा कि मागे चलकर हुआ। किसी भी कारण से हो, गद्य का प्रसार उस समय स्थगित रह गया। काव्य की ही धारा प्रवाहित होती रही और उसके लिये ब्रजभाषा का समतल घरातल अत्यंत अनुकूल था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १८७ ब्रजभाषा में केवल काव्य-रचना होती आई हो, यह बात नहीं है । गद्य भी उसमें लिखा गया था, किंतु नाम मात्र के लिये । संवत् १४०० के आसपास के लिखे बाबा गोरखनाथ के कुछ ग्रंथों की भाषा सर्व प्राचीन ब्रजभाषा के गद्य का प्रमाण है । उसमें प्राचीनता के परिचायक लक्षणों की भरमार है । जैसे "स्वामी तुम्ह तो सतगुरु, अम्हे तो सिषा सबद तो एक पूद्धिवा, दया करि कहिबा, मनि न करिवा रेस" । इसमें हम अम्दे, तुम्छ, पूछिवा और करिब आदि में भाषा का प्रारंभिक रूप देखते हैं । यह भाषा कुछ अधिक अस्पष्ट भी नहीं । इसके उपरांत हम श्रीविट्ठलनाथ की वार्ताओं के पास आते हैं । उसमें ब्रजभाषा के गद्य का हमें वह रूप दीख पड़ता है जो सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में प्रचलित था । अतः इन वार्ताओं में भी, जो उसी बोलचाल की भाषा में लिखी गई है, स्थान स्थान पर अरबी और फ़ारसी शब्द आ गए हैं । यह बिलकुल स्वाभाविक था । यह सब होते हुए भी हमें इन वार्ताओं की भाषा में स्थिरता और भाव-व्यंजना की अच्छी शक्ति दोख पड़ती है । जैसे— “स्रो श्री नंदगाम में रहते इतेो । सो खंडन ब्राह्मण शास्त्र पढ़ो हतो । सो जितने पृथ्वी पर मत हैं सबको खंडन करता; ऐसा वाको नेम हतेा । याही तें सब लोगन ने वाको नाम खंडन पासो हता ।" यदि ब्रजभाषा के ही गद्य का यह रूप स्थिर रखा जाता और इसके भाव प्रकाशन की शैली तथा व्यंजना-शक्ति का क्रमशः विकास होता रहता तो संभव है कि एक अच्छी शैली का अभ्युदय हो जाता । परंतु ऐसा नहीं हुआ । इसकी दशा सुधरने के बदले बिगड़ती गई । शक्तिहीन हाथों में पड़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कर इसकी बड़ी दुर्गति हुई। पहली बात तो यह है कि इस गद्य का भी विकसित रूप पीछे कोई नहीं मिलता, और जो मिलता भी है वह इससे अधिक लचर और तथ्यहीन मिलता है। इन वार्ताओं के अतिरिक्त और कोई स्वतंत्र ग्रंथ नहीं मिलता। कुछ टीकाकारों की भ्रष्ट और अनियंत्रित टीकाएँ अवश्य मिलती हैं। ये टीकाएँ इस बात को प्रमाणित करती हैं कि क्रमशः इस गद्य का हास ही होता गया, इसकी अवस्था बिगड़ती गई और इसकी व्यंजनात्मक शक्ति दिन पर दिन नष्ट होती गई। टीकाकार मूल पाठ का स्पष्टीकरण करते ही नहीं थे वरन् उसे और अबोध तथा दुर्गम्य कर देते। भाषा ऐसी अनगढ़ और लद्धड़ होती थी कि मूल में चाहे बुद्धि काम कर जाय पर टीका के चक्रव्यूह में से निकलना दुर्घट ही समझिए। ऊपर कह चुके हैं कि सुब्रतानों के शासनकाल में ही खड़ी बोली का प्रचार दक्षिण प्रदेशों में और समस्त उत्तर भारत के शिष्ट समाज में था, परंतु यह प्रचार सम्यक् रूप से नहीं था। अभी तक उत्तर के प्रदेशों में प्रधानता युक्त प्रांत की थी; परंतु जिस समय शाही शासन की अवस्था विच्छिन्न हुई और इन शासकों की दुर्बलता के कारण चारों ओर से उन पर आक्रमण होने लगे उस समय राजनीतिक संगठन भी छिन्न-भिन्न होने लगा। एक ओर से अहमद शाह दुर्रानी की चढ़ाई ने और दूसरी ओर से मराठों ने दिल्ली के शासन को हिलाना प्रारंभ कर दिया। अभी तक जो सभ्यता और भाषा दिल्ली-प्रागरा और उनके पासवाले प्रदेशों के व्यवहार में थी वह इधर उधर फैलने लगी। क्रमशः इसका प्रसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १८६ समस्त उत्तरी प्रांतों में बढ़ चला। इसी समय अँगरेजों का अधिकार उत्तरोत्तर बढ़ने लगा था । अतः दिल्ली और प्रागरा की प्रधानता अब बिहार और बंगाल की ओर अग्रसर हुई। इस प्रकार हम देखते हैं कि वह सभ्यता और भाषा जो केवल युक्त प्रांत के पश्चिमी भाग में बँधी थी, धीरे धीरे संपूर्ण युक्त प्रांत, बिहार और बंगाल में फैल गई। इधर मुसलमानों ने अपनी राजधानियाँ बिहार और बंगाल में स्थापित की; उधर बंगाल में अँगरेजों की प्रधानता बढ़ ही रही थी। फलतः व्यापार धीरे धीरे पश्चिम से पूर्व की ओर प्रसारित हुआ। इसका प्रभाव भाषा की व्यवस्था पर भी पड़े बिना न रहा। वह खड़ी बोली, जो अब तक पश्चिमी भाग में ही बँधी थी, समस्त उत्तरी भारत में अब अपना अधिकार जमाने में समर्थ हुई। ___ भारतवर्ष में अँगरेजों के आते ही यहाँ की राजनीतिक, सामाजिक तथा धार्मिक परिस्थिति में विप्लव उपस्थित हो उठा। राज्य-संस्थापन तथा प्राधिपत्य-विस्तार की इनकी भावना ने यहाँ के राजनीतिक जगत् में उलट-पुलट उत्पन्न कर दिया। इनके नित्य के संसर्ग ने तथा रेल, तार की नूतन सुविधाओं ने यहां के रहन सहन और प्राचार विचार में परिवर्तन ला खड़ा किया। इन लोगों के साथ साथ इनका धर्म भी लगा रहा। इनका एक अन्य दल धर्म-प्रचार की चेष्टा कर रहा था। धर्म-प्रवर्तन की इस चेष्टा ने धार्मिक जगत् में एक प्रौदोलन उपस्थित किया। सब ओर एक साधारण दृष्टि फेरने से एक शब्द में कहा जा सकता है कि अब विज्ञान का युग प्रारंभ हो गया था। लोगों के विचारों में जागर्ति हो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १-६० नागरीप्रचारिणी पत्रिका रही थी । उन्हें यह ज्ञात है। चला था कि उनका संबंध " " केवल उन्हों के देश भारतवर्ष से नहीं हैं वरन भारतवर्ष जैसे दूसरे प्रदेश भी हैं; सृष्टि के इस विस्तार से उनका संबंध अविच्छिन्न रहना अनिवार्य है, ऐसी अवस्था में समाज की व्यापकता वृद्धि पाने लगी । इस सामाजिक विकास के साथ ही साथ भाषा की ओर भी ध्यान जाना निर्वात स्वाभाविक था । इसी समय यंत्रालये । में मुद्रण-कार्य प्रारंभ हुआ । इसका प्रभाव नवीन साहित्य के विकास पर अधिक पड़ा । इस प्रकार विचारों के सामाजिक आदान-प्रदान का रूप स्थिर हुआ । इस समय तक जा साहित्य प्रचलित था वह केवल पद्यमय था । जो धारा ग्यारहवीं अथवा बारहवीं शताब्दियों में प्रवाहित हुई थी वह प्राज तक अप्रतिहत रूप में चली आ रही थी । एक समय था, जब कि यह प्रगति सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँच चुकी थी । किंतु अब इसके क्रमागत हास का समय था । इस काल की परिस्थिति इस बात का साक्ष्य देती थी कि अब किसी 'तुलसी', 'सूर' और 'बिहारी' के होने की संभावना न थी । इस समय में भी कवियों का प्रभाव नहीं था । ग्रंथों की रचना का क्रम इस समय भी चल रहा था और उनके पाठकों तथा श्रोताओं की कमी भी नहीं थी किंतु अब यह स्पष्ट भासित होने लगा था कि केवल पद्य रचना से काम नहीं चलेगा । पद्य-रचना साहित्य का एक अंग विशेष मात्र है, उसके अन्य अंगों की भी व्यवस्था करनी पड़ेगी, और बिना ऐसा किए उद्धार होने का नहीं । वाद-विवाद, धर्मोपदेश और तथ्यातथ्य निरूपण के लिये पद्य अनुपयोगी है, यह लोगों की समझ में आने लगा । इन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १९१ बातों के लिये गद्य की शरण लेनी पड़ेगी-यह स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। किसी काल-विशेष को जिन प्रसुविधाओं का सामना करना पड़ता है उन्हें वह स्वयं अपने अनुकूल बना लेता है। उसके लिये किसी व्यक्ति विशेष किंवा जाति-विशेष को प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जब कोई प्रावश्यकता उत्पन्न होती है तब उसकी पूर्ति के साधन भी अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। यही अवस्था इस समय गद्य के विकास की भी हुई। यदि इस काल-विशेष को गद्य-रचना की आवश्यकता पड़ी तो साधन सामने ही थे। विचारणीय विषय यह था कि इस समय ब्रजभाषा के गद्य का पुनरुद्धार करना समीचीन होगा अथवा शिष्ट समाज में प्रचलित खड़ी बोली के गद्य का । आधार स्वरूप दोनों का भांडार एक ही सा दरिद्र था। दोनों में ही संचित द्रव्य-लेख-सामग्री-बहुत न्यून मात्रा में उपलब्ध था। ब्रजभाषा के गद्य में यदि टीकाओं की गद्य-श्रृंखला को लेते हैं तो उसकी अवस्था कुल मिलाकर नहीं के बराबर हो जाती है। कहा जा चुका है कि इन टीकाओं की भाषा इतनी लचर, अनियंत्रित और अस्पष्ट थी कि उसका ग्रहण नहीं हो सकता था। उसमें अशक्तता इतनी अधिक मात्रा में थी कि भाव-प्रकाशन तक उससे भली भाँति नहीं हो सकता था। खड़ो बोली की अवस्था ठीक इसके विपरीत थी । आधारस्वरूप उसका भी कोई इतिहास न रहा हो, यह दूसरी बात है; परंतु जन साधारण उस समय इसके रूप से इतना परिचित और हिला मिखा था कि इसे अपनाने में उसे किसी प्रकार का संकोच न था। दिन रात लोग बोलचाल में इसी का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका व्यवहार करते थे। किसी प्रकार के भाव-व्यंजन में उन्हें कुछ अड़चन नहीं पड़ती थो। एक दूसरा विचारणीय प्रश्न यह था कि नवागंतुक अँगरेज नित्य बोलचाल की भाषा सुनते सुनते उसी के अभ्यस्त हो गए। अब उनके सम्मुख दूर-स्थित ब्रजभाषा का गद्य 'एक नवीन जंतु' था। अतएव उनकी प्रवृत्ति भी उस ओर सहानुभूति-शून्य सी थी। अँगरेज़ों के ही समान मुसलमान भी उसे नहीं पसंद करते थे; क्योंकि प्रारंभ से ही वे खड़ी बोली के साथ संबद्ध थे। यदि इस समय भी ब्रजभाषा के गद्य के प्रचार की चेष्टा की जाती तो, संभव है, इंशा अल्लाखाँ न हुए होते। एक और प्रश्न लोक-रुचि का भी था। मनुष्य की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति देखी जाती है कि वह सरलता की ओर अधिक आकृष्ट होता है। जिस ओर उसे कष्ट और असुविधा की कम आशंका रहती है उसी ओर वह चलता है । इस दृष्टि से भी जच विचार किया गया होगा तब यही निश्चित हुआ होगा कि अँगरेज तथा उस समय के पढ़े लिखे हिंदू-मुसलमान सभी खड़ी बोली को ही स्वीकार कर सकते हैं। उसी में सबको सरलता रहेगी और वही शीघ्रता से व्यापक बन सकेगी। सारांश यह कि खड़ी बोली को स्थान देने के कई कारण प्रस्तुत थे। किसी भी साहित्य के प्रारंभिक काल में एक अवस्थाविशेष ऐसी रहती है कि साधारण वस्तु को ही लेकर चलना पड़ता है। उस समय न तो भाषा में भाव-प्रकाशन की बलिष्ठ शक्ति रहती है और न लेखकों में ही व्यंजना-शक्ति का सम्यक प्रादुर्भाव हुभा रहता है। अत: यह स्वाभाविक है कि गद्य साहित्य का समारंभ कथा कहानी से हो। उस समय साहित्योन्नति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदो की गद्य-शैली का विकास १६३ के समारंभ का कारण केवल मनोविनोद ही होता है। वह समय उच्च और महत् विचारों के गवेषणा-पूर्ण चिंतन का नहीं होता। उस समय तथ्यातथ्य-विवेचन असंभव होता है। वहाँ तो यही विचार रहता है कि किसी प्रकार लोग पठन-पाठन के अभ्यासी हों। यही अवस्था हमारे गद्य के इस विकासकाल में थी। ___ यही हमें इंशा अल्लाखाँ और मुंशो सदासुखलाल दिखाई पड़ते हैं। एक कहानी लेकर आते हैं, दूसरे कथा का रूप । इस समय इन दो लेखकों की कृपा से दो समाजों को पढ़ने का कुछ उपादान, चलती भाषा में, प्राप्त हुआ। धर्म समाज को श्रीमद्भागवत का अनुवाद मिला और जन साधारण को मन-बहलाव के लिये एक किस्सा। जैसे दोनों के विषय हैं वैसी ही उनकी भाषा भी है। एक में भाषा शांत संचरण करती हुई मिलती है तो दूसरे में उछलकूद का बोलबाला है। मुंशीजी की भाषा में संस्कृत के सुंदर तत्सम शब्दों के साथ पुराना पंडिताऊपन है तो खाँ साहब में अरबी-फारसी के साधारण शब्द-समुदाय के साथ-साथ वाक्य-रचना का ढंग भी मुसलमानी मालूम पड़ता है। नमूने देखिए "जो सत्य बात होय उसे कहा चाहिए, को बुरा माने कि भला माने । विद्या इस हेतु पढ़ते हैं कि तात्पर्य इसका जो सत्तोवृत्ति है वह प्राप्त हो और उससे निज स्वरूप में लय हूजिए।।" -मुंशी सदासुखलाल _ "सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सबको बनाया और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। श्रातियां, जातियाँ जो साँसे हैं, उसके २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका बिन ध्यान सब फाँसे हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खिलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्यों पड़े और कड़वा कसैला क्यों हो ?" -सैयद इंशा अल्लाखां "बात होय, को ( कोई के लिये), हेतु, तात्पर्य इसका.........है" इत्यादि पद मुंशीजी में पंडिताऊपन के प्रमाण हैं। आजकल भी कथा-वाचक में और साहित्य का ज्ञान न रखनेवाले कोरे संस्कृत के अन्य पंडितों में इस प्रकार की व्यंजनात्मक परिपाटी पाई जाती है। इसके अतिरिक्त इनमें आवता, जावता इत्यादि का प्रयोग भी बहुलता से मिलता है। इसी पंडिताऊपन का रूप हमें स्वर्गीय पंडित अम्बिकादत्तजी व्यास की रचना में भी मिलता है। मुंशीजी के समय में यह उतना बड़ा दोष नहीं माना जा सकता था जितना व्यासजी के काल में। अस्तु, इन संस्कार-जनित दोषों को छोड़कर इनकी रचना में हमें प्रागम का चित्र स्पष्ट दिखाई पड़ने लगता है। 'तात्पर्य', 'सत्तोवृत्ति', 'प्राप्त', "स्वरूप' इत्यादि संस्कृत के तत्सम शब्दों के उचित प्रयोग भाषा के परिमार्जित होने की आशा दिखाते हैं। रचना के साधारण स्वरूप को देखने से एक प्रकार की स्थिरता और गंभीरता की झलक दिखाई पड़ती है। यह स्पष्ट आशा हो जाती है कि एक दिन आ सकता है जब मार्मिक विषयों की विवेचना सरलता से होगी। उद्भावना-शक्ति के विचार से जब हम खाँ साहब की कृति को देखते हैं तब निर्विवाद मान लेना पड़ता है कि उनका विषय एक नवीन प्रायोजन था। उनकी कथा का आधार नहीं था। मुंशीजी का कार्य इस विचार से सरल था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १६५ खाँ साहब को अपनी इस नवीनता में बड़ी सफलता मिली। कथा का निर्वाह संगठित और क्रम-बद्ध है। भाषा चमत्कारपूर्ण और आकर्षक है। उसमें अच्छा चलतापन है। यह सब होते हुए भी मानना पड़ेगा कि इस प्रकार की भाषा गूढ़ विषयों के प्रतिपादन के लिये उपयोगी नहीं हो सकती । इसमें चटक मटक इतनी है कि पढ़ते पढ़ते एक मीठी हँसी आ ही जाती है। यही शैली क्रमश: विकसित होकर पंडित पद्मसिहजी शर्मा की भाषा में मौजूद है । इस शैली की भाषा में धोंगा-धोंगी तो सफलता के साथ हो सकती है। किंतु गूढ़ गवेषणा को उसमें कोई स्थान नहीं प्राप्त हो सकता। इसके अतिरिक्त इनमें तुक लगाते चलने की धुन भी विलक्षण थी। इसी का परिवद्धित रूप लल्लुजीलाल की रचना में भी मिलता है। अभी तक साहित्य केवल पद्यमय था। अत: सभी के कान श्रुतिमधुर तुकांतों की ओर आकृष्ट होते थे। "हम लबको बनाया, कर दिखाया, किसी ने न पाया" में यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है। कृदंत और विशेषण के प्रयोग में 'वचन' का विचार रखना एक प्राचीन परिपाटी या परंपरागत रूढ़ि थी जो कि अपभ्रंश काल में तो प्रचलित थी, परंतु खाँ साहब के कुछ पूर्व तक इधर नहीं मिलती थी। अकस्मात् इनकी रचना में फिर वह रूप दिखाई पड़ा। ऊपर दिए हुए अवतरण के 'प्रावियाँ जातियाँ जो साँसे हैं' में यह बात स्पष्ट है। वास्तव में इस समय 'आती जाती' लिखा जाना चाहिए, इसके अतिरिक्त इनकी रचना में कहावतों का सुंदर उपयोग और निर्वाह पाया जाता है। यह भाषा मुसलमानों के उपयोग में सैकड़ों वर्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका .से पा रही थी। अतः उनके लिये वह एक प्रकार से परिमार्जित हो चुकी थी। उनके लिये कहावतों का सुंदर प्रयोग करना कोई बड़ी बात न थी। इनकी वाक्य-योजना में फ़ारसी का ढंग है। "सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ अपने बनानेवाले के सामने' में रूप ही उलटा है। इसी को पंडित सदल मिश्र ने लिखा है-'सकल सिद्धिदायक वो देवतन में नायक गणपति को प्रणाम करता हूँ।' क्रिया का वाक्य के अंत में रहना समीचीन है। ___ सारांश यह कि इंशा अल्लाखाँ की भाषा शैली उर्दू ढंग की है और उस समय के सभी लेखकों में यह “सब से चटकीली मटकीली मुहाविरेदार और चलती" है, परंतु यह मान लेना भ्रमात्मक है कि खाँ साहब की शैली उच्च गद्य के लिये उपयुक्त है। इस ओर स्वतः लेखक की प्रवृत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती। वह लिखते समय हाव भाव कूद फाँद और लपक झपक दिखाना चाहता है। ऐसी अवस्था में गंभीरता का निर्वाह कठिन हो जाता है। उसने फड़कती हुई भाषा का बड़ा सुंदर रूप लेखक ने सामने रखा है, यही कारण है जो तात्त्विक विषयों का पर्यालोचन इसकी भाषा में नहीं किया जा सकता। हाँ यह बात अवश्य है कि खाँ साहब ने अपने विषय के अनुकूल भाषा का उपयोग किया है। उसमें लेखक का प्रतिरूप दिखाई पड़ता है। उछलती हुई भाषा का वह बहुत ही प्राकर्षक रूप है। जिस समय इधर मुंशी सदासुखलाल और सैयद इंशा अल्लाखाँ अपनी वृत्तियों को लेकर साहित्यक्षेत्र में अवतीर्ण हुए उस समय उधर कलकत्ते में गिलक्रिस्ट साहब भी गद्य के निर्माण में सहायक हुए। फोर्ट विलियम कालेज की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास १-६७ अध्यक्षता में लल्लूजीलाल ने 'प्रेमसागर' और सदल मिश्र ने 'नासिकेतोपाख्यान' लिखा। लल्लूजीलाल के लिये चतुर्भुजदास का भागवत और सदल मिश्र के लिये संस्कृत का नासिकेतेोपाख्यान प्राप्त था। दोनों को वस्तुनिर्माण की आवश्यकता नहीं पड़ी । पुराने ढाँचे पर इमारत खड़ी करना अधिक कुशलता का परिचायक नहीं है । इस दृष्टि से इंशा अल्ला खाँ का कार्य सबसे दुरूह था । खाँ साहब और मुंशीजी ने स्वान्त:सुखाय रचना की और लल्लुजीलाल और मिश्रजी ने केवल दूसरों के उत्साह से ग्रंथ निर्माण किए । - लल्लूजीलाल की भाषा चतुर्भुजदास की भाषा का प्रतिरूप है । उसकी कोई स्वतंत्र सत्ता ही नहीं दिखाई पड़ती । उस समय तक गद्य का जो विकास हो चुका था उसकी आभा इनकी शैली में नहीं दिखाई पड़ती। भाषा में नियंत्रण और व्यवस्था का पूर्ण अभाव है । शब्दचयन के विचार से वह धनी ज्ञात होती है । तत्सम शब्दों का प्रयोग उसमें अधिक हुआ है। परंतु इन शब्दों का रूप विकृत भी यथेष्ट हुआ है । देशज शब्द स्थान स्थान पर विचित्र ही मिलते हैं। अरबी फारसी की शब्दावली का व्यवहार नहीं हुआ है । अपवाद स्वरूप संभव है कहीं कोई विदेशी शब्द आ गया हो । इनकी भाषा सानुप्रास और तुकांतपूर्ण है । उदाहरण देखिए— "ऐसे वे दोनों प्रिय प्यारी बतराय पुनि प्रीति बढ़ाय अनेक प्रकार से काम कलाल करने लगे और विरही की पीर हरते । श्रागे पान की मिठाई, मोती माल की शीतलाई और दीपज्योति की मंदताई देख एक बार तो सब द्वार मूँद ऊषा बहुत घबराय घर में श्राय प्रति प्यार कर प्रिय को कंठ लगाय लेटी ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ____ इस प्रकार की भाषा कथावार्ताओं में ही प्रयुक्त की जा सकती है। उस समय भाषा का जो रूप प्रयोजनीय था वह इन्होंने नहीं खड़ा किया । इनकी भाषा अधिकांश शिथिल है। स्थान स्थान पर ऐसे वाक्यांश पाए हैं जिनका संबंध आगे पीछे के वाक्यों से बिलकुल नहीं मिलता। इन सब दोषों के रहते हुए भी इनकी भाषा बड़ी मधुर हुई। स्थान स्थान पर वर्णनात्मक चित्र बड़े सुंदर हैं। यदि लल्लूजीलाल भी सदल मिश्र की भाँति भाषा को स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने देते तो संभव है उनकी प्राचीनता इतनी न खटकती, और कुछ दोषों का परिमार्जन भी इस प्रकार हो जाता। परबी फ़ारसी के लटकों से बचने में इनकी भाषा मुहाविरेदार और आकर्षक नहीं हो सकी और उसमें अधिक तोड़ मरोड़ करना पड़ा। लल्लूजीलाल के साथो सदल मिश्र की भाषा व्यावहारिक है। इसमें न तो ब्रजभाषा का अनुकरण है और न तुकांत का लटका। इन्होंने अरबी-फारसी-पन को एक दम अलग नहीं किया। इसका परिणाम बुरा नहीं हुआ, क्योंकि इससे भाषा में मुहाविरों का निर्वाह सफलता के साथ हो सका है और कुछ आकर्षण तथा रोचकता भी आ गई है। वाक्यों के संगठन में खाँ साहब की उलट फेरवाली प्रवृत्ति इनमें भी मिलती है। 'जलविहार हैं करते, 'उत्तम गति को हैं पहुँचते' 'अबही हुआ है क्या' इत्यादि में वही धुन दिखाई देती है। इस में स्थान स्थान पर वाक्य असंपूर्ण अवस्था में ही छोड़ दिए गए हैं। अंतिम क्रिया का पता नहीं है। जैसे 'जहाँ देखो वहाँ देवकन्या सब गाती'। साधारणतः देखने से भाषा असंयत बात होती है। 'और' के लिये 'श्री' तथा 'वो' दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १६६ रूप मिलते हैं। बहुवचनरूप भी दो प्रकार के मिलते हैं। 'काजन' 'हाथन' 'सहस्रन' और 'कोटिन्ह' 'मोतिन्ह' 'फूलन्ह' 'बहुतेरन्ह' इत्यादि। मुंशी सदासुखलाल की भाँति इनमें भी पंडिताऊपन मिलता है। 'जाननिहारा' 'प्रावता' 'करनहारा' 'रहे' (थे के लिये ) 'जैसी आशा करिये, 'श्रावने इत्यादि इसी के संबोधक हैं ! एक ही शब्द दो रूपों में लिखे गए हैं। उदाहरणार्थ 'कदही' भी मिलता है और 'कधी', 'नहीं' के स्थान में सदैव न लिखा गया है। मिश्रजी कलकत्ते में तो रहते ही थे; इसी कारण उनकी भाषा में बँगला का भी प्रभाव दृष्टिगत होता है 'गाछ'-'कांदना' बँगला भाषा के शब्द हैं 'सो मैं नहीं सकता हूँ। में बँगलापन स्पष्ट है। 'जहाँ कि' को सर्वत्र 'कि जहाँ' लिखा है। यो तो मिश्रजी की भाषा अव्यवस्थित और अनियंत्रित है और उसमें एकरूपता का अभाव है; परंतु उसमें भाव-प्रकाशन की पद्धति सुंदर और आकर्षक है। तत्सम शब्दों का अच्छा प्रयोग होते हुए भी उसमें तद्भव और प्रांतिक शब्दों की भरमार है। सभी स्थलों पर भाषा एक सी नहीं है। कहीं कहीं तो उसका सुचारु और संयत रूप दिखाई पड़ता है, पर कहीं कहीं अशक्त और भद्दा । ऐसी अवस्था में इनकी भाषा को 'गठीली' और 'परिमार्जित' कहना युक्तिसंगत नहीं है। एकस्वरता का विचार अधिक रखना चाहिए। इस विचार से इनकी भाषा को देखने पर निराश होना पड़ेगा; परंतु साधारण दृष्टि से वह मुहाविरेदार और व्यावहारिक थी इसमें कोई संदेह नहीं। कहीं कहीं तो इनकी रचना आशा से अधिक संस्कृत दिखाई पड़ती है जैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० नागरीप्रचारिणी पत्रिका ___ "उस वन में व्याघ्र और सिंह के भय से वह अकेली कमल के समान चंचल नेत्रवाली व्याकुल हो ऊँचे स्वर से रो रो कहने लगी कि अरे विधना! तैने यह क्या किया ? और बिछुरी हुई हरनी के समान चारों ओर देखने लगी। उसी समय तक ऋषि जो सत्यधर्म में रत थे ईंधन के लिये वहाँ जा निकले । ऐसे विशुद्ध स्थल कम हैं। यह भाषा भारतेंदु हरिश्चंद्र के समीप पहुँचती दिखाई पड़ती है। इसमें साहित्य की अच्छी झलक है। भाव-व्यंजन में भी कोई बाधा नहीं दिखाई पड़ती। ऐसे समय में जब कि मुंशी सदासुखलाल, इंशा अल्लाखाँ, लल्लूजीलाल और सदल मिश्र गद्य का निर्माण कर रहे थे, ईसाइयों के दल अपने धर्म का प्रचार करने की धुन में संलग्न थे। इन लोगों ने देखा कि साधारण जनता जिनके बीच उन्हें अपने धर्म का प्रचार करना अभीष्ट था अधिक पढ़ी लिखी नहीं थो। उसकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली थी । अतएव इन ईसाई प्रचारकों ने अरबो फारसी मिली हुई भाषा का त्यागकर विशुद्ध खड़ी बोली को ग्रहण किया। उन्होंने उर्दूपन को दूरकर सदासुखलाल और लल्लूजीलाल की ही भाषा को प्रादर्श माना। इसका भी कारण था। उन्हें विश्वास था कि मुसलमानों में वे अपने मत का प्रचार नहीं कर सकते थे। मुसलमान स्वयं इतने कट्टर और धर्माध होते हैं कि अपने धर्म के आगे वे दूसरों की नहीं सुनते । इसके सिवा शाही शासको के प्रभाव से हिंदुओं की साधारण अवस्था शोचनीय थी। वे अधिकांश में दरिद्र थे। अतः आर्थिक प्रलोभन में पड़कर ईसाई धर्म स्वीकार कर लेते थे। इन अवस्थाओं का विचार करके इन ईसाई प्रचारको ने खड़ी बोली को ही ग्रहण किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदो की गद्य-शैली का विकास २०१ उन्हें मालूम था कि साधारण हिंदू जनता, जिसमें उन्हें अपना धर्म फैलाना था, इसी भाषा का व्यवहार करतो है। ____संवत् १८७५ में जब ईसाइयों की धर्म-पुस्तक का अनुवाद हिंदी भाषा में हुआ तब देखा गया कि उसमें विशुद्ध हिंदी भाषा का ही उपयोग हुआ है। इस समय ऐसी अनेक रचनाएँ तैयार हुई जिनमें साधारणतः ग्रामीण शब्दों को तो स्थान मिला परंतु प्ररबी फारसी के शब्द प्रयुक्त नहीं हुए। 'तक' के स्थान पर "लौं', 'वक्त' के स्थान पर 'जून' 'कमरबंद' के लिये 'पटुका' का ही व्यवहार हुमा है। केवल शब्दों का ही परिष्कार नहीं हुआ वरन् इस भाषा में शब्दावली, भावभंगी और ढंग सभी हिंदी-विशुद्ध हिंदी-के थे। एतत्कालीन ईसाई-रचनाओं में भाषा विशुद्ध और परिमार्जित रूप में प्रयुक्त हुई है। इन ईसाइयों ने स्थान स्थान पर विद्यालय स्थापित किए । इनकी स्थापित पाठशालाओं के लिये पाठ्य पुस्तके भी सरल परंतु शुद्ध हिंदी में लिखी गई। कलकत्ते और आगरे में ऐसी संस्थाएँ निश्चित रूप से स्थापित की गई, जिनका उद्देश्य ही पठन पाठन के योग्य पुस्तकों का निर्माण करना था। इन संस्थानों ने उस समय हिंदी का बड़ा उपकार किया। राजा शिवप्रसाद प्रभृति हिंदी के उन्नायकों के लिये अनुकूल वातावरण इन्हीं की बदौलत तैयार हुआ। इन ईसाइयों ने भूगोल, इतिहास, विज्ञान और रसायन शास्त्र प्रभृति विषयों की पुस्तके प्रकाशित की। कुछ दिनों तक यही क्रम चलता रहा। बाद को प्रकाशित पुस्तकों की भाषा पर्याप्त रूप में परिमार्जित हो गई थी। जैसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणो पत्रिका "भट्ट ने पहले यह बात लिखी है कि देवताओं के कुकर्म सुकर्म हैं क्यों शास्त्र ने इनको सुकर्म ठहराया है। यह सच है परंतु हमारी समझ में इन्हीं बातों से हिंदू शास्त्र झूठे ठहरते हैं । ऐसी बातों में शास्त्र के कहने का कुछ प्रमाण नहीं। जैसे चोर के कहने का प्रमाण नहीं जो चोरी करे फिर कहे कि मैं तो चोर नहीं । पहले अवश्य है कि शास्त्र सुधारे जायँ और अच्छे अच्छे प्रमाणों से ठहराया जाय कि यह पुस्तक ईश्वर की है तब इसके पीछे उनके कहने का प्रमाण होगा । यह निश्चय जाना कि यदि ईश्वर अवतार लेता तो ऐसा कुकर्म कभी न करता और अपनी पुस्तक में कभी न लिखता कि कुकर्म सुकर्म है" । २०२ ऊपर का उद्धृत अवतरण संवत् १८०६ में प्रकाशित एक पुस्तक का है । इसकी भाषा से यह स्पष्टतया विदित हो जाता है कि इस समय तक इसमें इतनी शक्ति भा गई थी कि योग्यतापूर्वक वाद-विवाद चल सके। इसमें शक्ति दिखाई पड़ती है । यह भाषा लचर नहीं है। इसमें भाषा का व्यवस्थित रूप दिखाई पड़ता है। पूरी पुस्तक इसी शैली में लिखी गई है। इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि इस समय तक भाषा में एकस्वरता अच्छी तरह से आ गई थी । सभी विषयों की छानबीन इसमें हुई है । श्रतएव यह कथन प्रत्युक्ति-पूर्ण न होगा कि इसकी व्यापकता बढ़ रही थी । अब यह केवल कथा कहानी की भाषा न रही, वरन् तथ्यातथ्य-निरूपण, वाद-विवाद और प्रालोचना की भाषा भी हो चली । पठन ईसाइयों का प्रचार कार्य चलता रहा | खंडन मंडन की पुस्तकें विशुद्ध हिंदी भाषा में छपती रहीं । पाठन का कार्य आरंभ हो चुका था । पाठशालाएँ स्थापित हो चुकी थीं। उर्दू इन संस्थाओं में पढ़ाने के लिये पुस्तकें भी लिखी जा रही थीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २०३ इस प्रकार व्यापक रूप में न सही, पर संतोषप्रद रूप में प्रयास किया जा रहा था। इसी समय सरकार ने भी मदरसे स्थापित करने का आयोजन प्रारंभ किया। नगरों के अतिरिक्त गाँवों में भी पढ़ाने लिखाने की व्यवस्था होने लगी। इन सरकारी मदरसों में अँगरेजी के साथ साथ हिंदी उर्दू को भी स्थान प्राप्त हुआ। यह आरंभ में ही लिखा जा चुका है कि जिस समय मुसलमान लेखको ने कुछ लिखना प्रारंभ किया उस समय ब्रजभाषा और प्रवधी में ही उन लोगों ने अपने अपने काव्यों का प्रणयन किया। इसके बाद कुछ लोगों ने खड़ो बोलो में रचनाएँ प्रारंभ की। पहले किसी में भी यह धारणा न थी कि इसी हिंदी के ढाँचे में अरबी फारसी की शब्दावली का सम्मिश्रण कर एक नवीन कामचलाऊ भाषा का निर्माण कर ले। परंतु आगे चलकर अरबी फारसी के शब्दों का प्रयोग खड़ी बोली में क्रमशः वृद्धि पाने लगा। शब्दों के अतिरिक्त मुहावरे, भावव्यंजना तथा वाक्थ-रचना का ढंग भी धीरे धीरे बदल गया। खड़ो बोली के इसी बदन्ने हुए रूप को मुसलमान लोगों ने उर्दू के नाम से प्रतिष्ठित किया। ये लोग कहने लगे कि इस भाषा विशेष का अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। पहले अदालतों में विशुद्ध फारसी भाषा का प्रयोग होता था। पश्चात् सरकार की कृपा से खड़ो बोली का अरबो __ फारसीमय रूप लिखने पढ़ने की प्रदालती ___ उर्दू की व्यापकता : " भाषाहोकर सबके सामने आया" । वास्त. विक खड़ी बोली की प्रगति को इस परिवर्तन से बड़ा व्याघात पहुँचा। अदालत के कार्यकर्ताओं के लिये इस नवाविष्कृत गढ़त यापकता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका भाषा का अध्ययन अनिवार्य हो गया, क्योंकि इसके बिना उनका रोटी कमाना दुष्कर हो गया। इस विवशता से इस उर्दू कही जानेवाली खिचड़ी भाषा की व्यापकता बढ़ने लगी। अब एक विचारणीय प्रश्न यह उपस्थित हुआ कि सरकारी मदरसे में नियुक्त पाठ्य ग्रंथों का निर्माण किस भाषा में हो, हिंदी खड़ी बोली में हो अथवा अरबी-फारसी-मय नवीन रूपधारिणी उर्दू नाम से पुकारी जानेवाली इस खिचड़ी भाषा में ? काशी के राजा शिवप्रसाद इस समय शिक्षा विभाग में निरीक्षक के पद पर नियुक्त थे। वे हिंदी के उन हितैषियों में से _ थे जो लाख विघ्न, बाधाओं तथा अड़चनों राजा शिवप्रसाद उपस्थित होने पर भी भाषा के उद्धार के लिये सदैव प्रयत्नशील रहे। इस हिंदी उर्दू के झगड़े में राजा साहब ने बड़ा योग दिया। उनकी स्थिति बड़ी विचारणीय थी। उन्होंने देखा कि शिक्षा-विभाग में मुसलमानों का दल अधिक शक्तिशाली है। प्रतः उन्होंने किसी एक पक्ष का स्वतंत्र समर्थन न कर मध्यवर्ती मार्ग का प्रवलंबन किया । नीति भी उनके इस कार्य का अनुमोदन करती है। पढ़ने के लिये पुस्तकों का अभाव देखकर राजा साहब ने स्वयं तो लिखना प्रारंभ ही किया, साथ ही अपने मित्रों को भी प्रोत्साहन देकर इस कार्य में संयोजित किया। "राजा साहब जी जान से इस उद्योग में थे कि लिपि देवनागरी हो और भाषा ऐसी मिलीजुली रोजमर्रा की बोल चाल की हो कि किसी दलवाले को एतराज न हो।" इसी विचार से प्रेरित हो उन्होंने अपनी पहले की लिखी पुस्तकों में भाषा का मिला जुला रूप रक्खा। लोगों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २०५ यह कहना कि "राजा साहब की भाषा वर्तमान भाषा से बहुत मिलती है, केवल यह साधारण बोलचाल की ओर अधिक झुकती है और उसमें कठिन संस्कृत अथवा फ़ारसी के शब्द नहीं हैं। उनकी संपूर्ण रचनाओं में नहीं चरितार्थ होता। उनकी पहले की भाषा अवश्य मध्यवर्ती मार्ग की थी। इसमें उन्होंने स्थान स्थान पर साधारण उर्दू और फ़ारसी के तथा अरबी के भी शब्दों का प्रयोग किया है। साथ ही संस्कृत के चलते और साधारण प्रयोगों में आनेवाले तत्सम शब्दों को भी उन्होंने लिया है। इसके अतिरिक्त 'लेवे' ऐसे रूप भी वे रख देते थे। देखिए-"सिवाय इसके मैं तो आप चाहता हूँ कि कोई मेरे मन की थाह लेवे और अच्छी तरह से जाँचे । मारे व्रत और उपवासों के मैंने अपना फूल सा शरीर काँटा बनाया, ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते देते सारा खजाना खाली कर डाला, कोई तीर्थ बाकी न रखा, कोई नदी तालाब नहाने से न छोड़ा, ऐसा कोई आदमी नहीं कि जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूँ"। कुछ दिन लिखने पढ़ने के उपरांत राजा साहब के विचार बदलने लगे और अंत में आते पाते वे हमें उस समय के एक कट्टर उर्दू-भक्त के रूप में दिखाई पड़ते हैं। उस समय उनमें न तो वह मध्यम मार्ग का सिद्धांत ही दिखाई पड़ता है और न विचार ही। उस समय वे निरे उर्दूदा बने दिखाई पड़ते हैं । भाव-प्रकाश की विधि, शब्दावली और वाक्य-विन्यास प्रादि सभी उनके उर्दू ढाँचे में ढले दिखाई पड़ते हैं। जैसे__"इसमें अरबी, फारसी, संस्कृत और अब कहना चाहिए अँगरेजी के भी शब्द कंधे से कंधा मिड़ाकर यानी दोश-बदोश चमक दमक और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ नागरीप्रचारिणो पकिा रौनक पावै, न इस बेतर्तीबी से कि जैसा अब गड़बड़ मच रहा है, बल्कि एक सल्तनत के मानिद कि जिसकी हदें कायम हो गई हो और जिसका इंतिज़ाम मुंतज़िम की अक्लमंदी की गवाही देता है”। ___क्या घोर परिवर्तन है ! कितना उथल पथल है !! एक शैली पूरब को जाती है तो दूसरी बेलगाम पच्छिम को भागी जा रही है। उपर्युक्त अवतरण में हिंदीपन का प्राभास ही नहीं मिलता 'न इस बेतर्तीबी से कि' से तथा अन्य स्थान में प्रयुक्त 'तरीका उसका यह रक्खा था' 'दिन दिन बढ़ावें प्रताप उसका' से वही गंध आती है जो पहले इंशाअल्लाह खाँ की वाक्य-रचना में आती थी। इसके अतिरिक्त उर्दू लेखकों के एक वर्ग के अनुसार वे 'पूँजी हासिल करना चाहिए' ही लिखा करते थे। इस प्रकार हम देखते हैं कि राजा साहब 'सितारेहिंद' से 'सितार-ए-हिंद' बन गए थे। राजा शिवप्रसाद की इस शैली का विरोध प्रत्यक्ष रूप में राजा लक्ष्मणसिंह ने किया। ये महाशय यह दिखाना चाहते . थे कि बिना मुसलमानी व्यवस्था के भी राजा लक्ष्मणसिंह ९ खड़ी बोली का अस्तित्व स्वतंत्र रूप से रह सकता है। उनके विचार से "हिंदी और उर्दू दो बोली न्यारी न्यारो' थीं। इन दोनों का सम्मेलन किसी प्रकार नहीं हो सकतायही उनकी पक्को धारणा थी। बिना उर्दू के दलदल में फँसे भी हिंदी का बहुत सुंदर गद्य लिखा जा सकता है। इस बात को उन्होंने स्वयं सिद्ध भी कर दिया है। उनके जो दो अनुवाद लिखे गए और छपे हैं उनकी "भाषा सरल, एवं ललित है और उसमें एक विशेषता यह भी है कि अनुवाद शुद्ध हिंदी में ' किया गया है। यथासाध्य कोई शब्द फ़ारसी अरबी का नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २०७ आने पाया है।" "इस पुस्तक की बड़ी प्रशंसा हुई और भाषा के संबंध में माना फिर से लोगों की आँखें खुली। पूर्व के लेखकों में भाषा का परिमार्जन नहीं हुआ था। वह प्रारंभ की अवस्था थी। उस समय न कोई शैली थी और न कोई विशेष उद्देश्य ही था, जो कुछ लिखा गया उसे काल की प्रगति एवं व्यक्ति विशेष की रुचि समझना चाहिए । उस समय तक भाषा का कोई रूप भी निश्चित नहीं हुआ था। न उसमें कोई स्थिरता ही आई थी। उस समय 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' थी। इसके सिवा सितार-ए-हिंद साहब अपनी दारंगी दुनिया के साथ मैदान में हाजिर हुए। इनकी चाल दोरुखी रही। अत: इनकी इस दोरुखी चाल की वजह से भाषा अव्यवस्थित ही रह गई। उसका कौन सा रूप स्थिर माना जाय, इसका पता लगाना कठिन था। ___भाषा के एक निश्चयात्मक रूप का सम्यक प्रसाद हम राजा लक्ष्मणसिंह की रचना में पाते हैं। कुछ शब्दों के रूप चाहे बेढंगे भले ही हो पर भाषा उनकी एक ढर्रे पर चली है। "मैंने इस दूसरी बार के छापे में अपने जाने सब दोष दूर कर दिये हैं;" तथा "जिन्ने", "सुन्ने,""इस्से", "उस्से," "वहाँ जानो कि," "जान्ना" "मान्नी" इत्यादि विलक्षण रूप भी उनकी भाषा में पाए जाते हैं। 'मुझे ( मुझमें ) यह तो ( इतना तो ) सामर्थ्य है" "तुझै (तुझको अथवा तुमको) लिवाने' आदि सरीखे प्राचीन रूप भी प्राप्त होते हैं । कहावत के स्थान पर 'कहनावत' का प्रयोग किया गया है। 'अवश्य सदैव प्रावश्यक' के स्थान पर प्रयुक्त हुपा है। इतना सब होते हुए भी भाषा अपने स्वाभाविक मार्ग पर चलो है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका जितना पुष्ट और व्यवस्थित गद्य हमें इनकी रचना में मिलता है उतना इनके पूर्व के किसी भी लेखक की रचना में नहीं उपलब्ध हुआ था। गद्य के इतिहास में इतनी स्वाभाविक विशुद्धता का प्रयोग आगे किसी ने नहीं किया था। इस दृष्टि से राजा लक्ष्मणसिंह का स्थान तत्कालोन गद्य साहित्य में सर्वोच्च है। यदि राजा साहब विशुद्धता लाने के लिये बद्धपरिकर होने में कुछ भी पागा पीछा करते तो भाषा का प्राज कुछ और ही रूप रहता। जिस समय इन्होंने यह उत्तर. दायित्व अपने सिर पर लिया वह समय गद्य साहित्य के विकास के परिवर्तन का था। उस समय की रंच मात्र की असावधानी भी एक बड़ा अनर्थ कर सकती थी। इनकी रचना में हमें जो गद्य का निखरा रूप प्राप्त होता है वह एकांत उद्योग और कठिन तपस्या का प्रतिफल है। राजा साहब की भाषा का कुछ नमूना उद्धृत किया जाता है। "याचक तो अपना अपना वांछित पाकर प्रसन्नता से चले जाते हैं परंतु जो राजा अपने अंतःकरण से प्रजा का निर्धार करता है नित्य वह चिंता ही में रहता है। पहले तो राज बढ़ाने की कामना चित्त को खेदित करती है फिर जो देश जीतकर वश किए उनकी प्रजा के प्रति. पालन का नियम दिन रात मन को विकल रखता है जैसे बड़ा छत्र यद्यपि घाम से रक्षा करता है परंतु बोझ भी देता है।" ।। इस समय तक हम देख चुके हैं कि गद्य में दो प्रधान शैलियाँ उपस्थित थीं। एक तो अरबी फारसी के शब्दों से भरी-पुरी खिचड़ी थी जिसके प्रवर्तक हरिश्चंद्र राजा शिवप्रसादजी थे और दूसरी विशुद्ध हिंदी की शैली थी जिसके समर्थक और उन्नायक राजा लक्ष्मण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २०६ सिंह थे। अभी तक यह निश्चय नहीं हो सका था कि किस शैली का अनुकरण कर उसकी वृद्धि करनी चाहिए। स्थिति विचारणीय थो। इस उलझन को सुलझाने का भार भारतेंदु हरिश्चंद्र पर पड़ा। बाबू साहब हिंदू मुसलमानों की एकता के इतने एकांत भक्त न थे। वे नहीं चाहते थे कि एकता की सीमा यहाँ तक बढ़ा दी जाय कि हम अपनी मातृभाषा का अस्तित्व ही मिटा दें। वे शिवप्रसादजी की उर्दूमय शैली को देखकर बड़े दुखित होते थे। उनका विचार था कि एक ऐसी परिमार्जित और व्यवस्थित भाषा का निर्माण हो जो पठित समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त कर श्रादर्श का स्थान ग्रहण कर सके। इस विचार से प्रेरित होकर बाबू साहब इस कार्य के संपादन में आगे बढ़े और घोर उद्योग के पश्चात् अंततो गत्वा उन्होंने भाषा को एक व्यवस्थित रूप दे ही डाला। भारतेंदु के इस अथक उद्योग के पुरस्कार स्वरूप यदि उन्हें 'गद्य का जन्मदाता कहें तो अनुचित न होगा। उन्होंने समझ लिया कि एक ऐसे मार्ग का अवलंबन करना समीचीन होगा जिसमें सब प्रकार के लेखको को सुविधा हो। उन्हें दिखाई पड़ा कि न उर्दू के तत्सम शब्दों से भरी तथा उर्दू वाक्य-रचना-प्रणाली से पूर्ण हो शैली सर्वमान्य हो सकती है और न संस्कृत के तत्सम शब्दों से भरीपुरी प्रथालो हो सर्वत्र प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकती है। प्रतः इन दोनों प्रणालियों की मध्यस्थ शैली ही इस कार्य के लिये सर्वथा उपयुक्त होगी। इसमें किसी को असंतोष का कारण न मिलेगा और इसलिये वह सर्वमान्य हो जायगी। अतः उन्होंने इन दोनों शैलियों का सम्यक संस्कार कर एक अभूत ___ २७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० नागरीप्रचारिणी पत्रिका रचना - प्रणाली का रूप स्थिर किया । यह उसका बहुत ही परिमार्जित और निखरा रूप था । "भाषा का यह निखरा हुआ शिष्ट सम्मान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ" । इसी मध्यम मार्ग का सिद्धांत उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में रखा है । हम यदि केवल इनकी गद्य-शैली के नवीन और स्थिर स्वरूप का ही विचार करें तो "वर्तमान हिंदी की इनके कारण इतनी उन्नति हुई कि इनको इसका जन्मदाता कहने में भी कोई प्रत्युक्ति न होगी" । इस मध्यम मार्ग के अवलंबन का फल यह हुआ कि भारतेंदु की साधारयतः सभी रचनाओं में उर्दू के तत्सम शब्दों का व्यवहार नहीं मिलता । अरबी फारसी के शब्द प्रयुक्त हुए हैं पर बहुत चलते । ऐसे शब्द जहाँ कुछ विकृत रूप में पाए गए वहाँ उसी रूप में रखे गए, राजा शिवप्रसाद की भाँति तत्सम रूप में नहीं । 'लोहू,' 'कफन,' 'कलेजा', 'जाफत, ' 'खजाना, ' 'जवाब' के नीचे नुकते का न लगाना ही इस विषय में प्रमाण है । 'जंगल, ' 'मुर्दा, ' 'मालूम,' 'हाल,' ऐसे चलते शब्दों का उन्होंने बराबर उपयोग किया है । इधर संस्कृत शब्दों के तद्भव रूपों का भी बड़ी सुंदरता से व्यवहार किया गया है। इस में उन्होंने बोल चाल के व्यावहारिक रूप का विशेष ध्यान रखा है । उनके प्रयुक्त शब्द इतने चलते हैं कि आज भी हम लोग उन्हीं रूपों में उनका प्रयोग अपनी नित्यं की भाषा में करते हैं। वे न तो भद्दे ही ज्ञात होते हैं और न उनके प्रयोग में कोई अड़चन ही उपस्थित होती है । 'भलेमानस', 'हिया', 'गुनी', 'आपुस', 'लच्छन', 'जोतसी', 'आँचल', 'जोबन', 'अगनित', 'अचरज' इत्यादि शब्द कितने मधुर हैं, वे कानों को . A Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास किंचित् मात्र भी प्रखरनेवाले नहीं हैं। इनका प्रयोग भी बड़ी सुंदरता से किया गया है। इन तद्भव रूपों के प्रयोग से भाषा में कहीं शिथिलता या न्यूनता प्रा गई हो यह बात भी नहीं है, बरन् इसके विपरीत भाषा और भी व्यावहारिक और मधुर हो गई है। इसके अतिरिक्त इनका प्रयोग भी इतने सामान्य और चलते ढंग से हुआ है कि रचना की अधिकता में इनका पता भी नहीं लगता। इस प्रकार बाबू साहब ने दोनों शैलियों के बीच एक ऐसा सफल सामंजस्य स्थापित किया कि भाषा में एक नवीन जीवन आ गया और इसका रूप और भी व्यावहारिक और मधुर हो गया। यह भारतेंदु की नई उद्भावना थी। लोकोक्तियों और मुहावरों से भाषा में शक्ति और चमक उत्पन्न होती है इसका ध्यान भारतेंदु ने अपनी रचना में बराबर रखा है, क्योंकि इनकी उपयोगिता उनसे छिपी न थी। इनका प्रयोग इतनी मात्रा में हुआ है कि भाषा में बल प्रा गया है। 'गूंगे का गुड़', 'मुँह देखकर जीना', 'बैरी की छाती ठंढी होना', 'अंधे की लकड़ी', 'कान न दिया जाना', 'झख मारना' इत्यादि मुहावरो का उन्होंने प्रचुरता से प्रयोग किया है। यही कारण है कि उनकी भाषा इतनी शक्तिशालिनी और जीवित होती थी। भाव-व्यंजना में भी इन लोकोक्तियों के द्वारा बहुत कुछ सरलता उत्पन्न हो गई। उनकी लोकोक्तियों में कहीं भी अभद्रता नहीं आने पाई है, जैसा कि हम पंडित प्रतापनारायणजी मिश्र की भाषा में पाते हैं। जहाँ लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग हुआ है वहाँ शिष्ट और परिमार्जित रूप में, उनमें नागरिकता की झलक सदैव वर्तमान रहती थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ नागरीप्रचारिणो पत्रिका इन विशेषताओं के साथ साथ उनमें कुछ पंडिताऊपन का भी प्राभास मिलता है, पर उनकी रचनाओं के विस्तार में इसका कुछ पता नहीं लगता। 'भई। ( हुई), 'करके' (कर), 'कहाते हैं। ( कहलाते हैं ), 'ढको' (ढको), 'सो' ( वह ), 'हाई (होही), 'सुनै','क' प्रादि में पंडिताऊपन, अवधीपन या ब्रजभाषापन की झलक भी मिलती है। इस त्रुटि के लिये हम उन्हें दोषी नहीं ठहरा सकते; क्योंकि उस समय तक न तो कोई प्रादर्श ही उपस्थित हुआ था और न भाषा का कोई व्यवस्थित रूप ही। ऐसी अवस्था में इन साधारण विषयों का सम्यक पर्सालोचन हो ही कैसे सकता था ? इसके अतिरिक्त कुछ व्याकरण संबंधी भूलें भी उनसे हुई हैं। स्थान स्थान पर 'विद्यानुरागिता' (विद्यानुराग के लिये), 'श्यामताई' ( श्यामता) पुल्लिंग में, 'अधीरजमना' (अधीरमना), 'कृपा किया है' ( कृपा की है), 'नाना देश में' (नाना देशों में ) व्यवहृत दिखाई पड़ते हैं। इसके लिये भी उनको विशेष दोष नहीं दिया जा सकता है क्योंकि उस समय तक व्याकरण संबंधी विषयों का विचार हुआ ही न था। इस प्रकार भाषा का परिमार्जन होना प्रागे के लिये बचा रहा । इसके अतिरिक्त एक कारण यह भी था कि उन्हें अपने जीवन में इतना लिखना था कि विशेष विचारपूर्वक लिखना नितांत असंभव था। कार्यभार के कारण उनका ध्यान इन साधारण विषयों की ओर नहीं जा सका। कार्यभार इस बात का था कि अभी तक भाषा साहित्य के कई विषयों का, जो साहित्य के प्रावश्यक अंग थे, प्रारंभ तक न हुप्रा था और उनकी दृष्टि बड़ो व्यापक बी। उन्हें Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१३ भाषा साहित्य के सब अंगों पर कुछ कुछ मसाला उपस्थित करना प्रावश्यक था, क्योंकि अभी तक गद्य साहित्य का विकास इस विचार से हुआ ही न था कि मानव-जीवन के सब प्रकार के भावों का प्रकाशन उसमें हो। अभी तक लिखनेवाले गंभीर मुद्रा ही में बोलते थे। हास्य विनोद के मनोरंजक साहित्य का निर्माण भी समाज के लिये आवश्यक है इस ओर उनके पूर्व के लेखकों का ध्यान ही आकर्षित न हुआ था। "हिंदी लेखकों में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने ही पहले पहल गद्य की भाषा में हास्य और व्यंग्य का पुट दिया।" इस प्रकार रचना का श्रीगणेश कर उन्होंने बड़ा ही स्तुत्य कार्य किया, क्योंकि इससे भाषा साहित्य में रोचकता उत्पन्न होती है। जिस प्रकार प्रचुर मात्रा में मिष्टान्नभोजी को मिष्टान्न भक्षण की रुचि को स्थिर रखने तथा बढ़ाने के लिये बीच बीच में चटनी की आवश्यकता पड़ती है, ठीक उसी प्रकार गंभीर भाषा साहित्य की चिरस्थायिता तथा विकास के लिये मनोरंजक साहित्य का निर्माण नितांत आवश्यक है। चटनी के अभाव में जैसे सेर भर मिठाई खानेवाला व्यक्ति प्राध सेर, ढाई पाव मिठाई खाने पर ही घबड़ा उठता है और भूख रहने पर भी जी के ऊब जाने से वह अपना पूरा भोजन नहीं कर सकता, उसी प्रकार सदैव गंभीर साहित्य का अध्ययन करते करते जनसमाज का चित्त ऊब उठता है। ऐसी अवस्था में वह 'मनफेर' का सामान न पाकर उससे एक दम संबंध त्याग बैठता है। उसमें एक प्रकार की नीरसता प्रा जाती है। हास्यप्रधान साहित्य के विकास का ध्यान रखकर ही उन्होंने 'एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न' ऐसे लेखों का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका प्रकाशन किया है। स्वप्न में प्रापने एक "गगनगत अविद्यावरुणालय' की स्थापना की। उस अविद्या-वरुणालय की नियमावली सुनाते सुनाते आप हाजरीन जलसह से फरमाते हैं-"अब आप सज्जनो से यही प्रार्थना है कि प्राप अपने अपने लड़को को भेजें और व्यय आदि की कुछ चिंता न करें क्योंकि प्रथम तो हम किसी अध्यापक को मासिक देंगे नहीं और दिया भी तो अभी दस पाँच वर्ष पीछे देखा जायगा । यदि हमको भोजन की श्रद्धा हुई तो भोजन का बंधान बाँध देंगे, नहीं, यह नियत कर देंगे कि जो पाठशाला संबंधी द्रव्य हो उसका वे सब मिलकर 'नाम' लिया करें। अब रहे केवल पाठशाला के नियत किए हुए नियम सो पापको जल्दी सुनाए देता हूँ। शेष स्त्रीशिक्षा का जो विचार था वह प्राज रात को हम घर पूछ लें तब कहेंगे।” भाषा भाव के अनुरूप होती है। उसी प्रकार उसकी प्रकाशन-प्रणाली भी हो जाती है। 'बंधान बाँध देंगे', 'सब मिलकर नाम लिया करें', 'घर पूंछ लें', इत्यादि में प्रकाशन-प्रणाली की विचित्रता के अतिरिक्त शब्द-संचयन में भी एक प्रकार का भाव विशेष छिपा है। इसी लिये कहा जाता है कि विषय का प्रभाव भाषा पर पड़ता है। ठीक यही अवस्था भारतेंदु की उस भाषा की हुई है जिसका प्रयोग उन्होंने अपने गवेषणापूर्वक मनन किए हुए तथ्यातथ्य निरूपण में किया है। भाव-गांभीर्य के साथ साथ भाषा-गांभीर्य का प्रा जाना नितांत स्वाभाविक बात है। जब किसी ऐसे मननशील विषय पर उन्हें लिखने की मावश्यकता पड़ी है जिसमें सम्यक विवेचन अपेक्षित था तब उनकी भाषा भी गंभीर हो गई है। ऐसी अवस्था में यदि भाषा का चट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१५ पटापन जाता रहे और उसमें कुछ नीरसता आ जाय तो कोई प्राश्चर्य की बात नहीं। इस प्रकार की भाषा का प्रमाण हमें उनके उस लेख में मिलता है जो उन्होंने 'नाटक-रचना-प्रणाली' पर लिखा है। उसका थोड़ा सा अंश हम उदाहरणार्थ उद्धृत करते हैं "मनुष्य लोगों की मानसिक वृत्ति परस्पर जिस प्रकार अदृश्य है हम लोगों के हृदयस्थ भाव भी उसी रूप अप्रत्यक्ष हैं, केवल बुद्धि वृत्ति की परिचालना द्वारा तथा जगत् के कतिपय बाह्य कार्य पर सूक्ष्म दृष्टि रखकर उसके अनुशीलन में प्रवृत्त होना पड़ता है। और किसी उपकरण द्वारा नाटक लिखना मख मारना है।" इस लेख की भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्द प्रचुर मात्रा में प्रयुक्त हुए हैं। तद्भव शब्दों का प्रायः लोप सा है। वाक्यरचना भी दुरूहवा से बरी नहीं है। भारतेंदु की साधारण भाषा से इस लेख की भाषा की भिन्नता स्पष्ट रूप से लक्षित होती है। यह भाषा उनकी स्वाभाविक न होकर बनावटी हो गई है। इसमें मध्यम मार्ग का सिद्धांत नहीं दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त उनकी साधारण भाषा में जो व्यावहारिकता मिलती है वह भी इसमें नहीं प्राप्त होती। उनकी अन्य रचनाओं में एक प्रकार की स्निग्धता और चलतापन दिखाई पड़ता है। उनका शब्द-चयन भी सरल और प्रचलित है। जैसे-"संसार के जीवों की कैसी विलक्षण रुचि है। कोई नेम धर्म में चूर है, कोई ज्ञान के ध्यान में मस्त है, कोई मतमतांवर के झगड़े में मतवाला हो रहा है। हर एक दूसरे को दोष देता है अपने को अच्छा समझता है। कोई संसार को ही सर्वस्व मानकर परमार्थ से चिढ़ता है। कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका परमार्थ को ही परम पुरुषार्थ मानकर घर बार तृण सा छोड़ देता है। अपने अपने रंग में सब रंगे हैं, जिसने जो सिद्धांत कर लिया कर लिया है, वही उसके जो में गड़ रहा है और उसी के खंडन मंडन में वह जन्म बिताता है।" यही उनकी वास्तविक शैली है। भाषा का कितना परिमार्जित और व्यवस्थित रूप है। इसी में मध्यम मार्ग का अवलंबन स्पष्टतः लक्षित होता है। इसमें भाषा का प्रौढ़ रूप है, वाक्य-रचना भली भाँति गढ़ी हुई और मुहावरेदार है। इसमें प्राकर्षण भी है और चलतापन भी। छोटे छोटे वाक्यों में कितनी शक्ति होती है इसका पता इस उद्धरण से स्पष्ट लग जाता है। अब हमें साधारण रीति से यह विचार करना है कि उनका भाव-शैली के विकास में कितना हाथ है। कुछ लोगों का यह कहना कि उन्होंने जन साधारण की रुचि एकदम उर्दू की ओर से हटाकर हिंदी की ओर प्रेरित कर दी थी अंशतः भ्रामक है, क्योंकि उन्होंने 'एकदम' नहीं हटाया। सम्यक विवेचन करने पर यही कहना पड़ता है कि उन्होंने किसी भाषा विशेष का तिरस्कार मध्यम मार्ग का अवलंबन करने पर भी नहीं किया। उन्होंने यही किया कि परिमार्जन एवं शुद्धि करके दूसरे की वस्तु को अपनी बना ली। इसमें वे विशेष कुशल और समर्थ थे। उनके गद्य की एक पुष्ट नींव डालने से अपने आप ही लोगों की प्रवृत्ति राजा शिवप्रसादजी की अरबी फ़ारसी मिश्रित हिंदी लेखन-प्रणालो की ओर से हट गई; और उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदी में भी वह ज्योति और जीवन वर्तमान है जो अन्यान्य जीवित भाषाओं में दृष्टिगोचर होता है। हाँ उसका ' उद्योगशील विकास एवं परिमार्जन आवश्यक है। इसके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास अतिरिक्त यह कहना कि “गद्यशैली को विषयानुसार बदलने का सामर्थ्य उनमें कम था" ध्रुव सत्य नहीं है। उनका ध्यान इस विषय विशेष की ओर था ही नहीं, अन्यथा यह कोई बड़ी बात नहीं थी। यदि वे केवल इसी के विचार में रहते तो आज ऐसा कहने का अवसर उपस्थित न होता। उनका ध्यान एक साथ इतने अधिक विषयों पर था कि सबका एक सा उतरना असंभव था। स्वभावत: जिन विषयों का प्रभो उन्हें प्रारंभ करना था अथवा जिन विषयों पर उन्होंने कम लिखा उन विषयों के उपयुक्त भाषा का सम्यक निर्धारण वे न कर सके। उनके सामने अच्छे प्रादर्श भी उपस्थित न थे। फिर अपनी रचना का वे स्वयं तुलनात्मक विवेचन करते इसका उन्हें अवसर ही न था। अतएव उन्हें इसके लिये दोषी ठहराना अन्याय है। भारतेंदुजी की गद्य-शैली एक नवीन वस्तु थी। इस समय उन्होंने भाषा का एक परिमार्जित और चलता रूप स्थिर किया था। उनका महत्त्व इसी में है कि उन्होंने गद्य-शैली को "अनिश्चितता के कर्दम से निकालकर एक निश्चित दशा में रखा। इसके लिये एक ऐसे ही शक्तिशाली लेखक की मावश्यकता थी और उसकी पूर्ति उनकी लेखनी से हुई। भारतेंदु के ही जीवन-काल में कई विषयों पर लिखना प्रारंभ हो चुका था। उनके समय तक इतिहास, भूगोल, विज्ञान, वेदांत इत्यादि आवश्यक विषयों के कतिपय ग्रंथों का निर्माण भी हो चुका था। अनेक पत्र पत्रिकाएँ भी प्रकाशित हो रही थीं। उत्तरी भारत में हिंदी का प्रसार दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा था। यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण था कि अब २९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका हिंदी भाषा की व्यापकता बढ़ती जा रही थी। उसमें बल पा रहा था। भाव-प्रकाशन में शब्दों की न्यूनता दिन पर दिन दूर होती जा रही थी; किसी भी विषय और ज्ञान विशेष पर लिखते समय भाव-व्यंजन में ऐसी कोई अड़चन नहीं उत्पन्न होती थी जिसका दोष भाषा की निर्बलता को दिया जा सकता। इस समय तक लोगों ने अनेक स्वतंत्र विषयों पर लिखना प्रारंभ कर दिया था। उन्हें आधार विशेष की कोई अावश्यकता न रह गई थी। बाबू हरिश्चंद्र ने भाषा का रूप स्थिर कर दिया था। अब भाषा और गद्य साहित्य के विकास को आवश्यकता थी। ज्ञान का उदय हो चुका था, अब उसे परिचित रूप में लाना रह गया था। इस कार्य का संपादन करने के लिये एक दल भारतेंदुजी की उपस्थिति में ही उत्पन्न हो चुका था । पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित बदरीनारायण चौधरी, पंडित प्रतापनारायण मिश्र, लाला श्रीनिवासदास, ठाकुर जगमोहनसिंह प्रभृति लेखक साहित्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुके थे। उस समय के अधिकांश लेखक किसी न किसी पत्र-पत्रिका का संपादन कर रहे थे। इन पत्र. पत्रिकाओं और इन लेखकों की प्रतिभाशाली रचनाओं से भाषा में सजीवता और प्रौढ़ता आने लगी थी। उस समय जितने लेखक लिख रहे थे उनमें कुछ न कुछ शैली विषयक विशेषता स्पष्ट दिखाई पड़ती थी। यो तो सभी विषयों पर कुछ न कुछ लिखा जा रहा था। परंतु निबंध-रचना का स्वच्छ और परिष्कृत रूप भट्टजी तथा मिश्रजी ने उपस्थित किया। छोटे छोटे विषयों पर अपने स्वतंत्र विचार इन लोगों ने लिपिबद्ध किए। इस प्रकार निबंध-रचना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालकृष्ण भट्ट हिंदी की गद्य-शैली का विकास २१६ का भी हिंदी गद्य में समारंभ हुआ। इन लोगों के निबंध वास्तव में निबंध की कोटि में आते हैं। पर अभी तक उनमें वैयक्तिक अनुभूति की सम्यक व्यंजना नहीं होती थी। यह प्रारंभिक काल था अतः पुष्टता का प्रभाव रहना स्वाभाविक ही था। रचना का यह प्रकार उत्तरोत्तर वृद्धि पाता गया और अविरत रूप में आज तक चला पा रहा है। क्रमश: अनुभूति, व्यंजन और तर्क का समुन्नय हुआ। जिस समय पंडित बालकृष्ण भट्ट ने लिखना प्रारंभ किया था उस समय तक लेखन-प्रणाली में तीन प्रकार की भाषाओं का उपयोग होता था-एक तो वह जिसके ' प्रवर्तक राजा शिवप्रसादजी थे और जिसमें उर्दू शब्द तत्सम रूप में ही प्रयुक्त होते थे; दूसरा वह जिसमें अन्य भाषाओं के शब्दों का संपूर्ण बहिष्कार ही सभीचीन माना जाता था और जिसके उन्नायक राजा लक्ष्मणसिंह थे; तीसरा रूप वह था जिसका निर्माण भारतेंदुजी ने किया और जिसमें मध्यम मार्ग का अवलंबन किया जाता था। इसमें 'शब्द तो उर्दू के भी लिए जाते थे परंतु वे या तो बहुत चलते होते थे या विकृत होकर हिंदी बने हुए। भट्टजी उर्द शब्दों का प्रयोग प्रायः करते थे और वह भी तत्सम रूप में। ऐसी अवस्था में हम उन्हें शुद्धिवादियों में स्थान नहीं दे सकते । कहीं कहीं तो वे हमें राजा शिवप्रसाद के रूप में मिलते हैं। जैसे "मृतक के लिये लोग हज़ारों लाखों खर्च कर आलीशान रोजे मकबरे कब्र संगमर्मर या संगमूसा की बनवा देते हैं, कोमती पत्थर माणिक ज़मुरंद से उन्हें पारास्ता करते हैं पर वे मकबरे क्या उसकी रूह को उतनी राहत पहुँचा सकते हैं जितनी उसके दोस्त आँसू टपकाकर पहुँचाते हैं ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उन्हें भाषा को व्यापक बनाने की विशेष चिंता थी। यह बात उनकी रचनाओं को देखने से स्पष्ट प्रकट होती है। अँगरेजो राज्य के साथ साथ अँगरेजी सभ्यता और भाषा का प्राबल्य बढ़ता ही जाता था। उस समय एक नवीन समाज उत्पन्न हो रहा था। अतएव एक ओर तो हिंदी शब्दकोश की अव्यावहारिकता और दूसरी ओर नवीन भावों के प्रकाशन की आवश्यकता ने उन्हें यहाँ तक उत्साहित किया कि स्थान स्थान पर वे भावद्योतन की सुगमता के विचार से अँगरेजी के शब्द ही उठाकर रख देते थे, जैसे Character, Feeling, Philosophy, Speech आदि। यहीं तक नहीं, कभी कभी शीर्षक तक अँगरेजी के दे देते थे। इसके अतिरिक्त उनकी रचना में स्थान स्थान पर पूर्वी ढंग के 'समझाय, बुझाय' आदि प्रयोग तथा 'अधिकाई' जैसे रूप भी दिखाई पड़ते हैं। इस समय के प्रायः सभी लेखकों में एक बात सामान्य रूप में पाई जाती है। वह यह कि सभी की शैलियों में उनके व्यक्तित्व की छाप मिलती है। पंडित प्रतापनारायण मिश्र और भट्टजी में यह बात विशेष रूप से थी। उनके शीर्षको और भाषा की भावभंगी से ही स्पष्ट हो जाता है कि यह उन्हीं की लेखनी है। भट्टजी की भाषा में मिश्रजी की भाषा की अपेक्षा नागरिकता की मात्रा कहीं अधिक पाई जाती है। उनकी 'हिंदी भी अपनी ही हिंदी थी। इसमें बड़ी रोचकता एवं सजीवता थी। कहीं भी मिश्रजी की प्रामीणता की झलक उसमें नहीं मिलती। उनका वायुमंडल साहित्यिक था। विषय और भाषा से संस्कृति टपकती है। मुहावरों का बहुत ही मुंदर प्रयोग हुआ है। स्थान स्थान पर मुहावरों की लड़ो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२१ सी गुथी दिखाई पड़ती है। इन सब बातों का प्रभाव यह पड़ा कि भाषा में कांति, अोज और आकर्षण उत्पन्न हो गया। __ उनके विषय-चयन में भी विशेषता थी। साधारण विषयों पर भी इन्होंने सुंदर लेख लिखे हैं, जैसे कान, नाक, अाँख, बातचीत इत्यादि। इनकी गृहीत शैली का अच्छा उदाहरण इनके इन लेखों में पाया जाता है। भाषा में दृढ़ता की मात्रा दिखाई पड़ती है। मुहावरों के सुंदर प्रयोग से एक गठन विशेष उत्पन्न हो गई है, जैसे "वही हमारी साधारण बातचीत का ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि का कोई मौका है, न लोगों के कहकहे उड़ाने की कोई बात उसमें रहती है। हम तुम दो प्रादमी प्रेमपूर्वक संलाप कर रहे हैं। कोई चुटीली बात आ गई हँस पड़े तो मुसकुराहट से ओठों का केवल फरक उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य अपने सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का एक ढंग है। इसमें स्पीच की वह सब संजीदगी बेक़दर हो धक्के खाती फिरती है।" __इसके अतिरिक्त भट्टजी उस गद्य काव्य के निर्माता हैं जिसका प्रचार प्राजकल बढ़ रहा है। किसी किसी विषय को लेकर पद्यात्मक प्रणाली से गद्य में लिखना आजकल साधारण बात है। परंतु उस समय इस प्रकार लिखने में अधिक विचार करने और बना बनाकर लिखने में समय लगता रहा होगा। भट्टजी ने इस प्रकार के पद्यात्मक गधों की भी भावपूर्ण रचना की है। इस प्रकार की रचनाओं में काल्पनिक विचारशैली की अत्यंत प्रावश्यकता पड़ती है। पर कल्पना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका की दौड़ में भी हम भट्टजी को किसी से पोछे नहीं देखते । उनके 'चंद्रोदय' और 'आँसू' वाले लेख इसके प्रमाण हैं। जैसे कुई की कलियों को विकसित करते, मृगनयनियों के मान को समूल उन्मीलित करते, छिटकी हुई चाँदनी से दशों दिशाओं को धवलित करते, अन्धकार को निकालते, सीढ़ी पर सीढ़ी शिखर के समान आकाशरूपी विशाल पर्वत के मध्य भाग में चढ़ा चला आ रहा है। आपा-तमस्फाणु का हटानेवाला यह चंद्रमा ऐसा मालूम होता है मानो आकाश महासरोवर में श्वेत कमल खिल रहा है। उसमें बीच बीच जो कलंक की कालिमा है सो मानो भौरे गूंज रहे हैं। इस प्रकार की भाषा सामान्य भाषा नहीं कही जा सकती, यह उस का गढ़ा हुआ रूप है, अतः विचारवर्द्धक और व्यावहारिक नहीं है। इस प्रकार की रचना के अतिरिक्त इन्होंने भावात्मक लेख भी लिखे हैं; जैसे 'कल्पना', 'आत्मनिर्भरता' आदि। इस प्रकार के लेखों में इनकी भाषा संयत एवं सुंदर हुई है। साधारणतः देखने से इनकी प्रबंध-कल्पना बड़ो ही उच्च कोटि की हुई है । भाषा मुहावरे के साथ बड़ी ही रोचक एवं आकर्षक ज्ञात होती है। यों तो इनकी रचनाओं का प्राकार उतना विस्तृत नहीं है जितना कि भारतेंदु का, पर कई अंशों में इनका कार्य नवीन ही रहा । भट्टजी का वर्णन उस समय तक समाप्त नहीं कहा जा सकता जब तक पंडित प्रतापनारायण मिश्र का भी वर्णन न हो जाय। इन दोनों व्यक्तियों ने हिंदी प्रतापनारायण मिश्र - गद्य में एक नवीन प्रायोजन उपस्थित किया था। उसका स्फुरण भी इन्हीं लोगों ने भली भाँति . किया था। मिश्रजी भी भट्टजी की भाँति अच्छे निबंध-लेखक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२३ कहे जा सकते हैं। इन्होंने भी 'बात', 'वृद्ध', 'भौं', 'दाँत' इत्यादि साधारण और व्यावहारिक विषयों पर स्वच्छंद विचार किया है। इस प्रकार के विषयों पर लिखने से बड़ा ही उपकार हुआ। नित्य व्यवहार में आनेवाली वस्तुओं पर भी कुछ तथ्य की बाते कही जा सकती हैं, इसका बड़ा ही सुंदर और आदर्श रूप इन छोटे छोटे निबंधों से प्राप्त होता है। उनके इस प्रकार के विषयों पर अधिक लिखने से कुछ लोगों की यह धारणा कि 'उनकी प्रतिभा केवल सुगम साहित्य की रचना में ही प्राबद्ध रही और उसे अपने समय के साहित्यिक धरातल से ऊँचे उठने का कम अवकाश मिला' नितांत भ्रमात्मक है; क्योंकि 'मनोयोग', 'स्वार्थ' ऐसे भावात्मक विषयों पर विचारपूर्ण विवेचन करना साधारण बात न थी। यह दूसरी बात है कि इन विषयों पर उन्होंने इतना अधिक न लिखा हो अथवा उतनी भावुक व्यंजना न की हो जितनी कि भट्टजी ने की है। परंतु जो कुछ उन्होंने लिखा है अच्छा लिखा है, इसमें कोई संदेह नहीं । हमें उनकी लेखन-प्रणाली में एक विशेष चमत्कार मिलता है। संभव है जिसे लोग 'विदग्ध साहित्य' कहते हैं उसका निर्माण उन्होंने न किया हो परंतु उनकी लेखनी के साथ साधारण समाज की रुचि अवश्य थी। उनके लेखों में उनकी निजी छाया सदैव रही है। जैसा उनका स्वभाव था वैसा ही उनका विषय-निर्वाचन भी था। इसके अतिरिक्त उनकी रचना में प्रात्मीयता का भाव अधिक मात्रा में रहता था। साधारण विषय को सरल रूप में रखकर वे सुननेवाले का विश्वास अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। अभी तक हिंदी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका पढ़नेवालों के समाज का सम्यक् प्रसार नहीं हुआ था। उनकी लेखनी के हँसमुख स्वभाव ने एक नवीन..पाठक-समूह उत्पन्न किया। उन्होंने भट्टजी के साथ हाथ मिलाकर एक साधारण और व्यावहारिक साहित्य का आविष्कार कर यह दिखला दिया कि भाषा केवल विचारशील विषयों के प्रतिपादन एवं आलोचन के लिये ही नहीं है, वरन् उसमें नित्य के व्यवहृत विषयों पर भी आकर्षक रूप में विवेचन संभव है। भट्टजी के विचारों में इनके विचारों से एक विषय में घोर विभिन्नता थी। भट्टजी ने भारतेंदु की भाँति नागर साहित्य का निर्माण किया। परंतु ये साधारण जन-समुदाय को नहीं छोड़ना चाहते थे। इस धारणा के निर्वाह के विचार से इन्हें अपने भाव-प्रकाशन के ढंग में भी परिवर्तन करना पड़ा, दिहाती भाषा एवं मुहावरों को भी अपनी रचना में स्थान देना पड़ा। इन प्रयोगों के कारण कहीं कहीं पर अशिष्टता और ग्रामीणता भी आ गई है। पर मिश्रजी अपने उद्देश्य की पूर्ति के सामने इस पर कभी ध्यान ही न देते थे। यों तो इनकी भाषा साधारण मुहावरों के बल पर ही चलती थी। इन मुहावरों के प्रयोग से चमत्कार का अच्छा समा. वेश हुमा है। कहीं कहीं तो इनकी झड़ी लग गई है। इसका प्रमाण हमें इस अवतरण में भली भाँति मिलता है"डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात पा पड़ती है, बात जाती रहती है, बात जमती है, बात उखड़ती है, बात खुखती है, बात छिपती है, बात चलती है, बात अड़ती है, हमारे तुम्हारे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२५ भी सभी काम बात ही पर निर्भर हैं। बात ही हाथी पाइए बातहि हाथी पाँव। बात ही से पराए अपने और अपने पराए हो जाते हैं।" भाषा में मुहावरों का प्रयोग करना तो एक ओर रहा, लेखों के शीर्षक तक पूरे पूरे मुहावरों ही में होते थे। जैसे 'किस पर्व में किसकी बन पाती है', 'मरे का मार शाह मदार', इत्यादि। इनकी भाषा का रूप बड़ा अस्थिर था। अपने समय तक की प्रतिष्ठित भाषा का भी ये अनुसरण न कर सके। इस विचार से इनकी शैली बहुत पिछड़ो रह गई। साधारणतः देखने पर इनकी भाषा में पंडिताऊपन और पूरबीपन झलकता है। 'प्रानंद लाभ करता है' 'वनाओगे' 'तो भी' 'बात रही' (थी) 'शरीर भरे की' 'चाय की सहाय से' 'कहाँ तक कहिए' 'हैं के जने' इत्यादि से भाषा में व्यवस्था एवं परिमार्जन की न्यूनता सूचित होती है। इसके अतिरिक्त इनकी रचना में विराम आदि चिह्नों का प्रभाव है। इससे शैली में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है। स्थान स्थान पर तो भाव भी विक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। पढ़ते पढ़ते रुकना पड़ता है। भाव के समझने में बड़ी उलझन उपस्थित हो जाती है। जो विचार विराम आदि चिह्नों के प्रयोग से पाठ्य-सरल बनाए जा सकते हैं वे भी उनकी अनुपस्थिति के कारण अस्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। मिश्रजी के समय तक इन विषयों की कमी नहीं रह गई थी। शैली में स्थिरता एवं परिपकता पा चली थी। ऐसी अवस्था में भी इनकी भाषा बड़ी अव्यवस्थित और पुरानी ही रह गई है। जैसे-"पर केवल इन्हीं के तक में दूसरे को कुछ नहीं, फिर क्यों इनकी निंदा की जाय ?" यह वाक्य बिल्कुल अस्पष्ट है। २६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ___ भाषा संबंधी इन त्रुटियों के अतिरिक्त व्याकरण संबंधी भूलें इन्होंने बहुत की हैं। इनकी रचना से व्याकरण की अस्थिरता स्पष्ट झलकती है। 'जात्याभिमान' 'उपरोक्त' 'पाँच सात घरस में 'भाषा इत्यादि सभी निर्जीव से हो रहे हैं' इत्यादि भूलें इनकी रचना में साधारणत: पाई जाती हैं। 'प्रकिल का (के) कारण' 'ई' ( हैं ही ) 'के' (कर) 'मुख के (से) एक वार' इत्यादि असुविधाजनक प्रयोग भी अधिकता से मिलते हैं। इन न्यूनताओं के कारण इनकी भाषा त्रुटिपूर्ण एवं शिथिल रह गई है। परंतु इतना सब होते हुए भी उसमें जो कहने का आकर्षक ढंग है वह बड़ा ही मनोहर ज्ञात होता है, उसमें एक विचित्र बाँकापन मिलता है जो दूसरे लेखकों में नहीं मिलता। इनकी रचना में भट्टजी की भाँति वैयक्तिक छाप स्पष्ट दिखाई पड़ती है। साधारण रूप में भाषा में बड़ी रोचकता है। ___'यदि सचमुच हिदी का प्रचार चाहते हो तो आपस के जितने कागज पत्तर लेखा जोखा टीप तमस्सुक हैं। सबमें नागरी लिखी जाने का उद्योग करो। जिन हिंदुओं के यहाँ मौलवी साहब बिसमिल्लाह कराते हैं उनके पंडितों से अक्षरारंभ कराने का उपकार करो चाहे कोई हँसे चाहे धमकावै जो हो सो हो तुम मनसा वाचा कर्मणा उर्दू की लुलू देने में सबद्ध हो इधर सरकार से भी झगड़े खुशामद करो दति निकालो पेट दिखानो मेमोरियल भेजो एक बार दुतकारे जाओ फिर धन्ने धरो किसी भांति हतोत्साह न हो हिम्मत न हारो जो मनसाराम कचियाने लगें तो यह मंत्र सुना दो......बस फिर देखना पाँच सात बरस में फारसी छार सी उड़ जायगी। नहीं तो होता तो परमेश्वर के किए है हम सदा यही कहा करेंगे "पीसें का चुकरा पा का छीता हरन" "घूरे के लत्ता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२७ बिनै कनातन का डौल बाँधै" हमारी भी कोई सुनैगा ? देखें कौन माई का लाल पहले सिर उठाता है ? इस प्रकार की भाषा मिश्रजो अपनी उन रचना में नहीं प्रयुक्त करते थे जो अधिक विवेचनापूर्ण होती थीं। विरामादि चिह्नों का तथा भावभंगी का तो वही रूप रहता था पर शब्दावली में अंतर होता था। इसके अतिरिक्त भाषा भी भाव के अनुकूल बनकर संयत एवं गंभीर हो जाती थी। . "अकस्मात् जहाँ पढ़ने लिखने आदि में कष्ट सहते हो वहाँ मन को सुयोग्य बनाने में भी त्रुटि न करो, ना चेत् दिव्य जीवन लाभ करने में अयोग्य रह जाओगे। इससे सब कर्तव्यों की भांति उपयुक्त विचार का अभ्यास करते रहना मुख्य कार्य समझो तो थोड़े ही दिनों में मन तुम्हारा मित्र बन जायगा और सर्व काल उत्तम पथ में विचरण करने तथा उत्साहित रहने का उसे स्वभाव पड़ जायगा, तथा दैवयोग से यदि कोई विशेष खेद का कारण उपस्थित होगा जिसे नित्य के अभ्यास उपाय दूर न कर सकें उस दशा में भी इतनी घबराहट तो उपयोगी नहीं जितनी अनभ्यासियों की होती है क्योंकि विचार शक्ति इतना अवश्य समझा देगी कि सुख दुःख सदा अाया ही जाया करते हैं।" _ भारतेंदु के प्रयास एवं भट्टजी के तथा मिश्रजी के सतत उद्योग से हिंदी का गद्य साहित्य बलिष्ठ हो चला था। उसमें . परिपक्कता का प्राभास आने लगा था, बदरीनारायण चौधरी " भिन्न प्रकार के विषयों का दिग्दर्शन होने 'प्रेमघन' खगा था। इस समय के गद्य की अवस्था उस पक्षि-शावक के समान थी जो अभी स्फुरण शक्ति का संचय कर रहा हो। इसी समय 'प्रेमघना जी ने एक नवीन रूप धारण किया। भाषा में बल्ल पा ही रहा था। इन्होंने उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका बल को दिखाना प्रारंभ किया। भाषा को सानुप्रास बनाने का बीड़ा उठाना, उसमें अलौकिकता उपस्थित करने का प्रयत्न करना, उसको स्वच्छ और दिव्य बनाए रखने की साधना करना 'प्रेमधन' ही का कार्य था। इसका प्रभाव उनकी भाषा पर यह पड़ा कि वह दुरूह और अव्यावहारिक बनने लगी। अभी इतनी उन्नति होने पर भी भाषा का इतना अच्छा परिमार्जन नहीं हुआ था कि उसमें जटिलता और विद्वत्ता दिखाने का सफल प्रयास किया जा सकता। बड़े बड़े वाक्य लिखना बुरा नहों। परंतु इनके वाक्यों का प्रस्तार तथा तात्पर्य-बोधन बड़ा दुरूह होता था। कहीं कहीं तो वाक्यों की दुरूहता एवं लंबाई से जी ऊब उठता है। उनमें से एक प्रकार की रुखाई उत्पन्न हो पड़ती है। उनकी यह वाक्य-विशालता केवल गद्य वाक्यात्मक प्रबंधों में ही नहीं प्राबद्ध रहती थी वरन् साधारण रचनाओं और भूमिका-लेखन तक में भी दिखाई पड़ती है। जैसे__"प्रयाग की बीती युक्त प्रांतीय महाप्रदर्शिनी के सुबृहत् आयोजन और उसके समारंभोत्कर्ष के आख्यान का प्रयोजन नहीं है, क्योंकि वह स्वत: विश्वविख्यात है। उसमें सहृदय दर्शकों के मनोरंजन और कुतूहलवर्धनार्थ जहाँ अन्य अनेक अद्भुत और अनोखी क्रीड़ा, कौतुक और विनोद के सामग्रियों के प्रस्तुत करने का प्रबंध किया गया था, स्थानिक सुप्रसिद्ध प्राचीन घटनाओं का ऐतिहासिक दृश्य दिखाना भी निश्चित हुश्रा और उसके प्रबंध का भार नाट्यकला में परम प्रवीण प्रयाग युनिवर्सिटी के ला कालेज के प्रिंसिपल श्रीयुत मिस्टर आर० के० सोराबजी एम० ए० बैरिस्टर-ऐट-ला को सौंपा गया, जिन्होंने अनेक प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटनाओं को छाँट और उन्हें एक रूपक के रूप में ला सुविशाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २२६ समारोह के सहित उनकी लीला ( पेजेंट) दिखाने के अभिप्राय से कथा प्रबंध रचना में कुछ भाग का तो स्वयं निर्माण करना एवं कुछ में औरों से सहायता लेनी स्थिर कर उनपर उसका भार अर्पण किया।" । जिस समय बड़हर की रानी का कोर्ट आफ वास छूटा था उसका समाचार इन्होंने यो प्रकाशित किया था___ "दिव्य देवी श्रीमहारानी बड़हर लाख झंझट झेल और चिर काल पर्यंत बड़े बड़े उद्योग आर मेल से दुःख के दिन सकेल अचल 'कोर्ट' का पहाड़ ढकेल फिर गद्दी पर बैठ गई। ईश्वर का भी कैसा खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुःख की रेल पेल और कभी उसी पर सुख की कबोल है।" कितनी साधारण सी बात थी परंतु उसका इतना तूल इस प्रकार की रचना में संभव है। यह स्पष्ट ही ज्ञात होता है कि भाषा हथौड़ा लेकर बड़ी देर तक गढ़ी गई है। लिखनेवाले का अभ्यास बढ़ जाने पर इस प्रकार भाव प्रकाशन में उसे विशेष असुविधा तो नहीं रह जाती, परंतु उसकी रचना साधारणतः अव्यावहारिक सी हो जाती है। चौधरीजी की भाषा इस विषय में प्रमाण मानी जा सकती है। भारतेंदु की चमत्कार रहित एवं व्यावहारिक शैली के ठीक विपरीत यह शैली है। इसमें चमत्कार एवं प्रालंकारिकता का विशेष भाग पाया जाता है। किसी साधारण विषय को भी बढ़ा चढ़ाकर लिखना इसमें अभीष्ट होता है। इस प्रकार इसकी स्वाभाविकता का क्रमागत हास होता है और चलतापन नष्ट हो जाता है। ___ यो तो प्रेमघनजी की रचना में भी "पान पड़ा', 'कराकर' 'ती भी' इत्यादि मिलता है परंतु भाषा का जितना पुष्ट रूप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उसमें दिखाई पड़ता है वह स्तुत्य है । उन्होंने भाषा को काव्योचित बनाने में सोद्देश्य चेष्टा की। इसके अतिरिक्त कभी कभी अवसर पड़ने पर उन्होंने पालोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। इन्हीं लेखों को हम आलोचनात्मक साहित्य का एक प्रकार से प्रारंभ कह सकते हैं। यों तो उन लेखों की भाषा आलोचना की भाषा नहीं होती थी फिर भी उनमें विषय विशेष का प्रवेश मिलता है। धीरे धीरे उर्दू की तत्समता का ह्रास और संस्कृत की तत्समता का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। पंडित बदरीनारायण चौधरी की रचना में उर्दू की संतोषश्रीनिवासदास - जनक कमी थी परंतु लाला श्रीनिवासदास में उर्दू तत्समता भी अच्छी मिलती है। इस कथन का वात्पर्य यह कदापि नहीं है कि राजा शिवप्रसादजी की भाँति इसमें उर्दू का प्राबल्य था। अब उर्दू ढंग की वाक्य-रचना प्रायः लुप्त हो रही थी। उर्दू शब्दों का प्रयोग भी दिन पर दिन घटता जाता था। इसके सिवा लालाजी में हमें दारंगी दुनिया नहीं दिखाई पड़ती, जैसी पंडित बालकृष्ण भट्ट की रचना में थी। इनकी भाषा संयत, सुबोध और दृढ़ थी। यों तो इनके उपन्यास-परीक्षा-गुरु-और नाटकों की भाषाओं में अंतर है, परंतु वह केवल इतना ही है कि जितना केवल विषय परिवर्तन में प्राय: हो जाता है। नाटकों की भाषा वत्कृता के अनुकूल होती थी और परीक्षा-गुरु की भाषा वर्णनात्मक हुई है। इनमें साधारणतः दिल्ली की प्रांतिकता और पछाहीपन प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। 'इस्की' 'उस्की' और 'उस्से' ही नहीं वरन् 'किस्पर', 'इस्तरह', 'तिस्पर। ऐसे प्रयोग भी पाए जाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २३१ हैं। इनके अतिरिक्त ये 'तुम्हो' न लिखकर 'तुमही', 'ठहर' न लिखकर 'ठेर' आदि अधिक लिखा करते थे। विभक्तियों का प्रयोग भी प्रांतिकता से पूर्ण होता था। जैसे-'सै' (से) 'मैं' (में) इत्यादि। इसके उपरांत 'करै 'देखे पर भी' 'रहेंगे' 'जाँती' 'तहाँ' ( वहाँ) 'सुनें' इत्यादि ब्रज के रूप भी स्थान स्थान पर प्राप्त होते हैं। '' और 'ब' के उपयोग का तो इन्हें कुछ विचार ही न था । किसी किसी शब्द को भी ये शायद भ्रमवश अशुद्ध ही लिखा करते थे। जैसे 'धैर्य के लिये 'धीर्य या धीर्य' तथा 'शांत' के अर्थ में 'शांति' का प्रयोग प्रचुरता से करते थे। इसके अतिरिक्त व्याकरण संबंधी साधारण भूलों का होना तो उस समय की एक विशेषता थी। जैसे "पृथ्वीराज-(संयोगिता से) प्यारी! ..तुम ही मेरा वैभव और तुमही मेरे सर्वस्व हो।" "छत्तीस वर्ष में," ऐसे प्रयोग स्थान स्थान पर बराबर मिलते हैं। इन सब त्रुटियों के रहते हुए भी भाषा में संयम दिखाई पड़ता है। परिमार्जन का सुंदर रूप मिलता है। न उछल कूद रहती है और न भद्दा चमत्कार ही। सीधा साधा व्यावहारिक रूप ही प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार की भाषा में उच्च विचारों का भी निदर्शन हो सकता है और सामान्य विषयों का भी। जैसे___"अब इन वृत्तियों में से जिस वृत्ति के अनुसार मनुष्य करे वह उसी मेल में गिना जाता है। यदि धर्म प्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य अच्छा समझा जायगा और निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य नीच गिना जायगा और इस रीति से भले बुरे मनुष्यों की परीक्षा समय पाकर अपने आप हो जायगी, बल्कि अपनी वृत्तियों को पहचान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कर मनुष्य अपनी परीक्षा भी श्राप कर सकेगा । राजपाट, धन दौलत, विद्या स्वरूप वंश मर्यादा से भले बुरे मनुष्य की परीक्षा नहीं हो सकती । " जगमोहन सिंह "पृथ्वीराज - ( प्रीति से संयोगिता की ओर देखकर ) मेरे नयनों के तारे, मेरे हिए के हार, मेरे शरीर का चंदन, मेरे प्राणाधार इस समय इस लोकाचार से क्या प्रयोजन है ? जैसे परस्पर के मिलाप में मोतियों के हार भी हृदय के भार मालूम होते हैं, इसी तरह ये लोकाचार भी इस समय मेरे व्याकुल हृदय पर कठिन प्रहार हैं । प्यारी ! रक्षा करो अब तक तो तुमारे नयनों की बाण-वर्षा से छिनकवच हो मैंने अपने घायल हृदय को सम्हाला पर अब नहीं सम्हाला जाता ।" इस समय के गद्य साहित्य का सुंदर उदाहरण ठाकुर जगमोहनसिंह जी की रचनाओं में प्राप्त होता है । ठाकुर साहब हिंदी साहित्य के अतिरिक्त संस्कृत एवं अँगरेजी भाषा के भी प्रच्छे जानकार थे । इसकी छाप उनकी लेखनी से स्पष्ट झलकती है । उनकी रचनाओं में न तो पंडित प्रतापनारायण की भाँति विरामादि चिह्नों की अव्यवस्था मिलती है और न लाला श्रीनिवासदास की भाँति मिश्रित भाषा एवं शब्दों के अनियंत्रित रूप ही मिलते हैं । यों तो 'शाक्षी' 'तुम्हें समर्पित है, 'जिसे दूँ' 'हम क्या करें' ' चाहती है' और 'घरे हैं' इत्यादि पूर्वी रूप मिलते हैं परंतु फिर भी भाषा का जितना बोधगम्य, स्वाभाविक, तथा परिष्कृत परिमाण हमें इनकी रचनाओं में प्राप्त होता है उतना साधारणतः सामान्य लेखकों में नहीं मिलता । ठाकुर साहब भी स्थान स्थान पर ठीक वैसी ही गद्य काव्यात्मक भाषा का उपयोग करते थे जैसी कि हमें भट्टजी की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat .. www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३३ रचना में प्राप्त हुई थी। शैली के विचार से इनकी लेखनप्रणाली स्पष्ट और अलंकृत होती थो परंतु उसमें 'प्रेमघन' की उलझनवाली वाक्य-रचना नहीं रहती थी। उनकी शैली में तड़क भड़क न होते हुए भी चमत्कार और अनोखापन है जो केवल उन्हीं की वस्तु कही जा सकती है। उसमें एक व्यक्तित्व विशेष की झलक पाई जाती है। संस्कृत-ज्ञान का उपयोग नन्होंने अपने शब्द-चयन में किया है। शब्दों की सुंदर सजावट से उनकी भाषा में कांति आ गई है। इस कांति के साथ मधुरता एवं संस्कृति का सामंजस्य है। जैसे “जहाँ के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना बदन रगड़ रगड़कर खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरमित करता है मंजु वंजुलकी लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्ते ऐसे घने कि सूर्य के किरणों को भी नहीं निकलने देते इस नदी के तट पर शोभित हैं। ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पलों की झाड़ियों और मनोहर पहाड़ियों के बीच होकर बहती हैं, कंकगृद्ध नामक पर्वत से निकलकर अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से, बहुत से तीर्थों और नगरों को अपने पुण्य जल से पावन करती पूर्व समुद्र में गिरती है।" ___"लो......वह श्यामलता थी, यह उसी लता मंडप के मेरे मानसरोवर की श्यामा सरोजिनी है, इसका पात्र और कोई नहीं जिसे दूं: हाँ एक भूल हुई कि श्यामा-स्वप्न एक 'प्रेमपात्र' को अर्पित किया गया। पर यदि तुम ध्यान देकर देखो तो वास्तव में भूल नहीं हुई। हम क्या करें तुम आप चाहती है। कि ढोल पिटै; आदि ही से तुमने गुप्तता की रीति एक भी नहीं निबाही, हमारा दोष नहीं तुम्ही विचारो मन चाहे तो अपनी 'तहरीर' और 'एकबाल' देख लो दफर के दफर ३० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका मिसिलबंदी होकर घेरे हैं, अपने कहकर बदल जाने की रीति अधिक थी इसलिए 'प्रेमपात्र' को स्वप्न समर्पित कर शाक्षी बनाया, अब कैसे बदलोगी!" __ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के बाल्यकाल में ही प्रार्य-समाज के प्रचार ने हिंदी की गद्य शैली में कई आवश्यक परिवर्तन किए। 1. वास्तव में गद्य के विकास के लिये यह आर्य-समाज और 'पावश्यक होता है कि उसमें इतना बल स्वामी दयानंद श्रा जाय कि वाद-विवाद भली भाँति हो सके, विषय का सम्यक् प्रतिपादन हो सके। यह उसी समय संभव है जब कि भाषा में बल का संचार व्यापक रूप से होने लगे। वाद-विवाद का ही विशद रूप व्याख्यान है, उसमें वादविवाद का मननशील एवं संयत प्राभास रहता है। किसी विषय का सम्यक गवेषण करने के उपरांत बलिष्ठ और स्पष्ट भाषा में जो विचार-धारा निःसृत होती है उसी का नाम है व्याख्यान । इस धर्म विचार को व्यापक बनाने के लिये जो व्याख्यानों और वक्तृताओं की धूम मची उससे हिंदी गद्य को बड़ा प्रोत्साहन मिला। इस धार्मिक आंदोलन के कारण सारे उत्तरी भारत में हिंदी का प्रसार हुआ। इसका कारण यह था कि आर्य-समाज के प्रतिष्ठापक स्वामी दयानंदजी ने, गुजराती होने पर भी, हिंदी का ही आश्रय लिया था। इस चुनाव का कारण हिंदी की व्यापकता थी। अस्तु हिंदी के प्रचार के अतिरिक्त जो प्रभाव गद्य शैली पर पड़ा वह अधिक विचारणीय है। व्याख्यान अथवा वाद-विवाद को प्रभावशाली बनाने के लिये एक ही बात को कई बार से घुमा फिराकर कहने की भी प्रावश्यकता होती है। सुननेवालों पर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३५ इस रीति के भाव-व्यंजन का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। इस प्रकार की शैली का प्रभाव हिंदी गद्य पर भी पड़ा और यही कारण है कि गद्य की नित्य भाषा भी इस प्रकार की हो गई__ "क्या कोई दिव्यचनु इन अक्षरों की गुलाई, पंक्तियों की सुधाई और लेख की सुघड़ाई को अनुत्तम कहेगा ? क्या यही सौम्यता है कि एक सिर अाकाश पर और दूसरा सिर पाताल पर छा जाता है ? क्या यही जल्दपना है कि लिखा आलूबुखारा और पढ़ा उल्लू बिचारा, लिखा छन्नू पढ़ने में आया झब्बू । अथवा मैं इस विषय पर इतना जोर इसलिये देता हूँ कि आप लोग सोचे समझे विचारें और अपने नित्य के व्यवहार में प्रयोग में लावें। इससे आपका नैतिक जीवन सुधरेगा, आपमें परोक्ष की अनुभूति होगी और होगी देश तथा समाज की भलाई।" __ इसके अतिरिक्त गद्य शैलो में जो व्यंग भाषा का रुचिकर रूप दिखाई पड़ता है वह भी इसी धार्मिक आंदोलन का अप्रत्यक्ष परिणाम है। इस आर्य-समाज के प्रतिपादकों को जिस समय भिन्न धर्मावलंबियों से वाद-विवाद करना पड़ता था उस समय ये अपने दिली गुबारों को बड़ी मनोरंजक, आकर्षक तथा व्यंग भाषा में निकालते थे। यही नहीं, वरन् वाद-विवाद एवं वक्तृताओं के सिलसिले में ये लोग "सीधो, तीव्र और लकड़तोड़ भाषा" का प्रयोग करते थे। इन सब विशेषताओं • का प्रभाव स्पष्ट रूप से उस समय के गद्य-लेखकों पर पड़ा। बालकृष्ण भट्ट प्रभृति लेखकों की रचनाओं में व्याख्यान की भाषा का आभास प्रकट रूप में दिखाई पड़ता है। इन सब बातों के अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि नाटकों में प्रयुक्त कथोपकथन की भाषा का भी आधार यही वाद-विवाद की भाषा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका उस समय नाटक अधिक लिखे गए और उन नाटकों के कथोपकथन में जिस भाषा-शैली का प्रयोग हुआ वह यही वाद-विवाद की भाषा-शैली है। इस प्रकार यह निश्चित है कि इस समय के धार्मिक आंदोलन का जो रूप समस्त उत्तरी भारत में फैला वह हिंदी गद्य-शैलो की अभिवृद्धि का बड़ा सहायक हुआ। जिस भाषा-शैली को संयत एवं सुघड़ बनाने के लिये सैकड़ों वर्षों की आवश्यकता होती वह इस आंदोलन के उथल-पुथल में अविलंब ही सुधर गई। इसी समय गद्य संसार में पंडित गोविंदनारायण मिश्र के समान धुरंधर लेखक प्रादुर्भूत हुए। प्रभी तक गद्य साहित्य - में प्रचंड पांडित्य का प्रदर्शन किसी की गोविंदनारायण मिश्र * शैली में नहीं हुआ था। यो तो पंडित बदरीनारायण चौधरी की भाषा का रूप भी पांडित्यपूर्ण एवं गद्य-काव्यात्मक था, परंतु उनमें उतनी दीर्घ समासांत पदावली नहीं पाई जाती जितनी कि मिश्रजी की रचना में प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनमें गद्य-काव्यात्मकता की इतनी अधिकता है कि स्थान स्थान पर भावनिदर्शन अरुचिकर एवं अस्पष्ट हो गया है। अस्पष्ट वह इस विचार से हो जाता है कि वाक्य के अंत तक आते आते पाठक की स्मरण-शक्ति इतनी भाराकुल हो जाती है कि उसे वाक्यांशों अथवा वाक्यों के संबंध तक का ध्यान नहीं रह जाता। इस प्रकार की रचना केवल दर्शनीय और पठनीय ही होती है बोधगम्य नहीं। भाषा के गुण भी इसमें नहीं मिल सकते; क्योंकि इसमें न तो भावों का विनिमय सरलता से हो सकता है और न भाषा बोधगम्य ही होती है। संसार का कोई भी प्राणी इस प्रकार की भाषा में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३७ विचारों का आदान प्रदान नहीं करता। स्वतः लेखक को घंटों लग जाते हैं परंतु फिर भी वाक्यों का निर्माण नहीं हो पाता। यह बात दूसरी है कि इस प्रकार का लेखक लिखते लिखते इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसे इस विधि विशेष से वाक्य-रचना में कुशलता प्राप्त हो जाती है। परंतु इस रचना को न तो हम गद्य काव्य ही कह सकते हैं और न कथन का चमत्कारिक ढंग ही। यह तो भाषा की वास्तविक परिभाषा से कोसों दूर पड़ जाता है। भाषा की उद्बोधन शक्ति एवं उसके व्यावहारिक प्रचलन का इसमें पता ही नहीं लगता । इस प्रकार की रचना का यदि एक ही वाक्य-समूह पढ़ा जाय तो संभव है कि उसकी बाह्य आकृति पांडित्यपूर्ण और सरस ज्ञात हो, परंतु जिस समय उसके भावों के समझने का प्रयत्न किया जायगा उस समय मस्तिष्क के ऊपर इतना बोझ पड़ेगा कि थोड़े ही समय में वह थककर बैठ जायगा। परमात्मा की सदिच्छा थी कि इस प्रकार के पांडित्य प्रदर्शन एवं वाग्जाल की ओर लेखकों की प्रवृत्ति नहीं झुकी, अन्यथा भाषा का व्यावहारिक तथा बोधगम्य रूप तो नष्ट हो ही जाता, साथ ही साहित्य के विकास पर भी धक्का लगता। इस प्रकार की भावना अथवा अरुचि का विनाश भी स्वाभाविक ही था; क्योंकि वास्तव में जिस वस्तु का आधार सत्य पर आश्रित नहीं रहता उसका विकास हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि मिश्रजी की शैली का प्रागे विकास नहीं हो सका। मिश्रजी की रचना की एक झलक यहाँ दिखाई जाती है "जिस सुजन समाज में सहस्रों का समागम बन जाता है जहाँ पठित कोविद, कूर, सुरसिक, अरसिक, सब श्रेणी के मनुष्य मात्र का समा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका वेश है, वहीं जिस समय सुकवि, सुपंडितों के मस्तिष्क सोते के अदृश्य प्रवाह - मय प्रगल्भ प्रतिभा स्रोत से समुत्पन्न कल्पना - कबित अभिनव भाव माधुरी भरी छलकती श्रति मधुर रसीली स्रोतःस्वती उस हंसवाहिनी हिंदी सरस्वती की कवि की सुवर्ण विन्यास समुत्सुक सरस रसना रूपी सुचमत्कारी उत्स ( झरने ) से कलरव कल कलित अति सुललित प्रबल प्रवाह सा उमड़ा चला श्राता, मर्मज्ञ रसिकों को श्रवणपुटरंध्र की राह मन तक पहुँच सुधा से सरस अनुपम काव्यरस चखाता है, उस समय उपस्थित श्रोता मात्र यद्यपि छंद - बंद से स्वच्छंद समुच्चारित शब्दलहरी-प्रवाह-पुंज का सम भाव से श्रवण करते हैं परंतु उसका चमत्कार श्रानंद रसास्वादन सबको स्वभाव से नहीं होता । जिसमें जितनी योग्यता है जो जितना मर्मज्ञ है और रसज्ञ है शिक्षा से सुसंस्कृत जिसका मन जितना अधिक सर्वांगसु ंदरतासंपन्न है, जिसमें जैसी धारणा शक्ति और बुद्धि है वह तदनुसार ही उससे सारांश ग्रहण तथा रस का आस्वादन भी करता है । अपने मन की स्वच्छता, योग्यता और संपन्नता के अनुरूप ही उस चमत्कारी अपरूप रूप का चमकीला प्रतिबिंब भी उसके मन पर पड़ता है । परम वदान्य मान्यवर कवि कोविद तो सुधा - वारिद से सब पर सम भाव से खुले जी खुले हाथों सुरस बरसाते हैं, परंतु सुरसिक्क समाज पुष्प वाटिका किसी प्रांत में पतित ऊसर समान मूसरचंद मंदमति मूर्ख और अरसिकों के मनमरुस्थल पर भाग्यवश सुसंसर्ग प्रताप से निपतित उन सुधा से सरस बूँदों के भी अंतरिक्ष में ही स्वाभाविक विलीन हो जाने से बिचारे उस नवेली नव रस से भरी बरसात में भी उत्तप्त प्यासे और जैसे थे वैसे ही शुष्क नीरस पड़े धूल उड़ाते हैं । कवि कोविदों की कोमल कल्पना कलिता कमनीय कांति की छाया उनके वैसे प्रगाढ़ तमाच्छन्न मलिन सन पर कैसे पड़ सकती है ?" एक अँगरेजी भाषा के आलोचक ने डाक्टर जानसन की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास २३६ गद्य-शैली का विवेचन करते हुए लिखा है कि उसमें ऐसी भयंकरता मिलती है मानो मांस के लोथड़े बरस रहे हों। मेरा भी ठीक यही विचार मिश्रजी की शैली के संबंध में है। इनकी शैली में वाक्यों की लंबी दौड़ और तत्सम शब्दों के व्यवहार की बुरी लत के अतिरिक्त इतनी विचित्रता है कि भयंकरता आ जाती है। उपसों के अनुकूल प्रयोग से शब्दार्थों में विशिष्ट व्यंजना प्रकट होती है परंतु जब वह व्यर्थ का आडंबर बना लिया जाता है तब एक विचित्र महापन प्रकट होने लगता है। जैसे 'पंडित' 'रस' और 'ललित' के साथ 'सु', 'तुल्य' और 'उच्चरित' के साथ 'सम्' लगाकर अजनवी जानवर तैयार करने से भाषा में अस्वाभाविकता और अव्यावहारिकता बढ़ने के अतिरिक्त और कोई भलाई नहीं उत्पन्न हो सकती। इस संस्कृत की तत्सम शब्दावली तथा समासांत पदावली के बीच बीच में तद्भव शब्दों का प्रयोग करना मिश्रजी को बड़ा प्रिय लगता था। परंतु तत्समता के प्रकांड तांडव में बेचारे 'राह' 'पहुँच' 'बरसात' 'मूसरचंद' 'बूंद' आदि शब्दों की दुर्गति हो रही है। मिश्रजी सदैव 'सुचा देना 'अनेको घेर' और 'यह ही' का प्रयोग करते थे। विभक्तियों को ये केवल शब्दों के साथ मिलाकर लिखते ही भर न थे प्रत्युत उनका प्रयोग आवश्यकता से अधिक करते थे। इसके फल स्वरूप उनकी रचना शिथिल हो जाती थी। 'भाषा की प्रकृति के बदलने में' अथवा 'किसी प्रकार की हानि का होना संभव नहीं था' में यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है। 'भाषा की प्रकृति बदलने में' अथवा 'किसी प्रकार हानि होना संभव नहीं था' लिखना कुछ बुरा न होता। "तत्व निर्णय का होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० नागरीप्रचारिणी पत्रिका असंभव समझिए” में यदि 'का' विभक्ति तत्व के साथ लगा दी जाय तो भाव अधिक बोधगम्य हो जायगा । इस भाँति हम देखते हैं कि मिश्रजी की भाषा चाहे प्रानुप्रासिक होने के कारण श्रुतिमधुर भले ही लगे परंतु वास्तव में बड़ी अव्यावहारिक एवं बनावटी है। उनके एक एक वाक्य निहाई पर रखकर हथौड़े से गढ़े गए जान पड़ते हैं। इस गद्य-काव्यात्मक कही जानेवाली भाषा के अतिरिक्त मिश्रजी अपने विचार से जो साधारण भाषा लिखते थे वह भी उसी ढंग की होती थी। उसमें भी व्यावहारिकता की मात्रा न्यून ही रहती थी, उत्कृष्ट शब्दावली का प्रयोग और तद्भवता का प्रायः लोप उसमें भी रहता था। भाव-व्यंजना में भी सरलता नहीं रहती थी। डाक्टर जानसन की grand eloquent snoquipidalian phraseology का आनंद हिंदी गद्य में मिश्रजी की ही शैली में मिलता है। जब वे साधारण वादविवाद के आलोचनात्मक विषय पर भी लिखते थे उस समय भी उनकी भाषा और शैली उसी कोटि की होती थी। उनकी साधारण विचार-विवेचना के लिये भी गवेषणात्मक भाषा ही आवश्यक रहती थो। जैसे "साहित्य का परम सुदर लेख लिखनेवाला यदि व्याकरण में पूर्ण अभिज्ञ न होगा तो उससे व्याकरण की अनेकों अशुद्धियाँ अवश्य होंगी। वैसे ही उत्तम वैयाकरण व्याकरण से विशुद्ध लेख लिखने पर भी अलंकार-शास्त्रों के दूषणों से अपना पीछा नहीं छोड़ा सकता है । अलंकार-भूषित साहित्य-रचना की शैली स्वतंत्र है। इसकी अभिज्ञता उपार्जन करने के शास्त्र भिन्न हैं जिनके परमोत्तम विचार में व्याकरण का अशुद्धि-विशिष्ट लेख भी साहित्य में सर्वोत्तम माना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास जाता है। सारांश यह कि अत्यंत सुविशाल शब्दारण्य के अनेकों विभाग वर्तमान हैं उसमें एक विषय की योग्यता वा पांडित्य के लाभ करने से ही कभी कोई व्यक्ति सब विषयों में अभिज्ञ नहीं हो सकता है। परंतु अभागी हिंदी के भाग्य में इस विषय का विचार ही माना विधाता ने नहीं लिखा है। जिन महाशयों ने समाचारपत्रों में स्वनामांकित लेखों का मुद्रित कराना कर्तव्य समझा और जिनके बहुत से लेख प्रकाशित हो चुके हैं, सर्व साधारण में इस समय वे सब के सब हिंदी के भाग्य-विधाता और सब विषयों के ही सुपंडित माने जाते हैं। मैं इस भेडियाधसान को हिंदी की उन्नति के विषय में सबसे बढ़कर बाधक और भविष्य में विशेष अनिष्टोत्पादक समझता हूँ। अनधिकार चर्चा करनेवाले से बात बात में भ्रम प्रमाद संवटित होते हैं। नामी लेखकों के भ्रम से प्रशिक्षित समुदाय की ज्ञानोबति की राह में विशेष प्रतिबाधक पड़ जाते हैं। यह ही कारण है कि तत्वदर्शी विज्ञ पुरुष अपने भ्रम का परिज्ञान होते ही उसे प्रकाशित कर सर्व साधारण का परमोपकार करने में क्षणमात्र भी विलंब नहीं करते, बल्कि विलंब करने को महा पाप समझते हैं।" यह मिश्रजी की आलोचनात्मक भाषा का उदाहरण है। इसमें भी गुणवाची शब्दों एवं उपसगों की भरमार है। इसमें भी उन्होंने किसी बात को साधारण ढंग से न कहकर अपने द्रविड़ प्राणायाम का ही अवलंबन किया है। "अपने लेख छपाए" के स्थान पर "समाचारपत्रों में स्वनामांकित लेखो का मुद्रित कराना अपना कर्तव्य समझा" लिखना ही वे लिखना समझते थे। किसी विषय को साधारण रूप में कहना उन्हें बिलकुल अच्छा न लगता था। नित्य की बोलचाल में वे असाधारण शब्दावली का प्रयोग करते थे। मैं तो जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका उनसे मिलता और बात चीत करने का अवसर पाता तो सदैव उनकी बातें सचेष्ट होकर सुनता था क्योंकि मुझे इस बात का भय लगा रहता था कि कहीं कुछ समझने में भूल कर अंडबंड उत्तर न दे दूं। अस्तु, भाषा की दुरूहता तथा विचित्रता को एक ओर रखकर हमें यह मानने में कोई विवाद नहीं है कि मिश्रजी ने व्याकरण संबंधी नियमन में बड़ा उद्योग किया था। यही तो समय था जब कि लोगों का ध्यान व्याकरण के औचित्य की ओर खिंच रहा था और अपनी भाषा संबंधी बटियों पर विचार करना प्रारंभ हो रहा था। इन्होंने विभक्तियों को शब्दों के साथ मिलाकर लिखने का प्रतिपादन किया और स्वयं उसी प्रणालो का अनुसरण किया। मिश्रजी के ठीक उलटे बाबू बालमुकुंद गुप्त थे। एक ने अपने प्रखर पांडित्य का आभास अपने समासांत पड़ों और संस्कृत की प्रकांड तत्समता में झलकाया, बालमुकुद गुप्त * दूसरे ने साधारण चलते उर्दू के शब्दों को संस्कृत के व्यावहारिक तत्सम शब्दों के साथ मिलाकर अपनी उर्दूदानी की गजब बहार दिखाई। एक ने अपने वाक्यविस्तार का प्रकांड तांडव दिखाकर मस्तिष्क को मथ डाला, दूसरे ने चुभते हुए छोटे छोटे वाक्यों में अजब रोशनी घुमाई। एक ने अपने द्रविड़ प्राणायामी विधान से लोगों को व्यस्त कर दिया, दूसरे ने रचना-प्रणाली द्वारा प्रखबारी दुनिया में वह मुहावरेदानी दिखाई कि पढ़नेवालों के उभड़ते हुए दिलों में तूफानी गुदगुदी पैदा हो गई। एक को सुनकर लोगों ने कहना शुरू किया “बस करो ! बस करो।" दूसरे को सुनते. ही "क्या खूब ! भाई जीते रहो !! शाबाश !!!'' की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४३ आवाजें आने लगीं। इसका कारण केवल एक था, वह यह कि एक तो अपने को संसार से परे रखकर केवल एक शब्दमय जगत् रचना चाहता था और दूसरा वास्तविक संसार के हृदय से हृदय मिलाकर व्यावहारिक सचा का आभास देना चाहता था। गुप्तजी कई वर्षों तक उर्दू समाचारपत्र का संपादन कर चुके थे। वे उर्दू भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने भाषा को रुचिपूर्ण बनाना भली भाँति सीख लिया था। मुहावरों का सुंदर और उपयुक्त प्रयोग वे अच्छी तरह जानते थे। नित्य समाचारपत्र की चलवी भाषा लिखते लिखते इन्हें इस विषय में स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त हो गया था कि छोटे छोटे वाक्यों में किस प्रकार भावों का निदर्शन हो सकता है। बीच बीच में मुहावरों के व्यापक प्रयोग से भाषा में किस प्रकार जान डालनी होती है यह भी वे भली भाँति जानते थे। यों तो उनकी रचना में स्थान स्थान पर उर्दू की अभिज्ञता की झलक स्पष्ट पाई जाती है, पर वह किसी प्रकार आपत्तिजनक नहीं है क्योंकि पहले तो ऐसे प्रयोग कम हैं, दूसरे उनका प्रयोग बड़े सुंदर रूप में हुआ है। इनके वाक्य छोटे होने पर भी संगत और दृढ़ होते थे। उनमें विचारों का निराकरण बड़ा ही स्पष्ट बोधगम्य होता था। इन्हीं का सहारा लेकर गुप्तजी सुंदर चित्रों का मनोहर रूप अंकित करते थे। जैसे___ "शर्माजी महाराज बूटी की धुन में लगे हुए थे। सिल बट्टे से भंग रगड़ी जा रही थी। मिर्च मसाला साफ हो रहा था। बादाम इलायची के छिलके उतारे जाते थे। नागपुरी नारंगियाँ छील छील Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कर रस निकाला जाता था । इतने में देखा कि बादल उमड़ रहे हैं । इतने में चीलें नीचे उतर रही हैं, तबीअत भुरभुरा उठी । इधर घटा बहार में बहार | वायु का वेग बढ़ा, चीलें श्रदृश्य हुई, अँधेरा छाया, बूँदें गिरने लगीं । साथ ही तड़तड़ धड़धड़ होने लगी, देखो श्रोले गिर रहे हैं । प्रोले थमे, कुछ वर्षा हुई । बूटी तयार हुई, बम भोला एक लोटा भर चढ़ाई । ठीक उसी समय लालडिग्गी मिंटो ने बंग देश के भूतपूर्व छोटे लाट उडवर्न की ठीक एक ही समय कलकत्ते में यह दो आवश्यक काम हुए । भेद इतना ही था कि शिवशंभु के बरामदे के छत पर बूँदें गिरती थीं और लार्ड मिंटो के सिर या छाते पर ।" कह शर्माजी ने पर बड़े लाट मूर्ति खोली । इससे एक समय सू रुलाती है "चिंता-स्रोत दूसरी ओर फिरा । विचार श्राया कि काल अनंत है । जो बात इस समय है वह सदा न रहेगी । अच्छा भी आ सकता है। जो बात श्राज आठ आठ वही किसी दिन बड़ा आनंद उत्पन्न कर सकती है । एक दिन ऐसी ही काली रात थी । इससे भी घोर अँधेरी भादों कृष्ण अष्टमी की अर्ध रात्रि, चारों ओर घोर अंधकार-वर्षा होती थी बिजली कौंदती थी घन गरजते थे । यमुना उत्ताल तरंगों में बह रही थी । ऐसे समय में एक दृढ़ पुरुष एक सद्यजात शिशु को गोद में लिए मथुरा के कारागार से निकल रहा था—वह और कोई नहीं थे यदुवंशी महाराज वसुदेव थे और नवजात शिशु कृष्ण । वही बालक आगे कृष्ण हुआ, ब्रजप्यारा हुश्रा, उस समय की राजनीति का अधिष्ठाता हुआ । जिधर वह हुआ उधर विजय हुई | जिसके विरुद्ध हुना पराजय हुई | वही हिंदुओं का सर्वप्रधान अवतार हुआ और शिवशंभु शर्मा का इष्टदेव । वह कारागार हिंदुओं के लिये तीर्थ हुआ ।" इन अवतारों से इनकी व्यावहारिकता का पता लग जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४५ है। अपने विषय को किस प्रकार गुप्तजी छोटे छोटे परंतु शक्तिशालो वाक्यों में प्रकट करते थे। स्थान स्थान पर एक बात दुहरा दी गई है। इससे भाव-व्यंजना में दृढ़ता और विशेषता आ गई है। "जिधर वह हुआ उधर विजय हुई। जिसके विरुद्ध हुआ पराजय हुई।" यहाँ केवल एक ही वाक्य से अभीष्ट अर्थ की पूर्ति हो सकती थी; पर उस अवस्था में उसमें इतना बल संचारित न होता जितना वर्तमान रूप में है। इनकी भाषा का प्रभाव देखकर तो स्पष्ट कहना पड़ता है कि यदि गुप्तजी नाटक लिखते तो भाषा के विचार से अवश्य ही सफल रहते। कथन प्रणाली का ढंग वार्तिक है। इसके अतिरिक्त भाषा भी बड़ी परिमार्जित पाई जाती है। शैली बड़ी ही चलती और व्यावहारिक है। कहीं भी हमें ऊबड़ खाबड़ नहीं मिलता। वाक्यों का उतार चढ़ाव बिलकुल भाव के अनुकूल हुप्रा है। वास्तव में गुप्तजी की भाषा प्रौढ़ रूप की प्रतिनिधि है। उच्च विचारों का इस प्रकार छोटे छोटे मुहावरेदार वाक्यों में और इतनी सरलता से व्यक्त करना टेढ़ी खीर है। गुप्तजी आलोचक भी अच्छे थे। भाषा पर अच्छा प्रधिकार रहने से उनकी आलोचना में भी चमत्कार रहता था। किस बात को किस ढंग से कहना चाहिए इसका विचार वे सदैव रखते थे। साथ ही कथन-प्रणाली रूखी न हो इस विचार से बीच बीच में व्यंग्य के साथ वे विनोद की मात्रा भी पूर्ण रूप में रखते थे। इस प्रकार के लेखों में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की भाँति भाषा का खिचड़ो रूप ही प्रयोग में लाते थे। क्योंकि वे भी समझते थे कि इस प्रकार उनका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ नागरीप्रचारिणी पत्रिका लेख साधारणत: अधिक व्यापक एवं व्यावहारिक हो सकेगा। जैसे "सरकार ने भी कवि-वचन-सुधा की सौ कापियाँ खरीदी थीं। जब उक्त पत्र पाक्षिक होकर राजनीति संबंधी और दूसरे लेख स्वाधीन भाव से लिखने लगा तो बड़ा आंदोलन मचा, यद्यपि हाकिमों में बाबू हरिश्चंद्र की बड़ी प्रतिष्ठा थी, वह आनरेरी मैजिस्ट्रेट नियुक्त किए गए थे तथापि वह निडर होकर लिखते रहे और सर्व साधारण में उनके पत्र का आदर होने लगा। यद्यपि हिंदी भाषा के प्रेमी उस समय बहुत कम थे तो भी हरिश्चंद्र के ललित ललित लेखों ने लोगों के जी में ऐसी जगह कर ली थी कि कवि-वचन-सुधा के हर नंबर के लिये लोगों को टकटकी लगाए रहना पड़ता था। जो लोग राजनीतिक दृष्टि से उसे अपने विरुद्ध समझते थे वह भी प्रशंसा करते थे। दुःख की बात है कि बहुत जल्द कुछ चुगुलखोर लोगों की दृष्टि उस पर पड़ी। उन्होंने कवि-वचन-सुधा के कई लेखों को राजद्रोहपूरित बताया, दिल्लगी की बातों को भी वह निंदासूचक बताने लगे। मरसिया नामक एक लेख उक्त पत्र में छपा था, यार लोगों ने कोटे लाट सर विलियम म्योर को समझाया कि यह श्राप ही की खबर ली गई है। सरकारी सहा. यता बंद हो गई। शिक्षा-विभाग के डाइरेक्टर केंपसन साहब ने बिगड़कर एक चिट्ठी लिखी। हरिश्चंद्रजी ने उत्ता देकर बहुत कुछ समझाया बुझाया । पर वहीं यार लोगों ने जो रंग चढ़ा दिया था वह न उतरा । यहाँ तक कि बाबू हरिश्चंद्रजी की चलाई "हरिश्चंद्र-चंद्रिका" और "बालाबोधिनी" नामक दो मासिक पत्रिकाओं की सौ सौ कापियाँ प्रांतीय गवनमेंट लेती थी वह मी बंद हो गई।" प्रत्येक विषय के इतिहास में एक सामान्य बाव दिखाई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास २४७ पड़ती है, वह यह है कि काल विशेष में उसके भीतर एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जब कि अकस्मात् कुछ ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं जिनके कारण एक प्रबल परिवर्तन जाता है । ये कारण वस्तुतः कुछ दिनों से उपस्थित रहते हैं, परंतु अवसर विशेष पर ही उनसे प्रेरित घटना का विस्फोटन होता है । यही नियम साहित्य के इतिहास में भी घटित होता है । उसमें भी किसी विशेष समय पर कई कारणों के आकस्मिक संघर्ष से विशेष उलट-फेर हो जाता है। हिंदी गद्य के धारावाहिक इतिहास में सन् १८०० ई० वास्तव में इसी प्रकार का समय विशेष था । यों वो लेखन- कला के प्रसार का श्रारंभ बहुत समय पूर्व ही हो चुका था, और अत्र तक कितने ही प्रतिभाशाली लेखक उत्पन्न हो चुके थे जो अपनी रचनाओं की विशेषता की छाप हिंदी साहित्य पर लगा चुके थे; परंतु सन् १८०० में न्यायालयों में हिंदी का प्रवेश, काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सरकार की सहायता से हिंदी की हस्तलिखित पुस्तकों की खोज और प्रयाग में 'सरस्वती' ऐसी उन्नतिशील पत्रिका का प्रकाशन एक साथ ही आरंभ हुआ । गद्य की व्यापकता का क्रमिक विकास होते देखकर सतर्क लेखकों के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि भाषा की व्यवस्था आवश्यक है । अभी तक तो गद्य का प्रकाशन ही प्रकाशन होता रहा । लोगों का विचार यही था कि भाषा का किसी प्रकार स्वरूप स्थिर हो और उसके आवश्यक विषयों पर कुछ न कुछ लिखा जाय । यही कारण है कि उस समय के प्रधान लेखकों में भी व्याकरण की घोर अवहेलना प्राय: पाई जाती है । गुण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका वाचक 'शांत' को 'शांति' भाववाचक संज्ञा, और 'नाना देश में'. 'श्यामताई', 'जात्याभिमान', 'उपरोक्तं', '३६ वर्ष में', 'इच्छा किया, 'पाशा किया' आदि प्रयोग भाषा व्याकरण की अवहेलना के स्पष्ट परिचायक हैं। इस प्रकार की त्रुटियाँ कुछ तो प्रमादवश हुई हैं और कुछ व्याकरण की अज्ञानतावश। इसके अतिरिक्त विरामादिक चिह्नों के प्रयोग के विषय में भी इस समय के लेखक विचारहीन थे। प्रत्येक लंबे वाक्य के वाक्यांशों के बीच कुछ चिह्नों की आवश्यकता अवश्य पड़ती है, क्योंकि इनकी सहायता से हमें यह शीघ्र ही ज्ञात हो जाता है कि एक वाक्यांश का संबंध दूसरे वाक्यांश के साथ किस प्रकार का है और उसका साधारण स्थान क्या है। इन चिहों के अभाव में सदैव इस बात की आशंका बनी रहेगी कि वाक्य का वस्तुतः अभीष्ट अर्थ क्या है। साथ ही ऐसे अवसर उपस्थित हो सकते हैं कि उनका साधारण अर्थ ही समझना कठिन हो जाय । यदि व्याकरण के इस अंग पर ध्यान दिया जाता तो संभव है कि पंडित प्रतापनारायण मिश्र की शैली अधिक व्यवस्थित तथा स्पष्ट होती। मिश्रजी इन चिह्नों का केवल कहीं कहीं प्रयोग करते थे। इन चिह्नों के सामान्य संस्थान एवं व्यवहार के अभाव के कारण उनकी भाषा-शैली की व्यावहारिकता एवं बोधगम्यता नष्ट हो गई है। गद्य के इस वर्तमान काल में पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी का स्थान बड़े महत्व का है। पूर्व काल में भाषा की जो .. साधारण शिथिलता थी अथवा व्याकरणमहावीरप्रसाद द्विवेदी । ' संबंधी जो निर्बलता थी उसका परिहार द्विवेदीजी के मत्थे पड़ा। अभी तक जो जैसा चाहता था, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४ लिखता रहा। कोई उसकी आलोचना करनेवाला न था। प्रतएव इन लेखकों की दृष्टि भी अपनी त्रुटियों की ओर नहीं गई थी। द्विवेदीजी ऐसे सतर्क लेखक इसकी अवहेलना न कर सके, अतएव इन्होंने उन लेखकों की रचना-शैली की मालोचना प्रारंभ की जो कि व्याकरणगत दोषों का विचार अपनी रचनाओं में नहीं करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग सँभलने लगे और लेखादि विचारपूर्वक लिखे जाने लगे। उन साधारण दुर्बलताओं का क्रमशः नाश होने लगा जिनका कि हरिश्चंद्र काल में प्राबल्य था। सतर्क होकर लिखने से विरामादिक चिह्नों का प्रयोग व्यवस्थित रूप में होने लगा, साधारणत: लेख सुस्पष्ट और शुद्ध होने लगे। इसके अतिरिक्त इन्होंने गद्य-शैली के विकास के विचार से भी स्तुत्य कार्य किया। इस समय तक विशेष विशेष विषयों की शैलियाँ निश्चित नहीं हुई थीं। यों तो भाषा भाव के अनुकूल स्वभावतः हुमा ही करती है, परंतु प्रादर्श के लिये निश्चित स्वरूप उपस्थित करना आवश्यक होता है। यह कार्य द्विवेदीजी ने किया। भाषा की विशुद्धता के विचार से द्विवेदीजी उदार विचार के कहे जायेंगे। अपने भाव-प्रकाशन में यदि केवल दूसरी भाषा के शब्दों के प्रयोग से ही विशेष बल के आने की संभावना हो तो उचित है कि वे शब्द अवश्य व्यवहार में लाए जायें । द्विवेदीजी साधारणतः हिंदी, उर्दू, अँगरेजी प्रादि सभी भाषामों के शब्दों को व्यवहार में लाते हैं। परंतु ऐसा वे स्थान स्थान पर उपयुक्तता के विचार से करते हैं। इसके अतिरिक्त उनका शब्द चयन बड़ा शक्तिशाली और व्यवस्थित होता है। प्रत्येक शब्द शुद्ध रूप में लिखा जाता है, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका ठीक उसी अर्थ में जो अर्थ अपेक्षित रहता है। इनकी वाक्यरचना भी विशुद्ध होती है। उसमें कहीं भी उर्दू ढंग का विन्यास न मिलेगा। शब्दों के अच्छे उपयोग और गठन से सभी वाक्य दृढ़ एवं भावप्रदर्शन में स्पष्ट होते हैं। छोटे छोटे वाक्यों में कांति तथा चमत्कार लाते हुए गूढ़ विषयों तक की सम्यक अभिव्यंजना करना द्विवेदीजी के बाएँ हाथ का खेल है। इनके वाक्यों में ऐसी उठान और प्रगति दिखाई पड़ती है जिससे भाषा में वही बल पाया जाता है जो अभिभाषण में। पढ़ते समय एक प्रकार का प्रवाह दिखाई पड़ता है। उनके वाक्यों में शब्द भी इस प्रकार बैठाए जाते हैं कि यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि वाक्य के किस शब्द पर कितना बल देना उपयुक्त होगा; और वाक्य को किस प्रकार पढ़ने से उस भाव की व्यंजना होगी जो लेखक को अभिप्रेत है। द्विवेदीजी के पूर्व के लेखकों को जब हम वाक्य-रचना एवं व्याकरण में अपरिपक्व पाते हैं तब उनमें वाक्य-सामजस्य खोजना अथवा वाक्य-समूह का विभाजन लथा विन्यास देखना व्यर्थ ही है। एक विषय की विवेचना करते हुए उसके किसी अंग का विधान कुछ वाक्य-समूहों में और उस अंग के किसी एक अंश का विधान एक स्वतंत्र वाक्य-समूह में सम्यक रूप से करना तथा इस विवेचन-परंपरा का दूसरे वाक्य-समूह की विवेचन-परंपरा के साथ सामंजस्य स्थापित करना द्विवेदीजी ने प्रारंभ किया । इस विचार से इनकी भाषा में सामंजस्य का सुंदर प्रसार पाया जाता है। उसमें अनोखापन और चमत्कार आ गया है। इसी के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - हिंदी की गद्य-शैली का विकास २५१ हम यह भी देखते हैं कि इनकी रचना में स्थान स्थान पर एक ही बात भिन्न भिन्न शब्दों में बार बार कही गई है। इससे भाव तो स्पष्टतया बोधगम्य हो जाता है पर कभी कभी एक प्रकार की विरक्ति सी होने लगती है। साधारणतः देखने से ही यह ज्ञात हो जाता है कि द्विवेदीजी ने आधुनिक गद्यरचना को एक स्थिर रूप दिया है। इन्हेंोंने उसका संस्कार किया; उसे व्याकरण और भाषा संबंधी भूलो से निवृत्त कर विशुद्ध किया और महावरों का चलती भाषा में सुंदरता से उपयोग कर उसमें बल का संचार किया। सारांश यह कि इन्होंने भाषा-शैली को एक नवीन रूप देने की पूर्ण चेष्टा की। उसको परिमार्जित, विशुद्ध एवं चमत्कारपूर्ण बनाकर भी व्यवहार-क्षेत्र के बाहर नहीं जाने दिया। भाव-प्रकाशन के तीन प्रकार होते हैं-व्यंग्यात्मक, आलो. चनात्मक और गवेषणात्मक । इन तीनों प्रकारों के लिये द्विवेदीजी ने तीन भिन्न भिन्न शैलियों का विधान रखा। इस प्रकार के कथन का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इस प्रकार की शैलियाँ इनके पूर्व प्रयुक्त ही नहीं हुई थीं, वरन् विचार यह है कि उनको निश्चयात्मक रूप अथवा स्थिरता नहीं प्राप्त हुई थी। इन तीनों शैलियों की भाषा भो भिन्न प्रकार की है। भाव के साथ साथ उसमें भी अंतर उपस्थित हुआ है। यह स्वाभा. विक भी है। उनकी व्यंग्यात्मक शैली की भाषा एकदम व्यावहारिक है। जिस भाषा में कुछ पढ़ी लिखी, अँगरेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान रखनलाली, साधारण जनता बातचीत करती है, उसी का उपयोग इस शैली में किया गया है। इसमें उछल कूद, वाक्य-सरलता, एवं लघुता के साथ साथ भाव-व्यंजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका की प्रणाली भी सरल पाई जाती है। भाषा इसकी मानो चिकोटी काटती चलती है। इसमें एक प्रकार का मसखरापन कूट कूटकर भरा रहता है। व्यंग्य भाव भी स्पष्ट समझ में पा जाता है। इस म्युनिसिपैलिटी के चेयरमैन ( जिसे अब कुछ लोग कुरसीमैन भी कहने लगे हैं) श्रीमान् बूचा शाह हैं। बाप दादे की कमाई का लाखों रुपया आपके घर भरा है। पढ़े लिखे आप राम का नाम ही हैं। चेयरमैन श्राप सिर्फ इसलिये हुए हैं कि अपनी कारगुजारी गवर्नमेंट को दिखाकर आप रायबहादुर बन जाये और खुशामदियों से अाठ पहर चौंसठ घड़ी घिरे रहें। म्युनिसिपैलिटी का काम चाहे चले चाहे न चले, आपकी बला से। इसके एक मेंबर हैं बाबू बखिशशराय । अापके साले साहब ने फी रुपए तीन चार पंसेरी का भूसा ( म्युनिसिपैलिटी को ) देने का ठीका लिया है। आपका पिछला बिल १० हजार रुपए का था। पर कूड़ा-गाड़ी के बैलों और भैंसों के बदन पर सिवा हड्डी के मांस नज़र नहीं आता। सफाई के इंसपेक्टर हैं लाला सतगुरुदास। आपकी इसपेकृरी के ज़माने में, हिसाब से कम तनख्वाह पाने के कारण, मेहतर लोग तीन दफे हड़ताल कर चुके हैं। फजूल जमीन के एक टुकड़े का नीलाम था। सेठ सर्वसुख उसके ३ हज़ार देते थे। पर उन्हें वह टुकड़ा न मिला। उसके ६ महीने बाद म्युनिसिपैलिटी के मेंबर पं० सत्यसर्वस्व के ससुर के साले के हाथ वही ज़मीन एक हज़ार पर बेंच दी गई।" ___ इस वाक्य-समूह के शब्द शब्द में व्यंग्य की झलक पाई जाती है । शब्दावली के संचय में भी कुशलता है; क्योंकि उनका यहाँ बल विशेष है। इसके उपरांत जब हम उनकी उस शैली के स्वरूप पर विचार करते हैं जिसका उपयोग उन्होंने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदो की गद्य शैली का विकास २५३ प्रायः अपनी आलोचनात्मक रचनाओं में किया है तो हमें ज्ञात होता है कि इसी भाषा को कुछ और गंभीर तथा संयत करके, उसमें से मसखरापन निकालकर उन्होंने एक सर्वांग नवीन रूप का निर्माण कर लिया है । भाषा का वही स्वरूप और वही महावरेदानी है परंतु कथन की प्रणाली आलोचनात्मक तथा तथ्यातथ्य-निरूपक होने के कारण उसमें गांभीर्य और ज झलकता है । जैसे "इसी से किसी किसी का ख़याल था कि यह भाषा देहली के बाज़ार ही की बदौलत बनी है । पर यह ख़याल ठीक नहीं । भाषा पहले ही से विद्यमान थी और उसका विशुद्ध रूप अब भी मेरठ प्रांत में बोला जाता है । बात सिर्फ़ यह हुई कि मुसलमान जब यह बोली बोलने लगे तब उन्होंने उसमें अरबी-फारसी के शब्द मिलाने शुरू कर दिए, जैसे कि श्राजकल संस्कृत नाननेवाले हिंदी बोलने में श्रावश्यकता से ज़ियादा संस्कृत शब्द काम में लाते हैं। उर्दू पश्चिमी हिंदुस्तान के शहरों की बोली है । जिन मुसलमानों या हिंदुत्रों पर फ़ारसी भाषा और सभ्यता की छाप पड़ गई है वे, अन्यत्र भी, उर्दू ही बोलते हैं । बस, और कोई यह भाषा नहीं बोलता | इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से फ़ारसी- अरबी के शब्द हिंदुस्तानी भाषा की सभी शाखाओं में हैं । अपढ़ देहातियों ही की बोली में नहीं, किंतु हिंदी के प्रसिद्ध प्रसिद्ध लेखकों की परिमार्जित भाषा में भी अरबी-फारसी के शब्द श्राते हैं । पर ऐसे शब्दों को अब विदेशी भाषा के शब्द न समझना चाहिए । वे श्रत्र हिंदुस्तानी हो गए हैं और उन्हें छोटे छोटे बच्चे और स्त्रियों तक बोलती हैं। उनसे घृणा करना या उन्हें निकालने की कोशिश करना वैसी ही उपहासास्पद बात है जैसी कि हिंदी से संस्कृत के धन, वन, हार और संसार आदि शब्दों को निकालने की कोशिश श्री गए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका करना है। अँगरेज़ी में हज़ारों शब्द ऐसे हैं जो लैटिन से पाए हैं । यदि कोई उन्हें निकाल डालने की कोशिश करे तो कैसे कामयाब हो सकता है।" अधिकांश रूप में द्विवेदीजी की शैली यही है। उनकी अधिक रचनामों में एवं मालोचनात्मक लेखों में इसी भाषा का व्यवहार हुआ है। इसमें उर्दू के भी तत्सम शब्द हैं और संस्कृत के भी। वाक्यों में बल कम नहीं हुआ परंतु गंभीरता का प्रभाव बढ़ गया है। इस शैली के संचार में वह उच्छं खलता नहीं है, वह व्यंग्यात्मक मसखरापन नहीं है जो पूर्व के अव. तरण में था। इसमें शक्तिशाली शब्दावली में विषय का स्थिरतापूर्वक प्रतिपादन हुमा है; अतएव भाषा-शैलो भी अधिक संयत तथा धारावाहिक हुई है। इसी शैली में जब वे उर्दू की तत्समता निकाल देते हैं और विशुद्ध हिंदी का रूप उपस्थित करते हैं तब हमें उनकी गवेषणात्मक शैलो दिखाई पड़ती है। यों तो भाव के अनुसार भाव-व्यंजना में भी दुरूहता आ ही जाती हैं, परंतु द्विवेदोजी की लेखन-कुशलता एवं भावों का स्पष्टीकरण एकदम स्वच्छ तथा बोधगम्य होने के कारण सभी भाव सुलझी हुई लड़ियों की भांति पृथक पृथक् दिखाई पड़ते हैं । यों तो इस शैली में भी दो एक उर्दू के शब्द आ ही जाते हैं पर वे नहीं के बराबर हैं। इसकी भाषा और रचना-प्रणाली ही चिल्लाकर कहती है कि इसमें गंभीर विषय का विवेचन हो रहा है। परंतु द्विवेदीजी की साधारण शैली के अनुसार यह कुछ बनावटी प्रथवा गढ़ी हुई ज्ञात होती है। जैसे___"अपस्मार और विक्षिप्तता मानसिक विकार या रोग हैं। उनका संबंध केवल मन और मस्तिष्क से है। प्रतिभा भी एक प्रकार का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २५५ मनोविकार ही है। इन विकारों की परस्पर इतनी संलग्नता है कि प्रतिभा को अपस्मार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक का परिणाम समझ लेना बहुत ही कठिन है। इसी लिये प्रतिभावान् पुरुषों में कभी कभी विक्षिप्तता के कोई कोई लक्षण मिलने पर भी मनुष्य उनकी गणना बावलों में नहीं करते। प्रतिभा में मनोविकार बहुत ही प्रबल हो उठते हैं। विक्षिप्तता में भी यही दशा होती है। जैसे विक्षिप्तों की समम असाधारण होती है अर्थात् साधारण लोगों की सी नहीं होती, एक विलक्षण ही प्रकार की होती है, वैसे प्रतिभावानों की भी समझ असाधारण होती है। वे प्राचीन मार्ग पर न चलकर नए नए मार्ग निकाला करते हैं। पुरानी लीक पीटना उनको अच्छा नहीं लगता । प्रतिभाशाली कवियों के विषय में किसी ने सत्य कहा है लीक लीक गाड़ी चलै लोकहि चलै कपूत। बिना लीक के तीन हैं शायर, सिंह, सपूत ॥ जिनकी समझ और जिनकी प्रज्ञा साधारण है, वे सीधे मार्ग का अतिक्रमण नहीं करते; विक्षिप्तों के समान प्रतिभावान् ही आकाशपाताल फांदते फिरते हैं। इसी से विक्षिप्तता और प्रतिभा में समता पाई जाती है।" ___पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी तक जितना हिंदी गद्य का विकास हो चुका था उसको देखने से यह स्पष्ट होता है कि साधारणतः भाषा में लचरपन नहीं रह अंबिकादत्त व्यास ' गया था। उसमें प्रौढ़ता आ गई थी। परंतु पंडित अंबिकादत्त व्यास ऐसे लेखक, अपवाद-स्वरूप, इस समय भी भाषा की प्राचीनता का आभास दे रहे थे। व्यासजी की भाषा में जो चलतापन और सारल्य था वह बड़ा आकर्षक था। वक्तता की भाषा में जो एक प्रकार का बल विशेष पाया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ नागरोप्रचारिणी पत्रिका जाता है वह उसमें अधिकांश रूप में मिलता है। स्थान स्थान पर एक ही बात को वे पुनः इस प्रकार और इस विचार से दोहरा देते थे कि उसमें कुछ विशेष शक्ति उत्पन्न हो जाती थी। यह सब होते हुए भी उनमें त्रुटियाँ अधिक थीं, जो वस्तुत: भाषा की उस उन्नत अवस्था के मेल में न थीं जो उनके समय तक उपस्थित हो चुकी थी। वे अभी तक 'इनने', 'उनने', 'के' (कर ), 'सो' (अत: अथवा वह ), 'रहैं', 'चाहैं', 'बेर' इत्यादि का ही प्रयोग करते थे। 'तो' और 'भारी' की ऐसी अव्यवस्थित भरमार इन्होने की है कि भाषा में गवारूपन और शिथिलता प्रा गई है। ‘विरामादिक चिह्नों का भी व्यवहार वे उचित स्थान पर नहीं करते थे। "भगवान के शरण," "सूचना करने (देने ) वाली", "दर्शन किए" भो लिखते थे। इसके अतिरिक्त स्थान स्थान पर विभक्तियों के भद्दे अथवा अव्यवहार्य प्रयोग प्रायः मिलते हैं। जैसे-'उसी को दिवाली अन्नकूट होता है' ( उसी के लिये दिवाली में अन्नकूट होता है)। इतना ही नहीं, कहीं कहीं विभक्तियों को छोड़ भी जाते थे; जैसे- 'उसी नाम ले' ( उसी का नाम लेकर ) इत्यादि । यह सब विचारकर यही कहा जा सकता है कि इनकी भाषा बड़ी भ्रामक हुई है। भ्रामक इस विचार से कि अपने समय का यह स्पष्ट बोध नहीं करा सकती । उसको पढ़कर यह कोई नहीं कह सकता कि यह उस समय की भाषा है जिस समय गद्य में प्रौढ़ता उत्पन्न हो चली थी। उनकी भाषा का छोटा सा अवतरण उपस्थित किया जाता है। [ क्रमशः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ શ્રી યશ, alc Philo Ilollere Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat, www.umaragyanbhandar.com