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________________ २४२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका उनसे मिलता और बात चीत करने का अवसर पाता तो सदैव उनकी बातें सचेष्ट होकर सुनता था क्योंकि मुझे इस बात का भय लगा रहता था कि कहीं कुछ समझने में भूल कर अंडबंड उत्तर न दे दूं। अस्तु, भाषा की दुरूहता तथा विचित्रता को एक ओर रखकर हमें यह मानने में कोई विवाद नहीं है कि मिश्रजी ने व्याकरण संबंधी नियमन में बड़ा उद्योग किया था। यही तो समय था जब कि लोगों का ध्यान व्याकरण के औचित्य की ओर खिंच रहा था और अपनी भाषा संबंधी बटियों पर विचार करना प्रारंभ हो रहा था। इन्होंने विभक्तियों को शब्दों के साथ मिलाकर लिखने का प्रतिपादन किया और स्वयं उसी प्रणालो का अनुसरण किया। मिश्रजी के ठीक उलटे बाबू बालमुकुंद गुप्त थे। एक ने अपने प्रखर पांडित्य का आभास अपने समासांत पड़ों और संस्कृत की प्रकांड तत्समता में झलकाया, बालमुकुद गुप्त * दूसरे ने साधारण चलते उर्दू के शब्दों को संस्कृत के व्यावहारिक तत्सम शब्दों के साथ मिलाकर अपनी उर्दूदानी की गजब बहार दिखाई। एक ने अपने वाक्यविस्तार का प्रकांड तांडव दिखाकर मस्तिष्क को मथ डाला, दूसरे ने चुभते हुए छोटे छोटे वाक्यों में अजब रोशनी घुमाई। एक ने अपने द्रविड़ प्राणायामी विधान से लोगों को व्यस्त कर दिया, दूसरे ने रचना-प्रणाली द्वारा प्रखबारी दुनिया में वह मुहावरेदानी दिखाई कि पढ़नेवालों के उभड़ते हुए दिलों में तूफानी गुदगुदी पैदा हो गई। एक को सुनकर लोगों ने कहना शुरू किया “बस करो ! बस करो।" दूसरे को सुनते. ही "क्या खूब ! भाई जीते रहो !! शाबाश !!!'' की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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