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________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास जाता है। सारांश यह कि अत्यंत सुविशाल शब्दारण्य के अनेकों विभाग वर्तमान हैं उसमें एक विषय की योग्यता वा पांडित्य के लाभ करने से ही कभी कोई व्यक्ति सब विषयों में अभिज्ञ नहीं हो सकता है। परंतु अभागी हिंदी के भाग्य में इस विषय का विचार ही माना विधाता ने नहीं लिखा है। जिन महाशयों ने समाचारपत्रों में स्वनामांकित लेखों का मुद्रित कराना कर्तव्य समझा और जिनके बहुत से लेख प्रकाशित हो चुके हैं, सर्व साधारण में इस समय वे सब के सब हिंदी के भाग्य-विधाता और सब विषयों के ही सुपंडित माने जाते हैं। मैं इस भेडियाधसान को हिंदी की उन्नति के विषय में सबसे बढ़कर बाधक और भविष्य में विशेष अनिष्टोत्पादक समझता हूँ। अनधिकार चर्चा करनेवाले से बात बात में भ्रम प्रमाद संवटित होते हैं। नामी लेखकों के भ्रम से प्रशिक्षित समुदाय की ज्ञानोबति की राह में विशेष प्रतिबाधक पड़ जाते हैं। यह ही कारण है कि तत्वदर्शी विज्ञ पुरुष अपने भ्रम का परिज्ञान होते ही उसे प्रकाशित कर सर्व साधारण का परमोपकार करने में क्षणमात्र भी विलंब नहीं करते, बल्कि विलंब करने को महा पाप समझते हैं।" यह मिश्रजी की आलोचनात्मक भाषा का उदाहरण है। इसमें भी गुणवाची शब्दों एवं उपसगों की भरमार है। इसमें भी उन्होंने किसी बात को साधारण ढंग से न कहकर अपने द्रविड़ प्राणायाम का ही अवलंबन किया है। "अपने लेख छपाए" के स्थान पर "समाचारपत्रों में स्वनामांकित लेखो का मुद्रित कराना अपना कर्तव्य समझा" लिखना ही वे लिखना समझते थे। किसी विषय को साधारण रूप में कहना उन्हें बिलकुल अच्छा न लगता था। नित्य की बोलचाल में वे असाधारण शब्दावली का प्रयोग करते थे। मैं तो जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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