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नागरीप्रचारिणी पत्रिका साम्राज्य स्थापित हुमा। इसी प्रकार की विजय तथा आदर्श का कालिदास ने भी "रघुवंश" में उल्लेख किया है, यथा
स विश्वजितमाजह यज्ञ सर्वस्वदक्षिणम् । आदानं हि विसर्गाय सतां वारिमुचामिव ।।
(सर्ग ४, श्लोक ८६) हम अपने प्राचीन इतिहास के इस भाग को बिलकुल भूल गए थे। थोड़े ही दिनों से इस क्षेत्र की और विद्वानों का ध्यान गया है और अब इसकी खोज बड़े वेग से हो रही है। बड़े बड़े विद्वान इसी काम में अपना जीवन लगा रहे हैं जिससे आशा होती है कि इस विषय का पूरा हाल हमको शीघ्र ही मालूम हो जायगा। इस इतिहास से आधुनिक शासकों और राजनीतिज्ञों के अंतरराष्ट्रीय संबंधों की शिक्षा ग्रहण करने की बड़ी आवश्यकता है। मानव जाति के इतिहास में यह युग एक विशेष महत्त्व रखता है। इसमें भिन्न भिन्न देशों की संस्कृतियों का एकीकरण एवं परस्पर पुष्टि करण ऐसा हुआ जैसा आज तक कभी नहीं हुआ। बौद्ध, माजदा, टाओ, कन्फ्यूशियन, कृश्चियन, इत्यादि अनेक मत अपने अपने तर्क और प्राचार विचारों को लेकर आपस में मिल गए। वे आज की तरह लड़े नहीं। इसके विपरीत इस संबंध से प्रत्येक ने बड़ा भारी लाभ उठाया। उदाहरण के लिये हम बौद्धमत का ईसाई मत पर क्या और कितना प्रभाव पड़ा उसे नीचे देते हैं।
विसेंट स्मिथ आदि इतिहासवेत्ता इस बात को मानते हैं कि ईसाई मत के प्रारंभिक निर्माण पर बौद्धमत का बड़ा गहरा प्रभाव पड़ा है। यह बात अब सिद्ध हो गई है कि महात्मा ईसाङ्के जन्म के पहले ही "साइरीन" (Cyrene) और
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