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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
वेश है, वहीं जिस समय सुकवि, सुपंडितों के मस्तिष्क सोते के अदृश्य प्रवाह - मय प्रगल्भ प्रतिभा स्रोत से समुत्पन्न कल्पना - कबित अभिनव भाव माधुरी भरी छलकती श्रति मधुर रसीली स्रोतःस्वती उस हंसवाहिनी हिंदी सरस्वती की कवि की सुवर्ण विन्यास समुत्सुक सरस रसना रूपी सुचमत्कारी उत्स ( झरने ) से कलरव कल कलित अति सुललित प्रबल प्रवाह सा उमड़ा चला श्राता, मर्मज्ञ रसिकों को श्रवणपुटरंध्र की राह मन तक पहुँच सुधा से सरस अनुपम काव्यरस चखाता है, उस समय उपस्थित श्रोता मात्र यद्यपि छंद - बंद से स्वच्छंद समुच्चारित शब्दलहरी-प्रवाह-पुंज का सम भाव से श्रवण करते हैं परंतु उसका चमत्कार श्रानंद रसास्वादन सबको स्वभाव से नहीं होता । जिसमें जितनी योग्यता है जो जितना मर्मज्ञ है और रसज्ञ है शिक्षा से सुसंस्कृत जिसका मन जितना अधिक सर्वांगसु ंदरतासंपन्न है, जिसमें जैसी धारणा शक्ति और बुद्धि है वह तदनुसार ही उससे सारांश ग्रहण तथा रस का आस्वादन भी करता है । अपने मन की स्वच्छता, योग्यता और संपन्नता के अनुरूप ही उस चमत्कारी अपरूप रूप का चमकीला प्रतिबिंब भी उसके मन पर पड़ता है । परम वदान्य मान्यवर कवि कोविद तो सुधा - वारिद से सब पर सम भाव से खुले जी खुले हाथों सुरस बरसाते हैं, परंतु सुरसिक्क समाज पुष्प वाटिका किसी प्रांत में पतित ऊसर समान मूसरचंद मंदमति मूर्ख और अरसिकों के मनमरुस्थल पर भाग्यवश सुसंसर्ग प्रताप से निपतित उन सुधा से सरस बूँदों के भी अंतरिक्ष में ही स्वाभाविक विलीन हो जाने से बिचारे उस नवेली नव रस से भरी बरसात में भी उत्तप्त प्यासे और जैसे थे वैसे ही शुष्क नीरस पड़े धूल उड़ाते हैं । कवि कोविदों की कोमल कल्पना कलिता कमनीय कांति की छाया उनके वैसे प्रगाढ़ तमाच्छन्न मलिन सन पर कैसे पड़ सकती है ?"
एक अँगरेजी भाषा के आलोचक ने डाक्टर जानसन की
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