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________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३७ विचारों का आदान प्रदान नहीं करता। स्वतः लेखक को घंटों लग जाते हैं परंतु फिर भी वाक्यों का निर्माण नहीं हो पाता। यह बात दूसरी है कि इस प्रकार का लेखक लिखते लिखते इतना अभ्यस्त हो जाता है कि उसे इस विधि विशेष से वाक्य-रचना में कुशलता प्राप्त हो जाती है। परंतु इस रचना को न तो हम गद्य काव्य ही कह सकते हैं और न कथन का चमत्कारिक ढंग ही। यह तो भाषा की वास्तविक परिभाषा से कोसों दूर पड़ जाता है। भाषा की उद्बोधन शक्ति एवं उसके व्यावहारिक प्रचलन का इसमें पता ही नहीं लगता । इस प्रकार की रचना का यदि एक ही वाक्य-समूह पढ़ा जाय तो संभव है कि उसकी बाह्य आकृति पांडित्यपूर्ण और सरस ज्ञात हो, परंतु जिस समय उसके भावों के समझने का प्रयत्न किया जायगा उस समय मस्तिष्क के ऊपर इतना बोझ पड़ेगा कि थोड़े ही समय में वह थककर बैठ जायगा। परमात्मा की सदिच्छा थी कि इस प्रकार के पांडित्य प्रदर्शन एवं वाग्जाल की ओर लेखकों की प्रवृत्ति नहीं झुकी, अन्यथा भाषा का व्यावहारिक तथा बोधगम्य रूप तो नष्ट हो ही जाता, साथ ही साहित्य के विकास पर भी धक्का लगता। इस प्रकार की भावना अथवा अरुचि का विनाश भी स्वाभाविक ही था; क्योंकि वास्तव में जिस वस्तु का आधार सत्य पर आश्रित नहीं रहता उसका विकास हो ही नहीं सकता। यही कारण है कि मिश्रजी की शैली का प्रागे विकास नहीं हो सका। मिश्रजी की रचना की एक झलक यहाँ दिखाई जाती है "जिस सुजन समाज में सहस्रों का समागम बन जाता है जहाँ पठित कोविद, कूर, सुरसिक, अरसिक, सब श्रेणी के मनुष्य मात्र का समा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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