________________
२१०
नागरीप्रचारिणी पत्रिका
रचना - प्रणाली का रूप स्थिर किया । यह उसका बहुत ही परिमार्जित और निखरा रूप था । "भाषा का यह निखरा हुआ शिष्ट सम्मान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ ही प्रकट हुआ" । इसी मध्यम मार्ग का सिद्धांत उन्होंने अपनी सभी रचनाओं में रखा है । हम यदि केवल इनकी गद्य-शैली के नवीन और स्थिर स्वरूप का ही विचार करें तो "वर्तमान हिंदी की इनके कारण इतनी उन्नति हुई कि इनको इसका जन्मदाता कहने में भी कोई प्रत्युक्ति न होगी" । इस मध्यम मार्ग के अवलंबन का फल यह हुआ कि भारतेंदु की साधारयतः सभी रचनाओं में उर्दू के तत्सम शब्दों का व्यवहार नहीं मिलता । अरबी फारसी के शब्द प्रयुक्त हुए हैं पर बहुत चलते । ऐसे शब्द जहाँ कुछ विकृत रूप में पाए गए वहाँ उसी रूप में रखे गए, राजा शिवप्रसाद की भाँति तत्सम रूप में नहीं । 'लोहू,' 'कफन,' 'कलेजा', 'जाफत, ' 'खजाना, ' 'जवाब' के नीचे नुकते का न लगाना ही इस विषय में प्रमाण है । 'जंगल, ' 'मुर्दा, ' 'मालूम,' 'हाल,' ऐसे चलते शब्दों का उन्होंने बराबर उपयोग किया है । इधर संस्कृत शब्दों के तद्भव रूपों का भी बड़ी सुंदरता से व्यवहार किया गया है। इस में उन्होंने बोल चाल के व्यावहारिक रूप का विशेष ध्यान रखा है । उनके प्रयुक्त शब्द इतने चलते हैं कि आज भी हम लोग उन्हीं रूपों में उनका प्रयोग अपनी नित्यं की भाषा में करते हैं। वे न तो भद्दे ही ज्ञात होते हैं और न उनके प्रयोग में कोई अड़चन ही उपस्थित होती है । 'भलेमानस', 'हिया', 'गुनी', 'आपुस', 'लच्छन', 'जोतसी', 'आँचल', 'जोबन', 'अगनित', 'अचरज' इत्यादि शब्द कितने मधुर हैं, वे कानों को
.
A
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com