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________________ २०० नागरीप्रचारिणी पत्रिका ___ "उस वन में व्याघ्र और सिंह के भय से वह अकेली कमल के समान चंचल नेत्रवाली व्याकुल हो ऊँचे स्वर से रो रो कहने लगी कि अरे विधना! तैने यह क्या किया ? और बिछुरी हुई हरनी के समान चारों ओर देखने लगी। उसी समय तक ऋषि जो सत्यधर्म में रत थे ईंधन के लिये वहाँ जा निकले । ऐसे विशुद्ध स्थल कम हैं। यह भाषा भारतेंदु हरिश्चंद्र के समीप पहुँचती दिखाई पड़ती है। इसमें साहित्य की अच्छी झलक है। भाव-व्यंजन में भी कोई बाधा नहीं दिखाई पड़ती। ऐसे समय में जब कि मुंशी सदासुखलाल, इंशा अल्लाखाँ, लल्लूजीलाल और सदल मिश्र गद्य का निर्माण कर रहे थे, ईसाइयों के दल अपने धर्म का प्रचार करने की धुन में संलग्न थे। इन लोगों ने देखा कि साधारण जनता जिनके बीच उन्हें अपने धर्म का प्रचार करना अभीष्ट था अधिक पढ़ी लिखी नहीं थो। उसकी बोलचाल की भाषा खड़ी बोली थी । अतएव इन ईसाई प्रचारकों ने अरबो फारसी मिली हुई भाषा का त्यागकर विशुद्ध खड़ी बोली को ग्रहण किया। उन्होंने उर्दूपन को दूरकर सदासुखलाल और लल्लूजीलाल की ही भाषा को प्रादर्श माना। इसका भी कारण था। उन्हें विश्वास था कि मुसलमानों में वे अपने मत का प्रचार नहीं कर सकते थे। मुसलमान स्वयं इतने कट्टर और धर्माध होते हैं कि अपने धर्म के आगे वे दूसरों की नहीं सुनते । इसके सिवा शाही शासको के प्रभाव से हिंदुओं की साधारण अवस्था शोचनीय थी। वे अधिकांश में दरिद्र थे। अतः आर्थिक प्रलोभन में पड़कर ईसाई धर्म स्वीकार कर लेते थे। इन अवस्थाओं का विचार करके इन ईसाई प्रचारको ने खड़ी बोली को ही ग्रहण किया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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