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________________ १६८ नागरीप्रचारिणी पत्रिका ____ इस प्रकार की भाषा कथावार्ताओं में ही प्रयुक्त की जा सकती है। उस समय भाषा का जो रूप प्रयोजनीय था वह इन्होंने नहीं खड़ा किया । इनकी भाषा अधिकांश शिथिल है। स्थान स्थान पर ऐसे वाक्यांश पाए हैं जिनका संबंध आगे पीछे के वाक्यों से बिलकुल नहीं मिलता। इन सब दोषों के रहते हुए भी इनकी भाषा बड़ी मधुर हुई। स्थान स्थान पर वर्णनात्मक चित्र बड़े सुंदर हैं। यदि लल्लूजीलाल भी सदल मिश्र की भाँति भाषा को स्वतंत्रतापूर्वक विचरण करने देते तो संभव है उनकी प्राचीनता इतनी न खटकती, और कुछ दोषों का परिमार्जन भी इस प्रकार हो जाता। परबी फ़ारसी के लटकों से बचने में इनकी भाषा मुहाविरेदार और आकर्षक नहीं हो सकी और उसमें अधिक तोड़ मरोड़ करना पड़ा। लल्लूजीलाल के साथो सदल मिश्र की भाषा व्यावहारिक है। इसमें न तो ब्रजभाषा का अनुकरण है और न तुकांत का लटका। इन्होंने अरबी-फारसी-पन को एक दम अलग नहीं किया। इसका परिणाम बुरा नहीं हुआ, क्योंकि इससे भाषा में मुहाविरों का निर्वाह सफलता के साथ हो सका है और कुछ आकर्षण तथा रोचकता भी आ गई है। वाक्यों के संगठन में खाँ साहब की उलट फेरवाली प्रवृत्ति इनमें भी मिलती है। 'जलविहार हैं करते, 'उत्तम गति को हैं पहुँचते' 'अबही हुआ है क्या' इत्यादि में वही धुन दिखाई देती है। इस में स्थान स्थान पर वाक्य असंपूर्ण अवस्था में ही छोड़ दिए गए हैं। अंतिम क्रिया का पता नहीं है। जैसे 'जहाँ देखो वहाँ देवकन्या सब गाती'। साधारणतः देखने से भाषा असंयत बात होती है। 'और' के लिये 'श्री' तथा 'वो' दोनों Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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