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नागरीप्रचारिणी पत्रिका
रही थी । उन्हें यह ज्ञात है। चला था कि उनका संबंध
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केवल उन्हों के देश भारतवर्ष से नहीं हैं वरन भारतवर्ष जैसे दूसरे प्रदेश भी हैं; सृष्टि के इस विस्तार से उनका संबंध अविच्छिन्न रहना अनिवार्य है, ऐसी अवस्था में समाज की व्यापकता वृद्धि पाने लगी । इस सामाजिक विकास के साथ ही साथ भाषा की ओर भी ध्यान जाना निर्वात स्वाभाविक था । इसी समय यंत्रालये । में मुद्रण-कार्य प्रारंभ हुआ । इसका प्रभाव नवीन साहित्य के विकास पर अधिक पड़ा । इस प्रकार विचारों के सामाजिक आदान-प्रदान का रूप स्थिर हुआ ।
इस समय तक जा साहित्य प्रचलित था वह केवल पद्यमय था । जो धारा ग्यारहवीं अथवा बारहवीं शताब्दियों में प्रवाहित हुई थी वह प्राज तक अप्रतिहत रूप में चली आ रही थी । एक समय था, जब कि यह प्रगति सफलता के उच्चतम शिखर पर पहुँच चुकी थी । किंतु अब इसके क्रमागत हास का समय था । इस काल की परिस्थिति इस बात का साक्ष्य देती थी कि अब किसी 'तुलसी', 'सूर' और 'बिहारी' के होने की संभावना न थी । इस समय में भी कवियों का प्रभाव नहीं था । ग्रंथों की रचना का क्रम इस समय भी चल रहा था और उनके पाठकों तथा श्रोताओं की कमी भी नहीं थी किंतु अब यह स्पष्ट भासित होने लगा था कि केवल पद्य रचना से काम नहीं चलेगा । पद्य-रचना साहित्य का एक अंग विशेष मात्र है, उसके अन्य अंगों की भी व्यवस्था करनी पड़ेगी, और बिना ऐसा किए उद्धार होने का नहीं । वाद-विवाद, धर्मोपदेश और तथ्यातथ्य निरूपण के लिये पद्य अनुपयोगी है, यह लोगों की समझ में आने लगा । इन
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