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________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास १९१ बातों के लिये गद्य की शरण लेनी पड़ेगी-यह स्पष्ट दिखाई पड़ने लगा। किसी काल-विशेष को जिन प्रसुविधाओं का सामना करना पड़ता है उन्हें वह स्वयं अपने अनुकूल बना लेता है। उसके लिये किसी व्यक्ति विशेष किंवा जाति-विशेष को प्रयत्न नहीं करना पड़ता। जब कोई प्रावश्यकता उत्पन्न होती है तब उसकी पूर्ति के साधन भी अपने आप उत्पन्न हो जाते हैं। यही अवस्था इस समय गद्य के विकास की भी हुई। यदि इस काल-विशेष को गद्य-रचना की आवश्यकता पड़ी तो साधन सामने ही थे। विचारणीय विषय यह था कि इस समय ब्रजभाषा के गद्य का पुनरुद्धार करना समीचीन होगा अथवा शिष्ट समाज में प्रचलित खड़ी बोली के गद्य का । आधार स्वरूप दोनों का भांडार एक ही सा दरिद्र था। दोनों में ही संचित द्रव्य-लेख-सामग्री-बहुत न्यून मात्रा में उपलब्ध था। ब्रजभाषा के गद्य में यदि टीकाओं की गद्य-श्रृंखला को लेते हैं तो उसकी अवस्था कुल मिलाकर नहीं के बराबर हो जाती है। कहा जा चुका है कि इन टीकाओं की भाषा इतनी लचर, अनियंत्रित और अस्पष्ट थी कि उसका ग्रहण नहीं हो सकता था। उसमें अशक्तता इतनी अधिक मात्रा में थी कि भाव-प्रकाशन तक उससे भली भाँति नहीं हो सकता था। खड़ो बोली की अवस्था ठीक इसके विपरीत थी । आधारस्वरूप उसका भी कोई इतिहास न रहा हो, यह दूसरी बात है; परंतु जन साधारण उस समय इसके रूप से इतना परिचित और हिला मिखा था कि इसे अपनाने में उसे किसी प्रकार का संकोच न था। दिन रात लोग बोलचाल में इसी का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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