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________________ २५४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका करना है। अँगरेज़ी में हज़ारों शब्द ऐसे हैं जो लैटिन से पाए हैं । यदि कोई उन्हें निकाल डालने की कोशिश करे तो कैसे कामयाब हो सकता है।" अधिकांश रूप में द्विवेदीजी की शैली यही है। उनकी अधिक रचनामों में एवं मालोचनात्मक लेखों में इसी भाषा का व्यवहार हुआ है। इसमें उर्दू के भी तत्सम शब्द हैं और संस्कृत के भी। वाक्यों में बल कम नहीं हुआ परंतु गंभीरता का प्रभाव बढ़ गया है। इस शैली के संचार में वह उच्छं खलता नहीं है, वह व्यंग्यात्मक मसखरापन नहीं है जो पूर्व के अव. तरण में था। इसमें शक्तिशाली शब्दावली में विषय का स्थिरतापूर्वक प्रतिपादन हुमा है; अतएव भाषा-शैलो भी अधिक संयत तथा धारावाहिक हुई है। इसी शैली में जब वे उर्दू की तत्समता निकाल देते हैं और विशुद्ध हिंदी का रूप उपस्थित करते हैं तब हमें उनकी गवेषणात्मक शैलो दिखाई पड़ती है। यों तो भाव के अनुसार भाव-व्यंजना में भी दुरूहता आ ही जाती हैं, परंतु द्विवेदोजी की लेखन-कुशलता एवं भावों का स्पष्टीकरण एकदम स्वच्छ तथा बोधगम्य होने के कारण सभी भाव सुलझी हुई लड़ियों की भांति पृथक पृथक् दिखाई पड़ते हैं । यों तो इस शैली में भी दो एक उर्दू के शब्द आ ही जाते हैं पर वे नहीं के बराबर हैं। इसकी भाषा और रचना-प्रणाली ही चिल्लाकर कहती है कि इसमें गंभीर विषय का विवेचन हो रहा है। परंतु द्विवेदीजी की साधारण शैली के अनुसार यह कुछ बनावटी प्रथवा गढ़ी हुई ज्ञात होती है। जैसे___"अपस्मार और विक्षिप्तता मानसिक विकार या रोग हैं। उनका संबंध केवल मन और मस्तिष्क से है। प्रतिभा भी एक प्रकार का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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