________________
हिंदो की गद्य शैली का विकास
२५३ प्रायः अपनी आलोचनात्मक रचनाओं में किया है तो हमें ज्ञात होता है कि इसी भाषा को कुछ और गंभीर तथा संयत करके, उसमें से मसखरापन निकालकर उन्होंने एक सर्वांग नवीन रूप का निर्माण कर लिया है । भाषा का वही स्वरूप और वही महावरेदानी है परंतु कथन की प्रणाली आलोचनात्मक तथा तथ्यातथ्य-निरूपक होने के कारण उसमें गांभीर्य और ज झलकता है । जैसे
"इसी से किसी किसी का ख़याल था कि यह भाषा देहली के बाज़ार ही की बदौलत बनी है । पर यह ख़याल ठीक नहीं । भाषा पहले ही से विद्यमान थी और उसका विशुद्ध रूप अब भी मेरठ प्रांत में बोला जाता है । बात सिर्फ़ यह हुई कि मुसलमान जब यह बोली बोलने लगे तब उन्होंने उसमें अरबी-फारसी के शब्द मिलाने शुरू कर दिए, जैसे कि श्राजकल संस्कृत नाननेवाले हिंदी बोलने में श्रावश्यकता से ज़ियादा संस्कृत शब्द काम में लाते हैं। उर्दू पश्चिमी हिंदुस्तान के शहरों की बोली है । जिन मुसलमानों या हिंदुत्रों पर फ़ारसी भाषा और सभ्यता की छाप पड़ गई है वे, अन्यत्र भी, उर्दू ही बोलते हैं । बस, और कोई यह भाषा नहीं बोलता | इसमें कोई संदेह नहीं कि बहुत से फ़ारसी- अरबी के शब्द हिंदुस्तानी भाषा की सभी शाखाओं में हैं । अपढ़ देहातियों ही की बोली में नहीं, किंतु हिंदी के प्रसिद्ध प्रसिद्ध लेखकों की परिमार्जित भाषा में भी अरबी-फारसी के शब्द श्राते हैं । पर ऐसे शब्दों को अब विदेशी भाषा के शब्द न समझना चाहिए । वे श्रत्र हिंदुस्तानी हो गए हैं और उन्हें छोटे छोटे बच्चे और स्त्रियों तक बोलती हैं। उनसे घृणा करना या उन्हें निकालने की कोशिश करना वैसी ही उपहासास्पद बात है जैसी कि हिंदी से संस्कृत के धन, वन, हार और संसार आदि शब्दों को निकालने की कोशिश
श्री गए
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com