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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २५५ मनोविकार ही है। इन विकारों की परस्पर इतनी संलग्नता है कि प्रतिभा को अपस्मार और विक्षिप्तता से अलग करना और प्रत्येक का परिणाम समझ लेना बहुत ही कठिन है। इसी लिये प्रतिभावान् पुरुषों में कभी कभी विक्षिप्तता के कोई कोई लक्षण मिलने पर भी मनुष्य उनकी गणना बावलों में नहीं करते। प्रतिभा में मनोविकार बहुत ही प्रबल हो उठते हैं। विक्षिप्तता में भी यही दशा होती है। जैसे विक्षिप्तों की समम असाधारण होती है अर्थात् साधारण लोगों की सी नहीं होती, एक विलक्षण ही प्रकार की होती है, वैसे प्रतिभावानों की भी समझ असाधारण होती है। वे प्राचीन मार्ग पर न चलकर नए नए मार्ग निकाला करते हैं। पुरानी लीक पीटना उनको अच्छा नहीं लगता । प्रतिभाशाली कवियों के विषय में किसी ने सत्य कहा है
लीक लीक गाड़ी चलै लोकहि चलै कपूत।
बिना लीक के तीन हैं शायर, सिंह, सपूत ॥ जिनकी समझ और जिनकी प्रज्ञा साधारण है, वे सीधे मार्ग का अतिक्रमण नहीं करते; विक्षिप्तों के समान प्रतिभावान् ही आकाशपाताल फांदते फिरते हैं। इसी से विक्षिप्तता और प्रतिभा में समता पाई जाती है।"
___पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी तक जितना हिंदी गद्य का विकास हो चुका था उसको देखने से यह स्पष्ट होता है कि
साधारणतः भाषा में लचरपन नहीं रह अंबिकादत्त व्यास
' गया था। उसमें प्रौढ़ता आ गई थी। परंतु पंडित अंबिकादत्त व्यास ऐसे लेखक, अपवाद-स्वरूप, इस समय भी भाषा की प्राचीनता का आभास दे रहे थे। व्यासजी की भाषा में जो चलतापन और सारल्य था वह बड़ा आकर्षक था। वक्तता की भाषा में जो एक प्रकार का बल विशेष पाया
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