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________________ नागरीप्रचारिणो पत्रिका "भट्ट ने पहले यह बात लिखी है कि देवताओं के कुकर्म सुकर्म हैं क्यों शास्त्र ने इनको सुकर्म ठहराया है। यह सच है परंतु हमारी समझ में इन्हीं बातों से हिंदू शास्त्र झूठे ठहरते हैं । ऐसी बातों में शास्त्र के कहने का कुछ प्रमाण नहीं। जैसे चोर के कहने का प्रमाण नहीं जो चोरी करे फिर कहे कि मैं तो चोर नहीं । पहले अवश्य है कि शास्त्र सुधारे जायँ और अच्छे अच्छे प्रमाणों से ठहराया जाय कि यह पुस्तक ईश्वर की है तब इसके पीछे उनके कहने का प्रमाण होगा । यह निश्चय जाना कि यदि ईश्वर अवतार लेता तो ऐसा कुकर्म कभी न करता और अपनी पुस्तक में कभी न लिखता कि कुकर्म सुकर्म है" । २०२ ऊपर का उद्धृत अवतरण संवत् १८०६ में प्रकाशित एक पुस्तक का है । इसकी भाषा से यह स्पष्टतया विदित हो जाता है कि इस समय तक इसमें इतनी शक्ति भा गई थी कि योग्यतापूर्वक वाद-विवाद चल सके। इसमें शक्ति दिखाई पड़ती है । यह भाषा लचर नहीं है। इसमें भाषा का व्यवस्थित रूप दिखाई पड़ता है। पूरी पुस्तक इसी शैली में लिखी गई है। इससे यह प्रमाणित हो जाता है कि इस समय तक भाषा में एकस्वरता अच्छी तरह से आ गई थी । सभी विषयों की छानबीन इसमें हुई है । श्रतएव यह कथन प्रत्युक्ति-पूर्ण न होगा कि इसकी व्यापकता बढ़ रही थी । अब यह केवल कथा कहानी की भाषा न रही, वरन् तथ्यातथ्य-निरूपण, वाद-विवाद और प्रालोचना की भाषा भी हो चली । पठन ईसाइयों का प्रचार कार्य चलता रहा | खंडन मंडन की पुस्तकें विशुद्ध हिंदी भाषा में छपती रहीं । पाठन का कार्य आरंभ हो चुका था । पाठशालाएँ स्थापित हो चुकी थीं। उर्दू इन संस्थाओं में पढ़ाने के लिये पुस्तकें भी लिखी जा रही थीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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