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१७४ नागरीप्रचारिणी पत्रिका अलग है। संभव है कि रचयिता ने शाही उपदेशों का प्राश्रय लेकर इसे हिंदूपन के ढाँचे में ढाल दिया हो। कुछ भी हो, पुस्तक बढ़िया है। ____ इसमें दो बातें, तीन बातें,-इस तरह चार, पाँच, छः, सात, पाठ, नौ और दस बातें-ऐसे शीर्षक से दिखलाया है कि कौन बातें ग्राह्य और कौन कौन त्याज्य हैं। नमूने के लिये "दो बात" शीर्षक के चार दोहे यहाँ दे देना काफी होगा
"दोय वस्तु तें जगत में अति उत्तम कछु नाहिं । निश्चय ईश्वर भाव पै (में) दया जीव के ठाहिं (माहिं)॥१॥ द्वै बातन तें. अधम नर नाहीं जगत् प्रसिद्धि । अहंकार भगवान ते जन अपकारी बुद्धि ॥२॥
दोय वस्तु ये जानिए बहुत बुरी जग बीच । कृत निंदकता येक (एक) और दूजे संगति नीच ॥३॥ दोय वस्तु ये मूढ़ता जानौ निश्चै चित्त । सेवा दुष्टन की करै और स्तुति अपनी (स्तुती प्रापनी) नित्त।।४।।
इन दोहों में ब्रेकेट के भीतर जो शब्द हैं वे मेरे हैं। मूल पाठ ज्यों का त्यों रखकर शुद्ध करने के लिये अपने शब्द कोष्ठक में दिए गए हैं। कविता तुकबंदी है।
हंडे में से एक चावल निकालकर नमूना देख लिया जाता है। इस तरह इसकी कविता चाहे साधारण ही क्यों न हो किंतु इसमें किंचित् भी संदेह नहीं कि इसका एक एक उपदेश लाभ उठानेवाले के लिये लाखो रुपए की लागत का हो सकता है। "पत्रिका' के इतिहास-प्रेमी साहित्य-रसिक
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