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________________ २३० नागरीप्रचारिणी पत्रिका उसमें दिखाई पड़ता है वह स्तुत्य है । उन्होंने भाषा को काव्योचित बनाने में सोद्देश्य चेष्टा की। इसके अतिरिक्त कभी कभी अवसर पड़ने पर उन्होंने पालोचनात्मक लेख भी लिखे हैं। इन्हीं लेखों को हम आलोचनात्मक साहित्य का एक प्रकार से प्रारंभ कह सकते हैं। यों तो उन लेखों की भाषा आलोचना की भाषा नहीं होती थी फिर भी उनमें विषय विशेष का प्रवेश मिलता है। धीरे धीरे उर्दू की तत्समता का ह्रास और संस्कृत की तत्समता का प्रभाव बढ़ता जा रहा था। पंडित बदरीनारायण चौधरी की रचना में उर्दू की संतोषश्रीनिवासदास - जनक कमी थी परंतु लाला श्रीनिवासदास में उर्दू तत्समता भी अच्छी मिलती है। इस कथन का वात्पर्य यह कदापि नहीं है कि राजा शिवप्रसादजी की भाँति इसमें उर्दू का प्राबल्य था। अब उर्दू ढंग की वाक्य-रचना प्रायः लुप्त हो रही थी। उर्दू शब्दों का प्रयोग भी दिन पर दिन घटता जाता था। इसके सिवा लालाजी में हमें दारंगी दुनिया नहीं दिखाई पड़ती, जैसी पंडित बालकृष्ण भट्ट की रचना में थी। इनकी भाषा संयत, सुबोध और दृढ़ थी। यों तो इनके उपन्यास-परीक्षा-गुरु-और नाटकों की भाषाओं में अंतर है, परंतु वह केवल इतना ही है कि जितना केवल विषय परिवर्तन में प्राय: हो जाता है। नाटकों की भाषा वत्कृता के अनुकूल होती थी और परीक्षा-गुरु की भाषा वर्णनात्मक हुई है। इनमें साधारणतः दिल्ली की प्रांतिकता और पछाहीपन प्रत्यक्ष दिखाई पड़ता है। 'इस्की' 'उस्की' और 'उस्से' ही नहीं वरन् 'किस्पर', 'इस्तरह', 'तिस्पर। ऐसे प्रयोग भी पाए जाते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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