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________________ हिंदो की गद्य-शैली का विकास १८३ वे अधिक करते थे। यदि उनकी रचनाओं में स्थान स्थान पर उर्दू-फारसी और अरबी के शब्द प्रा जाया करते थे तो यह बिलकुल स्वाभाविक ही था। यदि वे उसे बचाने का प्रयत्न करते तो उनकी रचनाओं में कृत्रिमता आने तथा उनके अस्वाभाविक लगने का भय था। उन कवियों की भाषा का रूप देखिए पिया बिन मेरे तई वैराग भाया है जो होनी हो सो हो जावे । भभूत अब जोगियों का अंग लाया है जो होनी हो सो हो जावे ॥ -अशरफ़ हम ना तुमको दिल दिया तुम दिल लिया और दुख दिया । तुम यह किया हम वह किया यह भी जगत की रीत है। -सादी दिल वली का ले लिया दिल्ली ने छीन । जा कहो कोई मुहम्मद शाह सू॥ टुक वली को सनम गले से लगा। खुदनुमाई न कर खुदा से डर ॥ तुम अँखडियां के देखे आलम खराब होगा। -शाह वली-अल्लाह वली साहब दक्षिण से उत्तर भारत में चले आए। उस समय यहाँ मुहम्मदशाह शासन कर रहा था। वलो के दिल्ली में आते ही लोगों में काव्य-प्रेम की धुन प्रारंभ हुई। इसी कारण प्रायः लोग उर्दू कविता का प्रारंभ वली से मानते हैं। कुछ दिनों तक तो खड़ी बोली का विशुद्ध रूप में प्रयोग होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034972
Book TitleNagri Pracharini Patrika Part 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGaurishankar Hirashankar Oza
PublisherNagri Pracharini Sabha
Publication Year1931
Total Pages124
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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