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हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २३१ हैं। इनके अतिरिक्त ये 'तुम्हो' न लिखकर 'तुमही', 'ठहर' न लिखकर 'ठेर' आदि अधिक लिखा करते थे। विभक्तियों का प्रयोग भी प्रांतिकता से पूर्ण होता था। जैसे-'सै' (से) 'मैं' (में) इत्यादि। इसके उपरांत 'करै 'देखे पर भी' 'रहेंगे' 'जाँती' 'तहाँ' ( वहाँ) 'सुनें' इत्यादि ब्रज के रूप भी स्थान स्थान पर प्राप्त होते हैं। ''
और 'ब' के उपयोग का तो इन्हें कुछ विचार ही न था । किसी किसी शब्द को भी ये शायद भ्रमवश अशुद्ध ही लिखा करते थे। जैसे 'धैर्य के लिये 'धीर्य या धीर्य' तथा 'शांत' के अर्थ में 'शांति' का प्रयोग प्रचुरता से करते थे। इसके अतिरिक्त व्याकरण संबंधी साधारण भूलों का होना तो उस समय की एक विशेषता थी। जैसे "पृथ्वीराज-(संयोगिता से) प्यारी! ..तुम ही मेरा वैभव और तुमही मेरे सर्वस्व हो।" "छत्तीस वर्ष में," ऐसे प्रयोग स्थान स्थान पर बराबर मिलते हैं। इन सब त्रुटियों के रहते हुए भी भाषा में संयम दिखाई पड़ता है। परिमार्जन का सुंदर रूप मिलता है। न उछल कूद रहती है और न भद्दा चमत्कार ही। सीधा साधा व्यावहारिक रूप ही प्रयुक्त हुआ है। इस प्रकार की भाषा में उच्च विचारों का भी निदर्शन हो सकता है और सामान्य विषयों का भी। जैसे___"अब इन वृत्तियों में से जिस वृत्ति के अनुसार मनुष्य करे वह उसी मेल में गिना जाता है। यदि धर्म प्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य अच्छा समझा जायगा और निकृष्ट प्रवृत्ति प्रबल रही तो वह मनुष्य नीच गिना जायगा और इस रीति से भले बुरे मनुष्यों की परीक्षा समय पाकर अपने आप हो जायगी, बल्कि अपनी वृत्तियों को पहचान
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