Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 103
________________ नागरीप्रचारिणी पत्रिका उस समय नाटक अधिक लिखे गए और उन नाटकों के कथोपकथन में जिस भाषा-शैली का प्रयोग हुआ वह यही वाद-विवाद की भाषा-शैली है। इस प्रकार यह निश्चित है कि इस समय के धार्मिक आंदोलन का जो रूप समस्त उत्तरी भारत में फैला वह हिंदी गद्य-शैलो की अभिवृद्धि का बड़ा सहायक हुआ। जिस भाषा-शैली को संयत एवं सुघड़ बनाने के लिये सैकड़ों वर्षों की आवश्यकता होती वह इस आंदोलन के उथल-पुथल में अविलंब ही सुधर गई। इसी समय गद्य संसार में पंडित गोविंदनारायण मिश्र के समान धुरंधर लेखक प्रादुर्भूत हुए। प्रभी तक गद्य साहित्य - में प्रचंड पांडित्य का प्रदर्शन किसी की गोविंदनारायण मिश्र * शैली में नहीं हुआ था। यो तो पंडित बदरीनारायण चौधरी की भाषा का रूप भी पांडित्यपूर्ण एवं गद्य-काव्यात्मक था, परंतु उनमें उतनी दीर्घ समासांत पदावली नहीं पाई जाती जितनी कि मिश्रजी की रचना में प्रचुरता से प्राप्त होती है। इनमें गद्य-काव्यात्मकता की इतनी अधिकता है कि स्थान स्थान पर भावनिदर्शन अरुचिकर एवं अस्पष्ट हो गया है। अस्पष्ट वह इस विचार से हो जाता है कि वाक्य के अंत तक आते आते पाठक की स्मरण-शक्ति इतनी भाराकुल हो जाती है कि उसे वाक्यांशों अथवा वाक्यों के संबंध तक का ध्यान नहीं रह जाता। इस प्रकार की रचना केवल दर्शनीय और पठनीय ही होती है बोधगम्य नहीं। भाषा के गुण भी इसमें नहीं मिल सकते; क्योंकि इसमें न तो भावों का विनिमय सरलता से हो सकता है और न भाषा बोधगम्य ही होती है। संसार का कोई भी प्राणी इस प्रकार की भाषा में Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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