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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३५ इस रीति के भाव-व्यंजन का प्रभाव बहुत अधिक पड़ता है। इस प्रकार की शैली का प्रभाव हिंदी गद्य पर भी पड़ा और यही कारण है कि गद्य की नित्य भाषा भी इस प्रकार की हो गई__ "क्या कोई दिव्यचनु इन अक्षरों की गुलाई, पंक्तियों की सुधाई और लेख की सुघड़ाई को अनुत्तम कहेगा ? क्या यही सौम्यता है कि एक सिर अाकाश पर और दूसरा सिर पाताल पर छा जाता है ? क्या यही जल्दपना है कि लिखा आलूबुखारा और पढ़ा उल्लू बिचारा, लिखा छन्नू पढ़ने में आया झब्बू । अथवा मैं इस विषय पर इतना जोर इसलिये देता हूँ कि आप लोग सोचे समझे विचारें और अपने नित्य के व्यवहार में प्रयोग में लावें। इससे आपका नैतिक जीवन सुधरेगा, आपमें परोक्ष की अनुभूति होगी और होगी देश तथा समाज की भलाई।" __ इसके अतिरिक्त गद्य शैलो में जो व्यंग भाषा का रुचिकर रूप दिखाई पड़ता है वह भी इसी धार्मिक आंदोलन का अप्रत्यक्ष परिणाम है। इस आर्य-समाज के प्रतिपादकों को जिस समय भिन्न धर्मावलंबियों से वाद-विवाद करना पड़ता था उस समय ये अपने दिली गुबारों को बड़ी मनोरंजक, आकर्षक तथा व्यंग भाषा में निकालते थे। यही नहीं, वरन् वाद-विवाद एवं वक्तृताओं के सिलसिले में ये लोग "सीधो, तीव्र और लकड़तोड़ भाषा" का प्रयोग करते थे। इन सब विशेषताओं • का प्रभाव स्पष्ट रूप से उस समय के गद्य-लेखकों पर पड़ा। बालकृष्ण भट्ट प्रभृति लेखकों की रचनाओं में व्याख्यान की भाषा का आभास प्रकट रूप में दिखाई पड़ता है। इन सब बातों के अतिरिक्त हम यह देखते हैं कि नाटकों में प्रयुक्त कथोपकथन की भाषा का भी आधार यही वाद-विवाद की भाषा है।
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