Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 114
________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास २४७ पड़ती है, वह यह है कि काल विशेष में उसके भीतर एक ऐसी अवस्था उत्पन्न होती है जब कि अकस्मात् कुछ ऐसे कारण उपस्थित हो जाते हैं जिनके कारण एक प्रबल परिवर्तन जाता है । ये कारण वस्तुतः कुछ दिनों से उपस्थित रहते हैं, परंतु अवसर विशेष पर ही उनसे प्रेरित घटना का विस्फोटन होता है । यही नियम साहित्य के इतिहास में भी घटित होता है । उसमें भी किसी विशेष समय पर कई कारणों के आकस्मिक संघर्ष से विशेष उलट-फेर हो जाता है। हिंदी गद्य के धारावाहिक इतिहास में सन् १८०० ई० वास्तव में इसी प्रकार का समय विशेष था । यों वो लेखन- कला के प्रसार का श्रारंभ बहुत समय पूर्व ही हो चुका था, और अत्र तक कितने ही प्रतिभाशाली लेखक उत्पन्न हो चुके थे जो अपनी रचनाओं की विशेषता की छाप हिंदी साहित्य पर लगा चुके थे; परंतु सन् १८०० में न्यायालयों में हिंदी का प्रवेश, काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा सरकार की सहायता से हिंदी की हस्तलिखित पुस्तकों की खोज और प्रयाग में 'सरस्वती' ऐसी उन्नतिशील पत्रिका का प्रकाशन एक साथ ही आरंभ हुआ । गद्य की व्यापकता का क्रमिक विकास होते देखकर सतर्क लेखकों के हृदय में यह विचार उत्पन्न हुआ कि भाषा की व्यवस्था आवश्यक है । अभी तक तो गद्य का प्रकाशन ही प्रकाशन होता रहा । लोगों का विचार यही था कि भाषा का किसी प्रकार स्वरूप स्थिर हो और उसके आवश्यक विषयों पर कुछ न कुछ लिखा जाय । यही कारण है कि उस समय के प्रधान लेखकों में भी व्याकरण की घोर अवहेलना प्राय: पाई जाती है । गुण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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