Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

View full book text
Previous | Next

Page 116
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४ लिखता रहा। कोई उसकी आलोचना करनेवाला न था। प्रतएव इन लेखकों की दृष्टि भी अपनी त्रुटियों की ओर नहीं गई थी। द्विवेदीजी ऐसे सतर्क लेखक इसकी अवहेलना न कर सके, अतएव इन्होंने उन लेखकों की रचना-शैली की मालोचना प्रारंभ की जो कि व्याकरणगत दोषों का विचार अपनी रचनाओं में नहीं करते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लोग सँभलने लगे और लेखादि विचारपूर्वक लिखे जाने लगे। उन साधारण दुर्बलताओं का क्रमशः नाश होने लगा जिनका कि हरिश्चंद्र काल में प्राबल्य था। सतर्क होकर लिखने से विरामादिक चिह्नों का प्रयोग व्यवस्थित रूप में होने लगा, साधारणत: लेख सुस्पष्ट और शुद्ध होने लगे। इसके अतिरिक्त इन्होंने गद्य-शैली के विकास के विचार से भी स्तुत्य कार्य किया। इस समय तक विशेष विशेष विषयों की शैलियाँ निश्चित नहीं हुई थीं। यों तो भाषा भाव के अनुकूल स्वभावतः हुमा ही करती है, परंतु प्रादर्श के लिये निश्चित स्वरूप उपस्थित करना आवश्यक होता है। यह कार्य द्विवेदीजी ने किया। भाषा की विशुद्धता के विचार से द्विवेदीजी उदार विचार के कहे जायेंगे। अपने भाव-प्रकाशन में यदि केवल दूसरी भाषा के शब्दों के प्रयोग से ही विशेष बल के आने की संभावना हो तो उचित है कि वे शब्द अवश्य व्यवहार में लाए जायें । द्विवेदीजी साधारणतः हिंदी, उर्दू, अँगरेजी प्रादि सभी भाषामों के शब्दों को व्यवहार में लाते हैं। परंतु ऐसा वे स्थान स्थान पर उपयुक्तता के विचार से करते हैं। इसके अतिरिक्त उनका शब्द चयन बड़ा शक्तिशाली और व्यवस्थित होता है। प्रत्येक शब्द शुद्ध रूप में लिखा जाता है, और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124