Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 117
________________ २५० नागरीप्रचारिणी पत्रिका ठीक उसी अर्थ में जो अर्थ अपेक्षित रहता है। इनकी वाक्यरचना भी विशुद्ध होती है। उसमें कहीं भी उर्दू ढंग का विन्यास न मिलेगा। शब्दों के अच्छे उपयोग और गठन से सभी वाक्य दृढ़ एवं भावप्रदर्शन में स्पष्ट होते हैं। छोटे छोटे वाक्यों में कांति तथा चमत्कार लाते हुए गूढ़ विषयों तक की सम्यक अभिव्यंजना करना द्विवेदीजी के बाएँ हाथ का खेल है। इनके वाक्यों में ऐसी उठान और प्रगति दिखाई पड़ती है जिससे भाषा में वही बल पाया जाता है जो अभिभाषण में। पढ़ते समय एक प्रकार का प्रवाह दिखाई पड़ता है। उनके वाक्यों में शब्द भी इस प्रकार बैठाए जाते हैं कि यह स्पष्ट प्रकट हो जाता है कि वाक्य के किस शब्द पर कितना बल देना उपयुक्त होगा; और वाक्य को किस प्रकार पढ़ने से उस भाव की व्यंजना होगी जो लेखक को अभिप्रेत है। द्विवेदीजी के पूर्व के लेखकों को जब हम वाक्य-रचना एवं व्याकरण में अपरिपक्व पाते हैं तब उनमें वाक्य-सामजस्य खोजना अथवा वाक्य-समूह का विभाजन लथा विन्यास देखना व्यर्थ ही है। एक विषय की विवेचना करते हुए उसके किसी अंग का विधान कुछ वाक्य-समूहों में और उस अंग के किसी एक अंश का विधान एक स्वतंत्र वाक्य-समूह में सम्यक रूप से करना तथा इस विवेचन-परंपरा का दूसरे वाक्य-समूह की विवेचन-परंपरा के साथ सामंजस्य स्थापित करना द्विवेदीजी ने प्रारंभ किया । इस विचार से इनकी भाषा में सामंजस्य का सुंदर प्रसार पाया जाता है। उसमें अनोखापन और चमत्कार आ गया है। इसी के साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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