Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 118
________________ - हिंदी की गद्य-शैली का विकास २५१ हम यह भी देखते हैं कि इनकी रचना में स्थान स्थान पर एक ही बात भिन्न भिन्न शब्दों में बार बार कही गई है। इससे भाव तो स्पष्टतया बोधगम्य हो जाता है पर कभी कभी एक प्रकार की विरक्ति सी होने लगती है। साधारणतः देखने से ही यह ज्ञात हो जाता है कि द्विवेदीजी ने आधुनिक गद्यरचना को एक स्थिर रूप दिया है। इन्हेंोंने उसका संस्कार किया; उसे व्याकरण और भाषा संबंधी भूलो से निवृत्त कर विशुद्ध किया और महावरों का चलती भाषा में सुंदरता से उपयोग कर उसमें बल का संचार किया। सारांश यह कि इन्होंने भाषा-शैली को एक नवीन रूप देने की पूर्ण चेष्टा की। उसको परिमार्जित, विशुद्ध एवं चमत्कारपूर्ण बनाकर भी व्यवहार-क्षेत्र के बाहर नहीं जाने दिया। भाव-प्रकाशन के तीन प्रकार होते हैं-व्यंग्यात्मक, आलो. चनात्मक और गवेषणात्मक । इन तीनों प्रकारों के लिये द्विवेदीजी ने तीन भिन्न भिन्न शैलियों का विधान रखा। इस प्रकार के कथन का तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि इस प्रकार की शैलियाँ इनके पूर्व प्रयुक्त ही नहीं हुई थीं, वरन् विचार यह है कि उनको निश्चयात्मक रूप अथवा स्थिरता नहीं प्राप्त हुई थी। इन तीनों शैलियों की भाषा भो भिन्न प्रकार की है। भाव के साथ साथ उसमें भी अंतर उपस्थित हुआ है। यह स्वाभा. विक भी है। उनकी व्यंग्यात्मक शैली की भाषा एकदम व्यावहारिक है। जिस भाषा में कुछ पढ़ी लिखी, अँगरेजी का थोड़ा बहुत ज्ञान रखनलाली, साधारण जनता बातचीत करती है, उसी का उपयोग इस शैली में किया गया है। इसमें उछल कूद, वाक्य-सरलता, एवं लघुता के साथ साथ भाव-व्यंजन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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