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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४५ है। अपने विषय को किस प्रकार गुप्तजी छोटे छोटे परंतु शक्तिशालो वाक्यों में प्रकट करते थे। स्थान स्थान पर एक बात दुहरा दी गई है। इससे भाव-व्यंजना में दृढ़ता और विशेषता आ गई है। "जिधर वह हुआ उधर विजय हुई। जिसके विरुद्ध हुआ पराजय हुई।" यहाँ केवल एक ही वाक्य से अभीष्ट अर्थ की पूर्ति हो सकती थी; पर उस अवस्था में उसमें इतना बल संचारित न होता जितना वर्तमान रूप में है। इनकी भाषा का प्रभाव देखकर तो स्पष्ट कहना पड़ता है कि यदि गुप्तजी नाटक लिखते तो भाषा के विचार से अवश्य ही सफल रहते। कथन प्रणाली का ढंग वार्तिक है। इसके अतिरिक्त भाषा भी बड़ी परिमार्जित पाई जाती है। शैली बड़ी ही चलती और व्यावहारिक है। कहीं भी हमें ऊबड़ खाबड़ नहीं मिलता। वाक्यों का उतार चढ़ाव बिलकुल भाव के अनुकूल हुप्रा है। वास्तव में गुप्तजी की भाषा प्रौढ़ रूप की प्रतिनिधि है। उच्च विचारों का इस प्रकार छोटे छोटे मुहावरेदार वाक्यों में और इतनी सरलता से व्यक्त करना टेढ़ी खीर है।
गुप्तजी आलोचक भी अच्छे थे। भाषा पर अच्छा प्रधिकार रहने से उनकी आलोचना में भी चमत्कार रहता था। किस बात को किस ढंग से कहना चाहिए इसका विचार वे सदैव रखते थे। साथ ही कथन-प्रणाली रूखी न हो इस विचार से बीच बीच में व्यंग्य के साथ वे विनोद की मात्रा भी पूर्ण रूप में रखते थे। इस प्रकार के लेखों में वे पंडित महावीरप्रसाद द्विवेदी की भाँति भाषा का खिचड़ो रूप ही प्रयोग में लाते थे। क्योंकि वे भी समझते थे कि इस प्रकार उनका
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