Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 110
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २४३ आवाजें आने लगीं। इसका कारण केवल एक था, वह यह कि एक तो अपने को संसार से परे रखकर केवल एक शब्दमय जगत् रचना चाहता था और दूसरा वास्तविक संसार के हृदय से हृदय मिलाकर व्यावहारिक सचा का आभास देना चाहता था। गुप्तजी कई वर्षों तक उर्दू समाचारपत्र का संपादन कर चुके थे। वे उर्दू भाषा के अच्छे ज्ञाता थे। उन्होंने भाषा को रुचिपूर्ण बनाना भली भाँति सीख लिया था। मुहावरों का सुंदर और उपयुक्त प्रयोग वे अच्छी तरह जानते थे। नित्य समाचारपत्र की चलवी भाषा लिखते लिखते इन्हें इस विषय में स्वाभाविक ज्ञान प्राप्त हो गया था कि छोटे छोटे वाक्यों में किस प्रकार भावों का निदर्शन हो सकता है। बीच बीच में मुहावरों के व्यापक प्रयोग से भाषा में किस प्रकार जान डालनी होती है यह भी वे भली भाँति जानते थे। यों तो उनकी रचना में स्थान स्थान पर उर्दू की अभिज्ञता की झलक स्पष्ट पाई जाती है, पर वह किसी प्रकार आपत्तिजनक नहीं है क्योंकि पहले तो ऐसे प्रयोग कम हैं, दूसरे उनका प्रयोग बड़े सुंदर रूप में हुआ है। इनके वाक्य छोटे होने पर भी संगत और दृढ़ होते थे। उनमें विचारों का निराकरण बड़ा ही स्पष्ट बोधगम्य होता था। इन्हीं का सहारा लेकर गुप्तजी सुंदर चित्रों का मनोहर रूप अंकित करते थे। जैसे___ "शर्माजी महाराज बूटी की धुन में लगे हुए थे। सिल बट्टे से भंग रगड़ी जा रही थी। मिर्च मसाला साफ हो रहा था। बादाम इलायची के छिलके उतारे जाते थे। नागपुरी नारंगियाँ छील छील Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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