Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 106
________________ हिंदी की गद्य शैली का विकास २३६ गद्य-शैली का विवेचन करते हुए लिखा है कि उसमें ऐसी भयंकरता मिलती है मानो मांस के लोथड़े बरस रहे हों। मेरा भी ठीक यही विचार मिश्रजी की शैली के संबंध में है। इनकी शैली में वाक्यों की लंबी दौड़ और तत्सम शब्दों के व्यवहार की बुरी लत के अतिरिक्त इतनी विचित्रता है कि भयंकरता आ जाती है। उपसों के अनुकूल प्रयोग से शब्दार्थों में विशिष्ट व्यंजना प्रकट होती है परंतु जब वह व्यर्थ का आडंबर बना लिया जाता है तब एक विचित्र महापन प्रकट होने लगता है। जैसे 'पंडित' 'रस' और 'ललित' के साथ 'सु', 'तुल्य' और 'उच्चरित' के साथ 'सम्' लगाकर अजनवी जानवर तैयार करने से भाषा में अस्वाभाविकता और अव्यावहारिकता बढ़ने के अतिरिक्त और कोई भलाई नहीं उत्पन्न हो सकती। इस संस्कृत की तत्सम शब्दावली तथा समासांत पदावली के बीच बीच में तद्भव शब्दों का प्रयोग करना मिश्रजी को बड़ा प्रिय लगता था। परंतु तत्समता के प्रकांड तांडव में बेचारे 'राह' 'पहुँच' 'बरसात' 'मूसरचंद' 'बूंद' आदि शब्दों की दुर्गति हो रही है। मिश्रजी सदैव 'सुचा देना 'अनेको घेर' और 'यह ही' का प्रयोग करते थे। विभक्तियों को ये केवल शब्दों के साथ मिलाकर लिखते ही भर न थे प्रत्युत उनका प्रयोग आवश्यकता से अधिक करते थे। इसके फल स्वरूप उनकी रचना शिथिल हो जाती थी। 'भाषा की प्रकृति के बदलने में' अथवा 'किसी प्रकार की हानि का होना संभव नहीं था' में यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है। 'भाषा की प्रकृति बदलने में' अथवा 'किसी प्रकार हानि होना संभव नहीं था' लिखना कुछ बुरा न होता। "तत्व निर्णय का होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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