Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 107
________________ २४० नागरीप्रचारिणी पत्रिका असंभव समझिए” में यदि 'का' विभक्ति तत्व के साथ लगा दी जाय तो भाव अधिक बोधगम्य हो जायगा । इस भाँति हम देखते हैं कि मिश्रजी की भाषा चाहे प्रानुप्रासिक होने के कारण श्रुतिमधुर भले ही लगे परंतु वास्तव में बड़ी अव्यावहारिक एवं बनावटी है। उनके एक एक वाक्य निहाई पर रखकर हथौड़े से गढ़े गए जान पड़ते हैं। इस गद्य-काव्यात्मक कही जानेवाली भाषा के अतिरिक्त मिश्रजी अपने विचार से जो साधारण भाषा लिखते थे वह भी उसी ढंग की होती थी। उसमें भी व्यावहारिकता की मात्रा न्यून ही रहती थी, उत्कृष्ट शब्दावली का प्रयोग और तद्भवता का प्रायः लोप उसमें भी रहता था। भाव-व्यंजना में भी सरलता नहीं रहती थी। डाक्टर जानसन की grand eloquent snoquipidalian phraseology का आनंद हिंदी गद्य में मिश्रजी की ही शैली में मिलता है। जब वे साधारण वादविवाद के आलोचनात्मक विषय पर भी लिखते थे उस समय भी उनकी भाषा और शैली उसी कोटि की होती थी। उनकी साधारण विचार-विवेचना के लिये भी गवेषणात्मक भाषा ही आवश्यक रहती थो। जैसे "साहित्य का परम सुदर लेख लिखनेवाला यदि व्याकरण में पूर्ण अभिज्ञ न होगा तो उससे व्याकरण की अनेकों अशुद्धियाँ अवश्य होंगी। वैसे ही उत्तम वैयाकरण व्याकरण से विशुद्ध लेख लिखने पर भी अलंकार-शास्त्रों के दूषणों से अपना पीछा नहीं छोड़ा सकता है । अलंकार-भूषित साहित्य-रचना की शैली स्वतंत्र है। इसकी अभिज्ञता उपार्जन करने के शास्त्र भिन्न हैं जिनके परमोत्तम विचार में व्याकरण का अशुद्धि-विशिष्ट लेख भी साहित्य में सर्वोत्तम माना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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