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नागरीप्रचारिणी पत्रिका मिसिलबंदी होकर घेरे हैं, अपने कहकर बदल जाने की रीति अधिक थी इसलिए 'प्रेमपात्र' को स्वप्न समर्पित कर शाक्षी बनाया, अब कैसे बदलोगी!"
__ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र के बाल्यकाल में ही प्रार्य-समाज के प्रचार ने हिंदी की गद्य शैली में कई आवश्यक परिवर्तन किए।
1. वास्तव में गद्य के विकास के लिये यह आर्य-समाज और
'पावश्यक होता है कि उसमें इतना बल स्वामी दयानंद
श्रा जाय कि वाद-विवाद भली भाँति हो सके, विषय का सम्यक् प्रतिपादन हो सके। यह उसी समय संभव है जब कि भाषा में बल का संचार व्यापक रूप से होने लगे। वाद-विवाद का ही विशद रूप व्याख्यान है, उसमें वादविवाद का मननशील एवं संयत प्राभास रहता है। किसी विषय का सम्यक गवेषण करने के उपरांत बलिष्ठ और स्पष्ट भाषा में जो विचार-धारा निःसृत होती है उसी का नाम है व्याख्यान । इस धर्म विचार को व्यापक बनाने के लिये जो व्याख्यानों और वक्तृताओं की धूम मची उससे हिंदी गद्य को बड़ा प्रोत्साहन मिला। इस धार्मिक आंदोलन के कारण सारे उत्तरी भारत में हिंदी का प्रसार हुआ। इसका कारण यह था कि आर्य-समाज के प्रतिष्ठापक स्वामी दयानंदजी ने, गुजराती होने पर भी, हिंदी का ही आश्रय लिया था। इस चुनाव का कारण हिंदी की व्यापकता थी। अस्तु हिंदी के प्रचार के अतिरिक्त जो प्रभाव गद्य शैली पर पड़ा वह अधिक विचारणीय है। व्याख्यान अथवा वाद-विवाद को प्रभावशाली बनाने के लिये एक ही बात को कई बार से घुमा फिराकर कहने की भी प्रावश्यकता होती है। सुननेवालों पर
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