Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 99
________________ २३२ नागरीप्रचारिणी पत्रिका कर मनुष्य अपनी परीक्षा भी श्राप कर सकेगा । राजपाट, धन दौलत, विद्या स्वरूप वंश मर्यादा से भले बुरे मनुष्य की परीक्षा नहीं हो सकती । " जगमोहन सिंह "पृथ्वीराज - ( प्रीति से संयोगिता की ओर देखकर ) मेरे नयनों के तारे, मेरे हिए के हार, मेरे शरीर का चंदन, मेरे प्राणाधार इस समय इस लोकाचार से क्या प्रयोजन है ? जैसे परस्पर के मिलाप में मोतियों के हार भी हृदय के भार मालूम होते हैं, इसी तरह ये लोकाचार भी इस समय मेरे व्याकुल हृदय पर कठिन प्रहार हैं । प्यारी ! रक्षा करो अब तक तो तुमारे नयनों की बाण-वर्षा से छिनकवच हो मैंने अपने घायल हृदय को सम्हाला पर अब नहीं सम्हाला जाता ।" इस समय के गद्य साहित्य का सुंदर उदाहरण ठाकुर जगमोहनसिंह जी की रचनाओं में प्राप्त होता है । ठाकुर साहब हिंदी साहित्य के अतिरिक्त संस्कृत एवं अँगरेजी भाषा के भी प्रच्छे जानकार थे । इसकी छाप उनकी लेखनी से स्पष्ट झलकती है । उनकी रचनाओं में न तो पंडित प्रतापनारायण की भाँति विरामादि चिह्नों की अव्यवस्था मिलती है और न लाला श्रीनिवासदास की भाँति मिश्रित भाषा एवं शब्दों के अनियंत्रित रूप ही मिलते हैं । यों तो 'शाक्षी' 'तुम्हें समर्पित है, 'जिसे दूँ' 'हम क्या करें' ' चाहती है' और 'घरे हैं' इत्यादि पूर्वी रूप मिलते हैं परंतु फिर भी भाषा का जितना बोधगम्य, स्वाभाविक, तथा परिष्कृत परिमाण हमें इनकी रचनाओं में प्राप्त होता है उतना साधारणतः सामान्य लेखकों में नहीं मिलता । ठाकुर साहब भी स्थान स्थान पर ठीक वैसी ही गद्य काव्यात्मक भाषा का उपयोग करते थे जैसी कि हमें भट्टजी की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat .. www.umaragyanbhandar.com

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