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. हिंदी की गद्य-शैली का विकास २३३ रचना में प्राप्त हुई थी। शैली के विचार से इनकी लेखनप्रणाली स्पष्ट और अलंकृत होती थो परंतु उसमें 'प्रेमघन' की उलझनवाली वाक्य-रचना नहीं रहती थी। उनकी शैली में तड़क भड़क न होते हुए भी चमत्कार और अनोखापन है जो केवल उन्हीं की वस्तु कही जा सकती है। उसमें एक व्यक्तित्व विशेष की झलक पाई जाती है। संस्कृत-ज्ञान का उपयोग नन्होंने अपने शब्द-चयन में किया है। शब्दों की सुंदर सजावट से उनकी भाषा में कांति आ गई है। इस कांति के साथ मधुरता एवं संस्कृति का सामंजस्य है। जैसे
“जहाँ के शल्लकी वृक्षों की छाल में हाथी अपना बदन रगड़ रगड़कर खुजली मिटाते हैं और उनमें से निकला क्षीर सब वन के शीतल समीर को सुरमित करता है मंजु वंजुलकी लता और नील निचुल के निकुंज जिनके पत्ते ऐसे घने कि सूर्य के किरणों को भी नहीं निकलने देते इस नदी के तट पर शोभित हैं। ऐसे दंडकारण्य के प्रदेश में भगवती चित्रोत्पला जो नीलोत्पलों की झाड़ियों और मनोहर पहाड़ियों के बीच होकर बहती हैं, कंकगृद्ध नामक पर्वत से निकलकर अनेक दुर्गम विषम और असम भूमि के ऊपर से, बहुत से तीर्थों और नगरों को अपने पुण्य जल से पावन करती पूर्व समुद्र में गिरती है।" ___"लो......वह श्यामलता थी, यह उसी लता मंडप के मेरे मानसरोवर की श्यामा सरोजिनी है, इसका पात्र और कोई नहीं जिसे दूं: हाँ एक भूल हुई कि श्यामा-स्वप्न एक 'प्रेमपात्र' को अर्पित किया गया। पर यदि तुम ध्यान देकर देखो तो वास्तव में भूल नहीं हुई। हम क्या करें तुम आप चाहती है। कि ढोल पिटै; आदि ही से तुमने गुप्तता की रीति एक भी नहीं निबाही, हमारा दोष नहीं तुम्ही विचारो मन चाहे तो अपनी 'तहरीर' और 'एकबाल' देख लो दफर के दफर
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