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हिंदी की गद्य-शैलो का विकास २२६ समारोह के सहित उनकी लीला ( पेजेंट) दिखाने के अभिप्राय से कथा प्रबंध रचना में कुछ भाग का तो स्वयं निर्माण करना एवं कुछ में औरों से सहायता लेनी स्थिर कर उनपर उसका भार अर्पण किया।" ।
जिस समय बड़हर की रानी का कोर्ट आफ वास छूटा था उसका समाचार इन्होंने यो प्रकाशित किया था___ "दिव्य देवी श्रीमहारानी बड़हर लाख झंझट झेल और चिर काल पर्यंत बड़े बड़े उद्योग आर मेल से दुःख के दिन सकेल अचल 'कोर्ट' का पहाड़ ढकेल फिर गद्दी पर बैठ गई। ईश्वर का भी कैसा खेल है कि कभी तो मनुष्य पर दुःख की रेल पेल और कभी उसी पर सुख की कबोल है।"
कितनी साधारण सी बात थी परंतु उसका इतना तूल इस प्रकार की रचना में संभव है। यह स्पष्ट ही ज्ञात होता है कि भाषा हथौड़ा लेकर बड़ी देर तक गढ़ी गई है। लिखनेवाले का अभ्यास बढ़ जाने पर इस प्रकार भाव प्रकाशन में उसे विशेष असुविधा तो नहीं रह जाती, परंतु उसकी रचना साधारणतः अव्यावहारिक सी हो जाती है। चौधरीजी की भाषा इस विषय में प्रमाण मानी जा सकती है। भारतेंदु की चमत्कार रहित एवं व्यावहारिक शैली के ठीक विपरीत यह शैली है। इसमें चमत्कार एवं प्रालंकारिकता का विशेष भाग पाया जाता है। किसी साधारण विषय को भी बढ़ा चढ़ाकर लिखना इसमें अभीष्ट होता है। इस प्रकार इसकी स्वाभाविकता का क्रमागत हास होता है और चलतापन नष्ट हो जाता है। ___ यो तो प्रेमघनजी की रचना में भी "पान पड़ा', 'कराकर' 'ती भी' इत्यादि मिलता है परंतु भाषा का जितना पुष्ट रूप
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