Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 94
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२७ बिनै कनातन का डौल बाँधै" हमारी भी कोई सुनैगा ? देखें कौन माई का लाल पहले सिर उठाता है ? इस प्रकार की भाषा मिश्रजो अपनी उन रचना में नहीं प्रयुक्त करते थे जो अधिक विवेचनापूर्ण होती थीं। विरामादि चिह्नों का तथा भावभंगी का तो वही रूप रहता था पर शब्दावली में अंतर होता था। इसके अतिरिक्त भाषा भी भाव के अनुकूल बनकर संयत एवं गंभीर हो जाती थी। . "अकस्मात् जहाँ पढ़ने लिखने आदि में कष्ट सहते हो वहाँ मन को सुयोग्य बनाने में भी त्रुटि न करो, ना चेत् दिव्य जीवन लाभ करने में अयोग्य रह जाओगे। इससे सब कर्तव्यों की भांति उपयुक्त विचार का अभ्यास करते रहना मुख्य कार्य समझो तो थोड़े ही दिनों में मन तुम्हारा मित्र बन जायगा और सर्व काल उत्तम पथ में विचरण करने तथा उत्साहित रहने का उसे स्वभाव पड़ जायगा, तथा दैवयोग से यदि कोई विशेष खेद का कारण उपस्थित होगा जिसे नित्य के अभ्यास उपाय दूर न कर सकें उस दशा में भी इतनी घबराहट तो उपयोगी नहीं जितनी अनभ्यासियों की होती है क्योंकि विचार शक्ति इतना अवश्य समझा देगी कि सुख दुःख सदा अाया ही जाया करते हैं।" _ भारतेंदु के प्रयास एवं भट्टजी के तथा मिश्रजी के सतत उद्योग से हिंदी का गद्य साहित्य बलिष्ठ हो चला था। उसमें . परिपक्कता का प्राभास आने लगा था, बदरीनारायण चौधरी " भिन्न प्रकार के विषयों का दिग्दर्शन होने 'प्रेमघन' खगा था। इस समय के गद्य की अवस्था उस पक्षि-शावक के समान थी जो अभी स्फुरण शक्ति का संचय कर रहा हो। इसी समय 'प्रेमघना जी ने एक नवीन रूप धारण किया। भाषा में बल्ल पा ही रहा था। इन्होंने उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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