Book Title: Nagri Pracharini Patrika Part 11
Author(s): Gaurishankar Hirashankar Oza
Publisher: Nagri Pracharini Sabha

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Page 92
________________ हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२५ भी सभी काम बात ही पर निर्भर हैं। बात ही हाथी पाइए बातहि हाथी पाँव। बात ही से पराए अपने और अपने पराए हो जाते हैं।" भाषा में मुहावरों का प्रयोग करना तो एक ओर रहा, लेखों के शीर्षक तक पूरे पूरे मुहावरों ही में होते थे। जैसे 'किस पर्व में किसकी बन पाती है', 'मरे का मार शाह मदार', इत्यादि। इनकी भाषा का रूप बड़ा अस्थिर था। अपने समय तक की प्रतिष्ठित भाषा का भी ये अनुसरण न कर सके। इस विचार से इनकी शैली बहुत पिछड़ो रह गई। साधारणतः देखने पर इनकी भाषा में पंडिताऊपन और पूरबीपन झलकता है। 'प्रानंद लाभ करता है' 'वनाओगे' 'तो भी' 'बात रही' (थी) 'शरीर भरे की' 'चाय की सहाय से' 'कहाँ तक कहिए' 'हैं के जने' इत्यादि से भाषा में व्यवस्था एवं परिमार्जन की न्यूनता सूचित होती है। इसके अतिरिक्त इनकी रचना में विराम आदि चिह्नों का प्रभाव है। इससे शैली में अव्यवस्था उत्पन्न हो गई है। स्थान स्थान पर तो भाव भी विक्षिप्त दिखाई पड़ते हैं। पढ़ते पढ़ते रुकना पड़ता है। भाव के समझने में बड़ी उलझन उपस्थित हो जाती है। जो विचार विराम आदि चिह्नों के प्रयोग से पाठ्य-सरल बनाए जा सकते हैं वे भी उनकी अनुपस्थिति के कारण अस्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। मिश्रजी के समय तक इन विषयों की कमी नहीं रह गई थी। शैली में स्थिरता एवं परिपकता पा चली थी। ऐसी अवस्था में भी इनकी भाषा बड़ी अव्यवस्थित और पुरानी ही रह गई है। जैसे-"पर केवल इन्हीं के तक में दूसरे को कुछ नहीं, फिर क्यों इनकी निंदा की जाय ?" यह वाक्य बिल्कुल अस्पष्ट है। २६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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