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नागरीप्रचारिणी पत्रिका पढ़नेवालों के समाज का सम्यक् प्रसार नहीं हुआ था। उनकी लेखनी के हँसमुख स्वभाव ने एक नवीन..पाठक-समूह उत्पन्न किया। उन्होंने भट्टजी के साथ हाथ मिलाकर एक साधारण और व्यावहारिक साहित्य का आविष्कार कर यह दिखला दिया कि भाषा केवल विचारशील विषयों के प्रतिपादन एवं आलोचन के लिये ही नहीं है, वरन् उसमें नित्य के व्यवहृत विषयों पर भी आकर्षक रूप में विवेचन संभव है।
भट्टजी के विचारों में इनके विचारों से एक विषय में घोर विभिन्नता थी। भट्टजी ने भारतेंदु की भाँति नागर साहित्य का निर्माण किया। परंतु ये साधारण जन-समुदाय को नहीं छोड़ना चाहते थे। इस धारणा के निर्वाह के विचार से इन्हें अपने भाव-प्रकाशन के ढंग में भी परिवर्तन करना पड़ा, दिहाती भाषा एवं मुहावरों को भी अपनी रचना में स्थान देना पड़ा। इन प्रयोगों के कारण कहीं कहीं पर अशिष्टता और ग्रामीणता भी आ गई है। पर मिश्रजी अपने उद्देश्य की पूर्ति के सामने इस पर कभी ध्यान ही न देते थे। यों तो इनकी भाषा साधारण मुहावरों के बल पर ही चलती थी। इन मुहावरों के प्रयोग से चमत्कार का अच्छा समा. वेश हुमा है। कहीं कहीं तो इनकी झड़ी लग गई है। इसका प्रमाण हमें इस अवतरण में भली भाँति मिलता है"डाकखाने अथवा तारघर के सहारे से बात की बात में चाहे जहाँ की जो बात हो जान सकते हैं। इसके अतिरिक्त बात बनती है, बात बिगड़ती है, बात पा पड़ती है, बात जाती रहती है, बात जमती है, बात उखड़ती है, बात खुखती है, बात छिपती है, बात चलती है, बात अड़ती है, हमारे तुम्हारे
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