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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२३ कहे जा सकते हैं। इन्होंने भी 'बात', 'वृद्ध', 'भौं', 'दाँत' इत्यादि साधारण और व्यावहारिक विषयों पर स्वच्छंद विचार किया है। इस प्रकार के विषयों पर लिखने से बड़ा ही उपकार हुआ। नित्य व्यवहार में आनेवाली वस्तुओं पर भी कुछ तथ्य की बाते कही जा सकती हैं, इसका बड़ा ही सुंदर और आदर्श रूप इन छोटे छोटे निबंधों से प्राप्त होता है। उनके इस प्रकार के विषयों पर अधिक लिखने से कुछ लोगों की यह धारणा कि 'उनकी प्रतिभा केवल सुगम साहित्य की रचना में ही प्राबद्ध रही और उसे अपने समय के साहित्यिक धरातल से ऊँचे उठने का कम अवकाश मिला' नितांत भ्रमात्मक है; क्योंकि 'मनोयोग', 'स्वार्थ' ऐसे भावात्मक विषयों पर विचारपूर्ण विवेचन करना साधारण बात न थी। यह दूसरी बात है कि इन विषयों पर उन्होंने इतना अधिक न लिखा हो अथवा उतनी भावुक व्यंजना न की हो जितनी कि भट्टजी ने की है। परंतु जो कुछ उन्होंने लिखा है अच्छा लिखा है, इसमें कोई संदेह नहीं ।
हमें उनकी लेखन-प्रणाली में एक विशेष चमत्कार मिलता है। संभव है जिसे लोग 'विदग्ध साहित्य' कहते हैं उसका निर्माण उन्होंने न किया हो परंतु उनकी लेखनी के साथ साधारण समाज की रुचि अवश्य थी। उनके लेखों में उनकी निजी छाया सदैव रही है। जैसा उनका स्वभाव था वैसा ही उनका विषय-निर्वाचन भी था। इसके अतिरिक्त उनकी रचना में प्रात्मीयता का भाव अधिक मात्रा में रहता था। साधारण विषय को सरल रूप में रखकर वे सुननेवाले का विश्वास अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। अभी तक हिंदी
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