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हिंदी की गद्य-शैली का विकास २२१ सी गुथी दिखाई पड़ती है। इन सब बातों का प्रभाव यह पड़ा कि भाषा में कांति, अोज और आकर्षण उत्पन्न हो गया।
__ उनके विषय-चयन में भी विशेषता थी। साधारण विषयों पर भी इन्होंने सुंदर लेख लिखे हैं, जैसे कान, नाक, अाँख, बातचीत इत्यादि। इनकी गृहीत शैली का अच्छा उदाहरण इनके इन लेखों में पाया जाता है। भाषा में दृढ़ता की मात्रा दिखाई पड़ती है। मुहावरों के सुंदर प्रयोग से एक गठन विशेष उत्पन्न हो गई है, जैसे "वही हमारी साधारण बातचीत का ऐसा घरेलू ढंग है कि उसमें न करतलध्वनि का कोई मौका है, न लोगों के कहकहे उड़ाने की कोई बात उसमें रहती है। हम तुम दो प्रादमी प्रेमपूर्वक संलाप कर रहे हैं। कोई चुटीली बात आ गई हँस पड़े तो मुसकुराहट से ओठों का केवल फरक उठना ही इस हँसी की अंतिम सीमा है। स्पीच का उद्देश्य अपने सुननेवालों के मन में जोश और उत्साह पैदा कर देना है। घरेलू बातचीत मन रमाने का एक ढंग है। इसमें स्पीच की वह सब संजीदगी बेक़दर हो धक्के खाती फिरती है।" __इसके अतिरिक्त भट्टजी उस गद्य काव्य के निर्माता हैं जिसका प्रचार प्राजकल बढ़ रहा है। किसी किसी विषय को लेकर पद्यात्मक प्रणाली से गद्य में लिखना आजकल साधारण बात है। परंतु उस समय इस प्रकार लिखने में अधिक विचार करने और बना बनाकर लिखने में समय लगता रहा होगा। भट्टजी ने इस प्रकार के पद्यात्मक गधों की भी भावपूर्ण रचना की है। इस प्रकार की रचनाओं में काल्पनिक विचारशैली की अत्यंत प्रावश्यकता पड़ती है। पर कल्पना
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