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नागरीप्रचारिणी पत्रिका की दौड़ में भी हम भट्टजी को किसी से पोछे नहीं देखते । उनके 'चंद्रोदय' और 'आँसू' वाले लेख इसके प्रमाण हैं। जैसे
कुई की कलियों को विकसित करते, मृगनयनियों के मान को समूल उन्मीलित करते, छिटकी हुई चाँदनी से दशों दिशाओं को धवलित करते, अन्धकार को निकालते, सीढ़ी पर सीढ़ी शिखर के समान आकाशरूपी विशाल पर्वत के मध्य भाग में चढ़ा चला आ रहा है। आपा-तमस्फाणु का हटानेवाला यह चंद्रमा ऐसा मालूम होता है मानो आकाश महासरोवर में श्वेत कमल खिल रहा है। उसमें बीच बीच जो कलंक की कालिमा है सो मानो भौरे गूंज रहे हैं।
इस प्रकार की भाषा सामान्य भाषा नहीं कही जा सकती, यह उस का गढ़ा हुआ रूप है, अतः विचारवर्द्धक और व्यावहारिक नहीं है। इस प्रकार की रचना के अतिरिक्त इन्होंने भावात्मक लेख भी लिखे हैं; जैसे 'कल्पना', 'आत्मनिर्भरता' आदि। इस प्रकार के लेखों में इनकी भाषा संयत एवं सुंदर हुई है। साधारणतः देखने से इनकी प्रबंध-कल्पना बड़ो ही उच्च कोटि की हुई है । भाषा मुहावरे के साथ बड़ी ही रोचक एवं आकर्षक ज्ञात होती है। यों तो इनकी रचनाओं का प्राकार उतना विस्तृत नहीं है जितना कि भारतेंदु का, पर कई अंशों में इनका कार्य नवीन ही रहा ।
भट्टजी का वर्णन उस समय तक समाप्त नहीं कहा जा सकता जब तक पंडित प्रतापनारायण मिश्र का भी वर्णन न हो
जाय। इन दोनों व्यक्तियों ने हिंदी प्रतापनारायण मिश्र
- गद्य में एक नवीन प्रायोजन उपस्थित किया था। उसका स्फुरण भी इन्हीं लोगों ने भली भाँति . किया था। मिश्रजी भी भट्टजी की भाँति अच्छे निबंध-लेखक
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